श्री आद्य शंकराचार्य के कुण्डलिनी अनुभव

November 1971

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शास्त्रार्थ में जब शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र को परास्त कर दिया तो उनकी पत्नी भारती ने कहा अभी मेरे पति ही हारे हैं, मैं उनकी अर्धांगिनी हूँ। मुझे भी हरा सकने पर आपकी विजय पूरी मानी जाएगी। शास्त्रार्थ उनसे भी हुआ, उनने काम विद्या संबंधी अनेक प्रश्न पूछे। शंकराचार्य ब्रह्मचारी होने के कारण उस विषय में अनभिज्ञ थे। प्रतिपादन यह था कि कामविद्या भी अध्यात्म विद्या का अविच्छिन्न अंग है। उसे न तो उपेक्षित रखा जा सकता है और न अनावश्यक बताया जा सकता है।जीवन-व्यवस्था एवं आत्मिक प्रगति में उनका भारी उपयोग है। सो उस संदर्भ में भी आत्मवेत्ता की जानकारी होनी चाहिए। श्री शंकराचार्य को भारती का तर्क स्वीकार करना पड़ा।

उन्होंने उत्तर देने के लिए समय माँगा, कथा है कि अपना शरीर छोड़कर शंकराचार्य ने एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश करके जीवन धारण किया और उसकी रानियों के साथ रहकर कामविद्या सीखी। शिक्षण पूरा होने पर वे राजा का शरीर छोड़कर अपने पूर्व शरीर में पुनः आ गए और भारती के प्रश्नों का उत्तर देकर उसका समाधान किया।

भगवान् शंकराचार्य ने अपनी शक्ति-साधना के अनुभवों की हलकी-सी झाँकी सौंदर्यलहरी में प्रस्तुत की है। शक्ति के बिना शिव की प्राप्ति नहीं हो सकती। उपनिषद्कार के अनुसार यह आत्मा बलहीनों को प्राप्त नहीं होती। दुर्बलता के रहते ब्रह्म तक पहुँच सकने की क्षमता कहाँ से आ सकती है। इस दृष्टि से ब्रह्मविद्या के सहारे ब्रह्मवेत्ता बनने और ब्रह्मतत्व को प्राप्त करने के प्रयत्न में भगवान् शंकराचार्य को शक्ति-साधना करनी पड़ी। और इसके लिए योगाभ्यास के—प्रत्याहार,धारणा, ध्यान, समाधि के प्रयोग ही पर्याप्त नहीं रहे, वरन् उन्हें पंच-तत्वों की प्रवृत्ति का संचार और नियंत्रित कर्तीृ अपराविद्या का अवलम्बन लेकर शरीर और मन को भी समर्थ बनाना पड़ा। इस प्रयोजन के अपराविद्या की साधना में कुंडलिनी शक्ति को प्रमुख माना जाता रहा है। इसे कामकला या काम-बीज भी कहते हैं। प्रजनन प्रयोजन में भी यह कला प्रयुक्त होती है और उसका जननेन्द्रिय के गुह्य क्रियाकलापों से भी संबंध है, इसलिये उसे गोपनीय गिन लिया जाता है और उसकी चर्चा अश्लील मानी जाती है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। अश्लील कोई अवयव या कोई क्रियाकलाप नहीं। प्रजनन को अपने यहाँ एक धर्म कृत्य माना गया है। सोलह संस्कारों में गर्भाधान भी एक संस्कार है। जिसकी पृष्ठभूमि धर्मकृत्यों के देवता और गुरुजनों के आशीर्वाद के साथ विनिर्मित की जाती है। भगवान् शिव का प्रतीक विग्रह जननेन्द्रिय के रूप में ही है, जिसे धर्मभावना और श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। निन्दनीय वह प्रक्रिया ही हो सकती है, जिसके द्वारा पशुप्रवृत्ति को भड़काने में सहायता मिले।

शंकराचार्य ने भारती के प्रश्नों को यह कहकर टाला नहीं कि हम संन्यासी हैं, हमें 'कामविद्या' के संदर्भ में कुछ जानना या बताना क्या आवश्यक है? वे जानते थे कि योग परा और अपराविद्या के सम्मिश्रण का नाम है। परा अर्थात् ब्रह्मविद्या ज्ञान-विद्या अपरा अर्थात् शक्तिविद्या आत्मवेत्ता को दोनों ही जाननी चाहिए। जो शक्ति है, उसके सदुपयोग-दुरुपयोग की जानकारी होना भी आवश्यक है। शरीर के क्रिया-कलाप और मन के उल्लास, जिस सूक्ष्म शक्ति से प्रेरित, प्रोत्साहित और कर्म प्रवृत्त होते हैं, उस कुण्डलिनी शक्ति को उपेक्षा में नहीं डाला जा सकता। इस उपेक्षा से विकृतियाँ उत्पन्न होने और सदुपयोग की अनभिज्ञता से अहित ही हो सकता है। इसलिए गृहस्थ, ब्रह्मचारी सभी के लिए उसे जानना आवश्यक है। भारती ने इसी तथ्य को प्रतिपादित करते हुए कामकला संबंधी प्रश्न पूछे। और शंकराचार्य ने उन प्रसंगों को निरर्थक या अनुपयुक्त नहीं बताया, वरन् यह स्वीकार किया कि ब्रह्मचर्य-ब्रह्मवेत्ता को भी रोम-रोम में संव्याप्त शक्ति का स्थूल न सही, सूक्ष्मप्रयोग तो जानना ही चाहिए, वह उन्हें विदित न था सो पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देने के लिए उन्हें अवकाश-अवधि माँगनी पड़ी और आवश्यक ज्ञान प्राप्त करके शास्त्रार्थ की पूर्णता करनी पड़ी।

मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरंध्र में 'ज्ञानबीज' और जननेन्द्रिय मूल में 'कामबीज' स्थित हैं। कामबीज को नारी की 'योनि' की संज्ञा दी जाती है और ज्ञानबीज को 'शिश्न' की। यह मात्र आकर्षक कल्पना ही नहीं; इसमें वैज्ञानिक तथ्य भी हैं; जिस पर विस्तृत प्रकाश अगले अंक में डालेंगे। इस समय तो इतना ही समझना पर्याप्त होगा कि उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की तरह यह दो अत्यंत सामर्थ्यवान् प्रचण्ड क्षमताओं से परिपूर्ण दो शक्ति-संस्थान विद्यमान हैं। मस्तिष्क का सदुपयोग जानने और करने वाले व्यक्ति जिस प्रकार भौतिक और आत्मिक प्रगति कर सकते हैं, उसी प्रकार कामशक्ति कुंडलिनी का सदुपयोग करके भी जीवन के हर क्षेत्र में उत्साह और उल्लास विकसित किया जा सकता है। न केवल शरीर और मन के विकास के लिए, न केवल भौतिक सफलताएँ, समर्थताएँ प्राप्त करने के लिए, वरन् आत्मिक और भावनात्मक प्रगति के लिए इस शक्ति की प्रक्रिया का ज्ञान एवं अनुभव होना आवश्यक है।

अध्यात्म शास्त्रों में कुण्डलिनी के संबंध में बहुत कुछ बताया गया है। यथा--

अपाने मूलकन्दाख्यं कामरुपं च तज्जगुः। तदेव वह्रिकुण्डं स्यात् तत्त्वपकुण्डलिनी तथा॥६॥ योग राजोपनिषद 

अपान स्थल मूलाधार में कंद है। उसे कामरूप-कामबीज कहते हैं। उसे ही वह्नि कुण्ड अथवा कुण्डलिनी तत्त्व कहते हैं।

एष बीजी भवान् बीजमहं योनिः सनातनः। एवमुक्तःअथ विश्वात्मा ब्रह्म विष्णुमभाषत॥६६॥  — वायु पुराण

जीव ने ब्रह्म से कहा। आप बीज हैं, मैं योनि हूँ। यह क्रम सनातन है।

पूर्वभागे ह्यधोलिंग शिखिन्यां चैव पश्चिमम। ज्योतिर्लिंगं भ्रुवोर्मध्ये नित्यं ध्यायेत्सदा यतिः॥८०॥

कुंडलिनी स्थान पर अधोलिंग का, शिखा स्थान पर पश्चिम लिंग का और भृकुटियों के मध्य ज्योतिर्लिंग का ध्यान करना चाहिए।

प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाला केन्द्र है— जननेन्द्रिय मूल—कुण्डलिनी चक्र। और पुरुष का मनुष्य शरीर से मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरन्ध्र—सहस्रार चक्र में अवस्थित है। जब तक दोनों का मिलन नहीं होता, बिजली की दो धाराएँ-पृथक-पृथक रहने की तरह मानव जीवन में भी सब कुछ सूना रहता है। पर जब इन दोनों शक्तिकेन्द्रों का परस्पर संबंध-समन्वय-सहचर्य आरंभ हो जाता है तो ग्रीष्म और शीत के मिलने पर आने वाले बसन्त की तरह जीवन उद्यान भी पुष्प-पल्लवों से भर जाता है। इसी प्रयत्न के किए जाने वाले प्रयोग को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। शंकराचार्य के ज्ञान और अनुभव में यही कमी देखकर भारती ने उनकी साधना-अपूर्णता को चुनौती दी थी और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था।

काम केन्द्र में स्फुरणा बड़ी सरस और कोमल है। समस्त कलाएँ और प्रतिभाएँ वहीं पर केन्द्रीभूत हैं। जो लोग उस सामर्थ्य को मैथुन प्रयोजन के तुच्छ क्रीड़ा -कल्लोल में खर्च करते रहते हैं, वे उन दिव्य विभूतियों से वंचित रह जाते हैं जो इस कामशक्ति को सृजनात्मक दिशा में मोड़कर उपलब्ध की जा सकती हैं। आत्मविद्या के ज्ञाता इस कामशक्ति को न तो हेय मानते हैं और न तिरस्कृत करते हैं, वरन् उसके स्वरूप, उपयोग को समझने और सृजनात्मक प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने के लिए सचेष्ट होते हैं।

ब्रह्म को शिव और प्रकृति को शक्ति— कहते हैं। इन दोनों के मिलन का अतीव सुखद परिणाम होता है। ब्रह्मरन्ध्र में अवस्थित और ज्ञानबीज और जननेन्द्रिय मूल में सन्निहित कामबीज का मिलन भी जब संभव हो जाता है, तो बाह्य और आन्तरिक जीवन में आनन्द, उल्लास का ठिकाना नहीं रहता है। ब्रह्मानन्द की तुलना मोटे अर्थ में विषयानन्द से की जाती रही है। यह अन्ततः शक्तियों का मिलन भी अलंकारिक भाषा में ब्रह्ममैथुन कहा जाता है। कुण्डलिनी-साधना की जब प्राप्ति होती है तो इस स्तर का आनन्द भी साधक को सहज ही मिलने लगता है।

सहस्त्रारोपरिबिन्दौ कुण्डल्या मेलनं शिवे। मैथुनं शयनं दिव्यं यतीनां परिकीर्तितम्॥ —योगिनी तंत्र

हे पार्वती, सहस्रकमल में जो कुल और कुण्डलिनी—महासर्प और महासर्पिणी का मिलन है। उसी को यतियों ने परम मैथुन कहा है।

परशक्त्यात्म मिथुन- संयोगानन्दनिर्गराः। मुक्तात्ममिथुनं तत् स्त्यादितरस्त्रीनिवेषकाः॥ —तंत्र सार

आत्मा को परब्रह्म के साथ प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध करके परम रस में निमग्न रहना। यही यतियों का मैथुन है। कामसेवन नहीं।

ईडापिंगलयोः प्राणान् सुषुम्नायां प्रवर्तयेत्। सुषुम्नायांशक्तिसुद्दिष्टा जीवोsयं तु परः शिवः। तयोस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीर्तितम्॥ —तंत्र सार

इड़ा, सुषुम्ना और जीवात्मा संगम इसे मैथुन सुख कहते हैं।

शंकराचार्यकृत सौंदर्यलहरी में कुण्डलिनीशक्ति को रूपवती युवती के रूप में चित्रित किया गया है और उसके ब्रह्ममिलन को काम-कल्लोल, मैथुन, संभोग की भाषा में चित्रित किया गया है। सो यह कुछ अटपटा-सा लगता है, पर प्राचीनकाल की अलंकारिक शैली में पहेली-बुझौअल की तरह इस प्रकार का साहित्यिक-काव्यात्मक-अलंकारिक प्रयोग चलता रहा है। सो इसे अलंकारिक-अभिव्यंजना ही माना जाना चाहिए और इसमें अश्लीलता ढूँढ़ने की अपेक्षा काव्यात्मक रसिकता के पीछे, झाँकते हुए उस प्रतिपादन को ही देखना चाहिए, जो व्यक्ति के कलेवर में छिपे हुए दो महान शक्तिकेन्द्रों के पारस्परिक संपर्क के लिए की जाने वाली साधना को प्रतिपादित करते हैं।

सन्त कबीर की 'उलटा बासियों” में इसी प्रकार का प्रयोग है। उन्होंने जीवात्मा को प्रेमिका और परमात्मा को प्रेमी के रूप में चित्रित किया है। आंतरिक स्थिति या साधनात्मक अनुभूतियों को पहेली-बुझौअल के रूप में प्रस्तुत किया है।उनके दो अटपटे पद्य नीचे देखिए —

(1)

देखि देखि जिय अचरज होई। यह पद बूझै बिरला कोई॥

धरती उलटि आकाश को जाय। चींटी बैठी हाथी खाय॥

बिना पवन के पर्वत उड़े। मगर मच्छ तरुवर पर चढ़े॥

सूखे सरोवर उठें हिलोर। बिन जल चकवा करें किलोल॥

बैठा पंडित पढ़ै पुरान। बिन देखी का करै बखान॥

(2)

वधू ऐसा ज्ञान विचारी। ताते भाई पुरुष से नारी॥

ना मैं व्याही ना मैं क्वारी। नित-नित पूत जनूँ सो हारी॥

काले मूँड को एक न छोडो। अजहूँ रही कुआरी॥

ब्राह्मन के घर रही ब्राह्मनी। जोगी के घर चेली॥

कलमा पढ़ि-पढ़ि भई तुरकिनी। घर-घर फिरुँ अकेली॥

पीहर जाऊँ न रहूँ सासरे। पुरुष हि अंग न लाऊँ॥

कहे कवीर सुनो रे संतो। अंग से अंग न छुवाऊँ॥

कुण्डलिनी महाशक्ति को विभिन्न साधनात्मक ग्रन्थों में सुन्दरी, युवती, कामिनी के रूप में चित्रित किया है। और उसके विविध क्रियाकलापों को यौवन अंगों के साथ तुलना करते हुए श्रृंगार रस की काव्य शैली का अनुकरण किया है-यथा—

युवती सा समाख्याता सा महाकुण्डली परा। —कामधेनु तंत्र 

इस कुण्डलिनी महाशक्ति को ही परम सुंदरी युवती कहते हैं।

कामीकलां कामरुपां चिकित्वा नरो जायते- कामरुपश्च कामः॥११॥ —त्रिपुरोपनिषद्

वह महाशक्ति कामरूप है। उसे कामकला भी कहते हैं। जो उसकी उपासना करता है, वह कामरूप हो जाता है। और उसकी कामनाएँ फलवती होती हैं।

यानाड़ी सूक्ष्मरुपा परम पदगता सेवनीया सुषुम्णा। सा कान्तालिंगनासी न मनुज रमणी सुन्दरी—वारयोवित्

कुर्याचन्द्रार्कयोगे युगपवन गतं मैथुनं नैव योनो ! योगीन्द्रो विश्ववन्द्यः सुखमय भवने तां —परिस्यज्य नित्यम्। —भैरव या मन तन्त्र

रूपवती सुषुम्ना नाड़ी ही आलिंगन करने योग्य कांता है। इस महाशक्ति का आत्मा के साथ संयोग का काम ही मैथुन है। स्त्री संभोग नहीं।,योगीजन इस परम मैथुन का ही रसास्वादन करते हैं।

महाशक्ति की साधना से उत्पन्न अनुभूतियाँ कितनी कोमल, कितनी सरस, कितनी मधुर, कितनी रमणीय, कितनी कमनीय और कितनी मोद-प्रमोद भरी होती हैं, इसकी झाँकी उपनिषद्कार तत्त्वज्ञानी ने इस प्रकार कराई है।

सृण्येव सितया विश्वचर्षणिः पाशेनैव- प्रतिबघ्नात्यभीकाम्। इषुभिः पंचभिर्धनुषा च विधत्यादिशक्ति ररुणा विश्वजन्या॥१३॥ —त्रिपुरोपनिषद

उसका अंकुश मधु की तरह अत्यंत मधुर है। क्रूर भी उस पाश में बँध जाते हैं। पाँच बाणों वाले काम-धनुष में वह अरुणा सबको अपनी मुट्ठी में रखती है।

सौंदर्यलहरी के कतिपय श्लोकों में कुण्डलिनी के कामबीज की महत्ता और उसकी उपलब्धियों की ओर संकेत किया है। नीचे उनमें से कई श्लोक इसलिए दिए जा रहे हैं कि आत्मसाधना के पथ पर चलने वाले पथिक यह समझ सकें कि अपने अन्तरंग में भरी हुई क्षमता का श्रेष्ठतम लाभ कैसे उठाया जा सकता है। कामबीज का भोंड़ा लाभ तो पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी उठाते हैं। पर यदि उसका विशिष्ठ उपयोग संभव हो सके, तो उससे असंख्य गुनी आनन्द, उल्लास भरी उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। कुण्डलिनी जागरण से जहाँ ब्रह्मानंद की हिलोरें अन्तःकरण को विभोर करती हैं वहाँ उनमें यह क्षमता भी है कि शारीरिक आनंद को न केवल उत्साहवर्धक बना सकें, वरन् उपयोगी भी बना सकें। ऐसे हास-विलास शरीरों की जितनी क्षति करते हैं, उससे अनेक गुनी उपलब्धियाँ भी लाकर रख देते हैं। इस प्रकार उस शक्ति का भौतिक उपयोग भी उतना ही आनंदमय, उत्साहवर्धक और लाभदायक बन जाता है, जिससे गृहस्थ और ब्रह्मचर्य का समन्वित लाभ प्राप्त किया जा सके। कुण्डलिनी विद्या को इसीलिये भुक्ति और मुक्ति उभयसंपदाएँ प्रदान करने वाली कहा गया है —

पूज्याविभावती सौम्या भोगिनीं भोगशायिनी॥९६॥

त्रैलोक्यसुन्दरीन्म्यासुन्दरीकामचारिणी॥९७॥ —कूर्म पुराण

वह दीप्तिमान देवी सौम्या, भोगिनी, भोगशायिनी, त्रैलोक्य सुंदरी, रम्य, सौम्यरूपा और कामचारिणी है।

यद्वा मण्डलाद्वा स्तन विम्वमेकं मुखं चाथ स्त्रीणि गुहासदनानि। कामी कलां काम रूपां चिकित्वा नरो जायते काम रुपश्च कामः॥ — त्रिपुरोपनिषद् ॥११॥

जो स्तन मुख की तरह गोल तथा एक मुख वाला है। उसके नीचे तीन गुहा सदृश घर बने हुए हैं। ऐसी कामकला का कोई कामी मनुष्य उपभोग करता है तो उसकी कामनापूर्ण होती है और वह स्वयं कामरूप हो जाता है। कुण्डलिनी जागरण का वास्तविक लाभ तो आन्तरिक शक्तियों का अभिवर्धन ही है। ऐसा अभिवर्धन जिसमें रूखापन, नीरसता, सूनापन, उदासीनता नहीं, वरन् पग-पग पर हर्षोल्लास का हास-परिहास का साधन विद्यमान है। सौंदर्यलहरी में इसी तथ्य का प्रतिपादन करने वाली कुछ भगवान् शंकराचार्य की अनुभूतियाँ है, जो समझने योग्य हैं —उनमें से कुछ नीचे देखिये।

अराले: स्वाभाव्यादलिकलभसश्रीभिरलकैः। परीतं ते वक्त्रं परिहसति पंकेरुहरुचिम्॥

दरस्मेरे यस्मिन्दशनरुचिकिंजल्करुचिरे। सुगन्धौ माद्यन्ति स्मरदहनचक्षुर्मधुलिहः॥

भावार्थ-बल खाती हुई कटी, भ्रमरी जैसी चंचलता; अलकावलि से आच्छादित मुख, कमल पुष्पों जैसा परिहास; स्फटिक जैसे दाँतों से युक्त हे देवि, तेरी मुस्कराहट के समय निकलने वाली सुगंध से कामदहन करने वाले शिवजी भी भ्रमर की तरह उन्मत्त हो जाते हैं।

संकेत—मन को सिकोड़कर बैठे हुए, निष्क्रिय, निराश और नीरस लोग भी कुण्डलिनी की स्फुरणा प्राप्त करके इठलाते हुए, भ्रमरी जैसे सक्रिय अलकावलि जैसे स्निग्ध, शोभित, बढ़ चलने वाले, हँसमुख स्वभाव और अपनी वाणी से सर्वत्र सुगंध फैलाने वाले बन जाते हैं और निष्क्रिय लोगों को भी आशा और स्फूर्ति की उमंग से उन्मत्त कर देते हैं।

गते कर्णाभयर्णं गरुत इव पक्ष्माणि दधती। पुरां भेतुश्चित्तप्रशमरसविद्रावणफले। इमे नेत्रे गोत्राधरपतिकुलोत्तंसकलिके। तवाकर्णाकृष्टस्मरशरविलासं कलयतः।

भावार्थ-तेरे विशाल नेत्र कानों तक जा पहुँचे हैं और दो पलकों को पंखों की तरह धारण किये हुए हैं। यह कान तक तने हुए कामदेव के पुष्पबाण शिवजी के चित्त को भी अशांत कर देते हैं।

संकेत—कुण्डलिनी-साधक का दृष्टिकोण विशाल, परिष्कृत और दूरदर्शी हो जाता है। विशाल नेत्र अर्थात् विशाल हृदय एवं विशाल दृष्टिकोण का विस्तार। उन पर मर्यादा और लोकहित के दो बंधन अर्थात् पलक पंख। इस आंतरिक सुसंपन्नता से समर्थ बना हुआ साधक अपने प्रतिपादन पर भगवान का भी सिंहासन हिला सकता है। और ईश्वर की भी निष्क्रियता को उसी तरह क्रियाशील बना देता है जैसा कि कामदेव ने शिवजी के चित्त को भी अशांत कर दिया था।

हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं, पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत्। स्मरो अपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन वपुषा, मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम्॥

भावार्थ-पूर्वकाल में विष्णु ने तुम्हारी आराधना करके मोहिनी रूप पाया और शिवजी के मन में भी काम विकार उत्पन्न कर दिया। कामदेव भी तुम्हारी ही आराधना से अपनी पत्नी का नयनाभिराम बना हुआ है और बड़े-बड़े मुनियों के मन में भी क्षोभ उत्पन्न करता रहता है।

संकेत—मोहिनी वह जो दूसरों को मोहित कर ले, पर स्वयं मोहित न हो। योग साधना से मनुष्य में वे सद्गुण विकसित होते हैं, जिनके कारण दूसरे सभी लोग उससे प्रभावित एवं आकर्षित होते हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण हो जाने पर मनुष्य स्वभावतः सम्मान और श्रद्धा का केन्द्र बन जाता है, यही व्यक्ति का मोहिनी रूप है। इस सफलता को पाने के साथ-साथ आत्मवेत्ता स्वयं किसी पर मोहित नहीं होता। न व्यक्ति न पदार्थ दोनों में उसे आकर्षण नहीं होता। वह तो अपनी आत्मा पर ही मोहित रहता है, इसलिए उसका प्यार  कर्त्तव्य एवं आदर्श की परिधि में सीमाबद्ध हो जाता है। ऐसी मोहिनीवृति कुण्डलिनी साधना के प्रभाव से उपलब्ध होती है।

कुण्डलिनी जागरण के साथ−साथ कामवृति का भी परिष्कार होता है। बहिर्मुखी लोगों के मन में उससे काम-क्षोभ भी उत्पन्न हो सकता है और बढ़ सकता है। पर विज्ञसाधक उसे रचनात्मक प्रयोजन में मोड़कर जीवन को अधिक सरस एवं उल्लसित बना लेते हैं।

धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पंचविशिखा, वसन्तः सामन्तो मलयमरुदायोधनरथः। तथाप्येकः सर्वेमहिगिरी सुते कामपिं कृपामपांगात्ते लब्ध्वा जगदिदमनंगो विजयते॥

भावार्थ—कामदेव पुष्पों का धनुष, भ्रमरी की रस्सी, पाँच विषयों के बाण, वसंत रूपी सेनापति, मलयगंधरूप रथ में बैठकर—शरीर न रहते हुए भी सारे जगत को अकेला जीत लेता है। उस कामदेव को यह सामर्थ्य तुम्हारी कृपा से ही प्राप्त होती है।

संकेत—कुण्डलिनी का केंद्र जननेंद्रिय मूल में रहने से कामप्रवृत्ति का प्रदीप्त होना स्वाभाविक है। यह प्रवृत्ति इच्छा और क्रिया दोनों का सृजन करती है। मस्तक में उपस्थित ज्ञानकेन्द्र के निर्णयों को आकांक्षा एवं क्रिया के रूप में बदल देना इसी शक्ति का कार्य है। कामप्रवृत्ति मनुष्य का मन, शरीर और स्वभाव सभी प्रफुल्लित, आशान्वित एवं स्फूर्तिवान रहते हैं। इसका सदुपयोग होने से व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से कामदेव सरीखा आकर्षक हो जाता है। पुष्पों की तरह हँसता, मुस्कुराता मुख, भ्रमर जैसी दिव्य रसिकता, पाँचों ज्ञानेंद्रिय का निग्रह, मलयगंध जैसी प्रवृत्ति से सम्पन्न होने वाला व्यक्ति अकेला ही संसार को  प्रभावित कर सकता है। कामप्रवृत्ति के सदुपयोग का  यही स्वाभाविक परिणाम है। कुण्डलिनीशक्ति की कृपा से यह उपलब्धियाँ सहज ही संभव हो जाती हैं।

नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जड़ं, तवापांगालोके पतितमनुधावन्ति शतशः। ग्लद्वेणीबन्धाः कुचकलशविस्त्रस्तसिचया, हठात् त्रुट्यत्कांच्यो विगलितदुकूला युवतयः॥

भावार्थ—वृद्ध, कुरूप, क्रीड़ा से अनभिज्ञ जड़ मनुष्य भी तुम्हारी दृष्टि पड़ने पर इतना कमनीय और रमणीय हो जाता है कि अनेक युवतियाँ उसके पीछे असंयमी होकर अस्त-व्यस्त की तरह भागने लगती हैं।

संकेत—मानसिक दृष्टि से निराश को वृद्ध, दुर्गुणी को कुरूप और नीरस, कर्कश स्वभाव वाले को मूढ़ कहते हैं। ऐसा व्यक्ति भी कुण्डलिनी साधना से सहृदय, सज्जन, सद्गुणी और सरस बनकर एक प्रकार से अपना आंतरिक कायाकल्प ही कर डालता है। सिद्धियाँ और सफलताएँ— ऋद्धि और सिद्धियाँ उसके पीछे ऐसे ही भागती हैं, जैसे कुलटा नारियाँ किसी रूप, सौंदर्य सम्पन्न आकर्षक स्वभाव वाले कामुक युवक के पीछे बिना बुलाए ही फिरने लगती हैं।

मुखं विन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो, हकारार्द्धं ध्यायेद्धरमहिषि ते मन्मथकलाम्। सद्यः संक्षोभं नयति वनिता इत्यतिलघु, त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रविन्दुस्तनयुगाम्॥

भावार्थ—तेरी काम कला के प्रभाव से मनुष्य के लिए स्त्रियों के मन में तु्रंत क्षोभ उत्पन्न कर देना बाँये हाथ का खेल होता है। सच तो यह है कि तेरी साधना करने वाला इन सूर्य-चन्द्ररूपी दो स्तनों वाली प्रकृति-तरुणी को भी अपने इशारे पर नचा सकता है।

संकेत—महाशक्ति की साधना से उत्पन्न आकर्षण प्राण- प्रवाह (काम) के प्रभाव से अनेक सत्प्रवृत्तियाँ और सफलताएँ आकर्षित होने लगती हैं। जैसे खिले हुए फूल पर तितलियाँ और मधुमक्खियाँ मंडराती हैं वैसे ही उस साधक को विभूतियों का दुलार और सहयोग अनायास ही सब ओर से प्राप्त होता है। यह प्रकृति भी अनुकूल हो जाती है और परिस्थितियाँ उसके इशारे पर नाचती, बदलती, सँभलती रहती हैं।

एक गाथा यह प्रचलित है कि एक बार शंकराचार्य के पिताजी कहीं प्रवास में गए और अपनी अनुपस्थिति में अपनी पत्नी को भगवती के विग्रह की पूजा करते रहने का निर्देश कर गए। इसी बीच एक दिन शंकराचार्य की माताजी पूजा न कर सकीं, तो उन्होंने बालक को दूध लेकर भगवती का भोग लगाने भेजा। भोग लगाया पर दूध ज्यों का त्यों रखा रहा। तब बालक ने रोकर पीने की प्रार्थना की। भगवती ने उसे पी लिया। अब बालक को और व्यथा हुई। भोग से बचा दूध उन्हें मिलता था, वह तो भगवती पी गई, उसे खाली हाथ रहना पड़ा। दूध न मिलने के कारण रोते हुए शंकराचार्य को भगवती ने छाती से लगा लिया और उसे स्तन पान कराया। इसे पीते ही वे प्रचंड विद्वान और प्रखर कवि हो गए और अद्भुत रचनाएँ करने लगे। इसी घटना का संकेत सौंदर्य लहरी के श्लोक 75 में मिलता है। इस गाथा की चर्चा कैवल्य शर्मा ने अपनी टीका में की है।

श्री शंकराचार्य की भावविभोरता देखते ही बनती है। महाशक्ति के अनुग्रह से वे जिस प्रकार कृतकृत्य हुए और उन्होंने उसकी महान संभावनाओं तथा अनुकंपाओं का स्वरूप समझा, उसे देखते हुए यह भावविभोरता उचित भी है।

प्रदीपज्वालाभिर्दिवसकरनीराजनविधिः। सुधा सूतेश्चन्द्रोपलजललवैरर्ध्यरचना॥

स्वकीयैरम्भोभिः सलिलनिधिसौहित्यकरणं। त्वदीयाभिर्वाग्भिस्तव जननि वाचां स्तुतिरियं॥

भावार्थ—तुम्हारी ही दी हुई वाक् शक्ति से तुम्हारी ही स्तुति करना, सूर्य को दीपक दिखाना, ओस से चन्द्रमा को अर्घ चढ़ाने अथवा समुद्र के ही जल-कणों से महासागर करने जैसा ही बाल-प्रयास है।

संकेत—मनुष्य के पास जो कुछ है सो सारा वैभव इस कुण्डलिनी नाम से संबोधित पराशक्ति का ही है। तुम्हारी दी हुई वाणी, काया, चेतना तथा सामग्री से ही तुम्हारा स्तवन वंदन कैसे हो ? इसका विकल्प यही है कि साधक अपना आत्मसमर्पण इस सत्ता के चरणों में करके उसी के दिव्य संकेतों के अनुरूप दिव्य जीवन जीने के लिए कदम बढ़ाए और सच्ची साधना करने वाले सच्चे साधक को लोक-परलोक में आनन्द-उल्लास भरा रखने वाली परम गति को प्राप्त करे।

तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः। पयः पारावारः परिवहति सारस्वतमिव॥

दयावत्या दत्तं द्रविडशिशुरास्वाद्य तव यत्कवीनां प्रौढानामजनि कमनीयः कवयिता॥

भावार्थ—तेरे स्तनों से बहने वाले ज्ञानामृतरुपी पयपान करके यह द्रविण शिशु (शंकराचार्य) प्रौढ़ कवियों जैसी कमनीय कविताएँ रच सकने में समर्थ हो गया।

संकेत—श्री आद्य शंकराचार्य अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि मैं तुच्छ-सा द्रविड़वंश का बालक कुण्डलिनी माता का ज्ञानामृतरूपी पयपान करने के कारण इतना समर्थ हो गया कि बचपन में ही प्रौढ़कवियों जैसा साहित्यसृजन करने लगा। ऐसा ही मेधा-प्रगति का लाभ दूसरे श्रद्धावान साधक भी उठा सकते हैं।

ददाने दीनेभ्यः श्रियमनिशमात्मानुसदृशी— ममन्दं सौन्दर्य्यस्तवकमकरन्दं विकिरति। तवास्मिन् मन्दारस्तवकसुभगे यातु चरणे, निमज्जनमज्जीवः करणचरणैःषट्चरणताम्॥

भावार्थ—मैं अपनी छहों इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ छठा मन) इन छहों पैरों से—षट् पद भ्रमर की तरह तुम्हारे पतितों को उबारने वाले चरणकमलों का मकरंदपान करता रहूँ।

संकेत—श्री आद्य शंकराचार्य कुण्डलिनी शक्ति की महान उपलब्धियों का रसास्वादन करते हुए आनन्दविभोर होकर एकमात्र यही कामना करते हैं कि उस महासत्ता पद पद्मों का षट् पद—'भौंरे' की तरह मकरन्दपान करते रहें। षट्चक्रों की आराधना में निरन्तर संलग्नता का भाव भी 'षट्पद' शब्द में है। इस मार्ग पर चलने वाले हर साधक को उपलब्ध आनन्द की अनुभूति करते हुए ऐसी ही आकांक्षा उमड़ती है।

ददाने दीनेभ्यः श्रियमनिशमात्मानुसदृशी— ममन्दं सौन्दर्य्यस्तवकमकरन्दं विकिरति। तवास्मिन् मन्दारस्तवकसुभगे यातु चरणे, निमज्जनमज्जीवः करणचरणैःषट्चरणताम्॥

भावार्थ—मैं अपनी छहों इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ छठा मन) इन छहों पैरों से—षट् पद भ्रमर की तरह तुम्हारे पतितों को उबारने वाले चरणकमलों का मकरंदपान करता रहूँ।

संकेत—श्री आद्य शंकराचार्य कुण्डलिनी शक्ति की महान उपलब्धियों का रसास्वादन करते हुए आनन्दविभोर होकर एकमात्र यही कामना करते हैं कि उस महासत्ता पद पद्मों का षट् पद—'भौंरे' की तरह मकरन्दपान करते रहें। षट्चक्रों की आराधना में निरन्तर संलग्नता का भाव भी 'षट्पद' शब्द में है। इस मार्ग पर चलने वाले हर साधक को उपलब्ध आनन्द की अनुभूति करते हुए ऐसी ही आकांक्षा उमड़ती है।

जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचनं, गतिः प्रादक्षिण्यं भ्रमणमदनाद्याहुतविधिः। प्रणामः सम्वेशः सुखमखिलमात्मार्पणदशा, सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम्॥

भावार्थ—हे माँ ! मेरे सभी वाक्य जप हों, हाथों की सभी क्रियाएँ मुद्रा हों, हर कदम प्रदक्षिणा हों, आहार के ग्रास आहुतियाँ हों, मेरे प्रणाम तुम में तादात्म्य हों, मेरे सभी सुख तुम्हारी अखिल आत्मा में समर्पित हों, मैं जो कुछ भी करूँ सो सभी तुम्हारी पूजा में गिने जाएँ।

संकेत—कुण्डलिनी शक्ति से उपलब्ध आत्मिक शक्ति एवं उत्कृष्ट विचारणा के आधार पर साधक की विचारणा तथा क्रिया देवोपम हो जाती है और उसके द्वारा सोचा गया प्रत्येक विचार, कार्य भगवान की आराधना जैसा ही मंगलमय होता है। मनुष्य शरीर में देवत्व का उदय करने में कुण्डलिनी शक्ति का अनुपम योगदान मिलता है। श्री शंकराचार्य ने बहुत कुछ पा लेने के बाद अंतिम रूप में यह माँगा है कि वे सर्वतोभावेन महाशक्ति में ही लीन हो जाएँ।

व्यास जी बोलते गए और गणेश जी लिखते गए  इस प्रकार जब महाभारत पूरा हो गया तो व्यासजी ने कहा—"मैंने चौबीस लाख शब्द बोले, पर आप उस समय में सर्वथा मौन रहे। एक भी शब्द न कहा।" गणेश जी ने कहा—"बादरायण, सभी प्राणियों में सीमित प्राण शक्ति है। जो उसे संयमपूर्वक व्यय करते हैं, वे ही उसका समुचित लाभ उठा पाते हैं। संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है और संयम की प्रथम सीढ़ी है-वाचोगुप्ति अर्थात् वाणी का संयम।"



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