सदाचरण ही कल्याण का एकमात्र मार्ग

November 1971

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जीवन में पूर्णता और शांति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपना आचरण सुधारने पर सबसे प्रथम ध्यान देना पड़ता है। कषाय-कल्मषों से भरा हुआ जीवन इतना भारी होता है कि वह नीचे तो गिर सकता है, पर ऊपर नहीं चढ़ सकता है। ऊपर चढ़ने वाले का भार हलका होना चाहिए। बोझिल बनाने वाले दुष्कर्म ही हैं, जो चित्त को भ्रमित और अस्थिर बनाए रहते हैं । शान्तचित्त उसका रहेगा, जिसे कुकर्मों की आग हर घड़ी जलाती नहीं। स्थिर मन उसका रहेगा, जिसे पतन का पश्चाताप और तृष्णा का प्रलोभन उद्विग्न नहीं करता। नीति,धर्म और सदाचार का रास्ता अपनाकर ही मनुष्य चैन से रह सकता है और अपने समीपवर्तियों को चैन से रहने दे सकता है। विद्या पढ़ने मात्र से कोई ज्ञानी नहीं होता, विद्यावान् वह है, जिसने अपने आचरणों को सुधारने में सावधानी बरती।

नाविरतो दुश्चरितात्, नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि, रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ — कठोपनिषद                                                                    

अर्थात् —जिनने दुष्ट आचरण नहीं छोड़े, जिन्होंने संयम नहीं साधा, जिनके संशय समाप्त नहीं हुए,जिनका मन अशांत रहता है, ऐसे व्यक्ति को न आत्मा की प्राप्ति होती है और न परमात्मा की। चाहे वह कितना ही विद्वान क्यों न हो।

संयमशील व्यक्ति अपनी शक्तियों को अनावश्यक रूप से नष्ट नहीं होने देता, उन्हें बचाकर ब्रह्मवर्चस एकत्रित करता है। तदनुसार बढ़े हुए मनोबल से वह अपने आन्तरिक शत्रुओं से लड़ सकने और उन्हें परास्त कर सकने में सफल होता है। ज्ञान और चिन्तन-मनन का फल यही है कि व्यक्ति अपने आचरण को श्रेष्ठ बनाने के लिए अग्रसर है। ज्ञान की यथार्थता चरित्र की कसौटी पर ही परखी जाती है।

तप इति तपोनित्यः पौरुशिष्टिः। —तैत्तिरीय उपनिषद्

 अर्थात् — तप करो। तप में परम सिद्धियाँ प्रदान करने की सामर्थ्य है।

इन्द्रियनिग्रह को तप कहा गया है। मन को कुमार्ग से रोक सकने के साहस का नाम तप है । पाप और पतन की ओर घसीट ले जाने वाली तृष्णा और वासना के प्रवाह को रोक लेना तप है । तपस्वी को समस्त सिद्धियाँ मिलती हैं। तप से आत्मसाक्षात्कार होता है और तपस्वी ही पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में समर्थ होता है। ऐसे तपस्वी लोग ही पृथ्वी के स्तंभ हैं । उन्हीं के पुण्य के फल से इस सृष्टि का सारा क्रम चल रहा है। जिन्होंने व्रतशीलता की दीक्षा ली, सत्य को अपनाया। तपस्वी जीवन जिया और ज्ञान की साधना करते हुए परमार्थपरायण बने। ऐसे व्यक्ति ही संसार को स्थिर रखे हुए हैं।

सत्यं वृहत मुग्रं दीक्षा, तपोब्रह्म यज्ञः- पृथिवीं धारयन्ति। —अथर्ववेद

अर्थात् —महान् सत्य, उग्र दीक्षा, तप, ज्ञान और परमार्थ इन्हीं के आधार पर पृथ्वी टिकी हुई है।

आत्मा का प्राप्त होना मात्र साधना-उपासना पर निर्भर नहीं है। जिसके आचरण पवित्र न हों, वह योग-साधना में सफल नहीं हो सकता। आत्मा की प्रगति और परमात्मा की उपलब्धि के लिए सत्यनिष्ठ और तपस्वी जीवन जीना पड़ता है। आत्मा ज्ञानस्वरुप, सत्य, शिव और सुन्दर है। उसे प्राप्त करके मनुष्य सबकुछ प्राप्त कर लेता है, पर इस लाभ को हर कोई प्राप्त नहीं कर सकता। आत्मसाक्षात्कार के अधिकारी वे हैं, जिन्होंने मन और इन्द्रियों को जीत लिया। अज्ञान के अन्धकार से बचना ही आत्मसाक्षात्कार का प्रत्यक्ष फल है।

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा, सम्यग् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्। अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो, यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः॥ —मुण्डकोपनिषद

अर्थात्-यह आत्मा सत्य और तप से प्राप्त होता है। आत्मज्ञान और ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है। यह आत्मज्ञानस्वरूप, दर्शन करने योग्य और सुन्दर है। जिन जितेन्द्रिय तत्त्वदर्शियों ने इसका साक्षात्कार किया है, वे कहते हैं —"आत्मा ही मनुष्य को प्रकाशवान बनाता है।"

संसार में सम्मान उनका होता है, जो सत्यनिष्ठ हैं। उन्हीं पर जनता की श्रद्धा होती है। जिनका आचरण, व्यवहार, संभाषण असत्य का है, ऐसे लोग सबकी आँखों में गिर जाते हैं, न कोई इनका सम्मान करता है और न विश्वास। आत्मिक और भौतिक ऐश्वर्य उनके लिए सुरक्षित है। जिनका व्यवहार सच्चाई से भरा हुआ है। मिथ्याचारी का वैभव बादल की छाया की तरह अस्थिर रहता है और शीघ्र नष्ट हो जाता है।

दृष्ट्वा रुपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः। अश्रद्धामनृते sदधाच्छृद्धां सत्ये प्रजापतिः॥ ऋतेन सत्यमिन्दिय विपान शुक्रमन्धस। इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयो sस्मृत मधु॥ —यजु॰ 19/77

अर्थात् —प्रजापति ने असत्य में अश्रद्धा और सत्य में श्रद्धा को स्थापित किया। मनुष्य सत्य से भौतिक और आत्मिक ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। यह सत्य अमृत के समान मधुर है।

सत्य का आचरण, सच्चाई का व्यवहार अमृत के समान मधुर है। वह अपने अन्तःकरण में शांति तथा संतोष उत्पन्न करता है और दूसरों को अग्रगामी बनाता है। सच्चाई और सज्जनता का व्यवहार जिस किसी के साथ भी किया जाए वह बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकता। सत्य व्यवहार से परस्पर स्थिर घनिष्ठता और मित्रता उत्पन्न होती है। विश्वास बढ़ता है और सहयोग मिलता है। पर असत्य के आचरण से खिन्न होकर मित्र भी शत्रु बन जाते हैं।

हिरण्ययेन पात्रेण सत्यस्या पिहितं मुखम्। —ईशोपनिषद

अर्थात्—लोभ-लालच ने सत्य के मुख को ढँक दिया है। सत्य का व्यवहार सरल है। उसमें सुविधा भी है और शांति भी। पर देखा जाता है कि दुर्बल मन वाले मनुष्य प्रलोभनों से ललचाकर असत्य का सहारा लेकर लाभान्वित होने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रलोभन से जो बच सके, अनीति से प्राप्त होने वाले वैभव को ठुकरा सके, न्याय और परिश्रम के उपार्जन पर संतोष कर सके, वही सत्य पर आरुढ़ रह सकता है। भले ही उसके पास वैभव कम है, पर आत्मिक पवित्रता और सत्यनिष्ठा के कारण उसका साहस सदा ऊँचा रहता है। ऐसे लोगों के लिए सत्यरूपी भगवान का मुख सदा खुला रहता है और अपने कर्त्तव्यपालन के रूप में परमेश्वर का साक्षात्कार करते हुए संतुष्ट एवं प्रसन्न बना रहता है।

समूलो वा एष परिशुष्यति। यो अनृतम् अभिवदति॥ —प्रश्नोपनिषद्

अर्थात्- जो असत्य आचरण करता है सो समूल नष्ट हो जाता है।

अनीति के मार्ग पर चलते हुए कोई कुछ लाभ उठा भी ले तो वह स्थिर नहीं रहता, वरन् उस उपार्जनकर्त्ता को जड़ मूल से नष्ट कर देता है। अग्नि जहाँ रखी जाती है, वहीं जलाती है, पाप का आचरण जो करता है, वह दूसरों को ठगने और हानि पहुँचाने में उतना सफल नहीं होता, जितनी अपनी हानि कर लेता है। ठगा गया व्यक्ति अपनी पूर्ति किसी प्रकार कर लेता है। उस हानि को उठाकर भी काम चला लेता है पर जिसने असत्य का आचरण किया उसका नाश वह पापकर्म ही कर देता है और आत्मप्रताड़ना के कारण उसे निरन्तर उद्विग्न रहना पड़ता है। आत्मरक्षा के लिए आवश्यक है कि हम अपने धर्म की रक्षा करें और असत्य आचरण से बचें।


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