अमरीका के न्यू मैक्सिको के अलामगार्डो रेगिस्तान में 16 जुलाई 1945 को पहली बार परमाणु विस्फोट किया गया। परीक्षण सफल रहा और यह निश्चित हो गया कि यदि किसी पदार्थ का परमाणु विस्फोट किया जाए तो उससे भयंकर ऊर्जा प्राप्त होती है। परीक्षण की सफलता के तत्काल बाद वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में एक बात आई, वह यह कि जिस प्रकार परमाणु तोड़े जा सकते हैं उसी प्रकार जोड़े भी जा सकते हैं। यहाँ यह जान लेना चाहिए कि परमाणु बम में अधिकतम 10 प्रतिशत द्रव्य ही ऊर्जा में बदल सकता है, शेष निरर्थक चला जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि विस्फोट से उत्पन्न ऊर्जा निहित ऊर्जा से हमेशा कम होगी उदाहरण के लिए मान लीजिए एक दीपक जल रहा है। उसमें से चीरकर आधी बत्ती निकालकर दूसरे दीपक में डाल दी जाए, तो लौ विभक्त हो जाएगी और प्रत्येक स्थिति में पहली बत्ती की लौ से कम ही होगी। यह ऐसा ही है जैसे ब्रह्म से उत्पन्न होने वाली प्रत्येक सत्ता जीवित होने और ब्रह्म का अंश होने पर भी ब्रह्म के समान न तो शक्तिशाली होगी और न व्यापक। जीव और आत्माएँ हर दृष्टि से स्वल्प-समर्थ ही होगी तब तक, जब तक कि उससे चीरकर अलग हुई रहेंगी।
इसी बीच वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में एक बात याद आई। वह यह कि सूर्य भी तो अपने भीतर से नाभिकीय ऊर्जा का ही सृजन करता है। उसका ताप भी लगभग 20000000 डिग्री सेन्टीग्रेड होता है, किन्तु उसमें तो कहीं भी इस प्रकार विस्फोट नहीं होता। परीक्षण और संकलित जानकारियों के आधार पर मालूम हुआ कि सूर्य एक परमाणु को तोड़ता नहीं, वरन् दो तथा अनेक परमाणुओं को जोड़ता है। इसे संलयन-क्रिया कहते हैं। एक बाती के साथ दूसरी बाती जोड़ देने से लौ द्विगुणित हो उठती है उसी प्रकार हाइड्रोजन परमाणुओं का सूर्य के केन्द्र में संलयन-जुड़ना भी भारी ऊर्जा का उत्पादन करता है। यह ऊर्जा ही पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के जीवन का आधार है। यों कह सकते हैं कि सूर्य की चेतना ही प्राण हैं।
यहाँ यह बता देना ठीक है कि मनुष्य भी समस्त संवेदनाएँ यथा-प्रेम, दया, करुणा, श्रद्धा, विश्वास, परोपकार ऐसे जो भी कुछ भाव हैं, वह सब नाभिकीय गुण हैं। नाभिकीय रचना सब जगह एक ही है जैसी धन और ऋणविद्युत आवेश (चार्ज) वाली होती है। तात्पर्य यह है कि जिस तरह की चेतना मनुष्य शरीर में है, शारीरिक तत्त्वों के अन्तर होने पर भी वही नाभिकीय (न्यूक्लियिक) चेतना सूर्य में भी होनी चाहिए। इसी बात को यों भी कहते हैं कि जड़-चेतन में सर्वत्र एक ही आत्मा विद्यमान हैं।विज्ञान की भाषा में यह कह सकते हैं कि समस्त पदार्थों में विद्यमान नाभिकीय चेतना ही विराट चेतना का अंश है।
ध्यान-मन की एकाग्रता द्वारा अपनी प्राणमय चेतना (नाभिकीय चेतना) को सूर्य या अन्य किसी चेतना के साथ जोड़ देने से दो तत्त्वों का मिलन ऐसे ही हो जाता है जैसे दो दीपकों की लौ मिलकर एक हो जाती है। व्यक्ति अपनी अहंता भूलकर जब किसी अन्य अहंता से जोड़ लेता है तो उसकी अनुभूतियां और शक्तियाँ भी वैसी ही—इष्टदेव जैसी ही हो जाती है। ध्यान की परिपक्वता को एक प्रकार का संलयन ही कहना चाहिए। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि वह शक्ति विस्फोट की शक्ति से भी अधिक प्रखर होती है। आत्मचेतना को ब्राह्मीचेतना से मिलकर ब्रह्मसाक्षात्कार इसी सिद्धान्त पर होता है।