प्रेम का आरंभ होता है- अंत नहीं। क्योंकि उससे निवृत्ति मिलती है न उसकी पूर्ति होती है। इसी से प्रेम को नित्य कहा जाता है और अनंत। वासना की तृप्ति, रोगों की प्रचुरता से हो सकती है। भले ही वह कुछ समय उपराम के रूप में क्यों न हो। आग पर घी की मात्रा अत्यधिक डाल दी जाए तो वह कुछ समय के लिए तो अंत होती दीखती है इसी प्रकार वासना, लिप्सा, तृष्णा, और मोह का समाधान अभीष्ट वस्तु या व्यक्ति प्राप्त हो जाने पर संभव है, भले ही वह कुछ समय के लिए ही क्यों न हो। कुछ समय की बात इसलिए की जा रही है कि संसार की समस्त वस्तुएँ जिनमें काया भी गिनी जा सकती है, विकारी है। उनमें रुचिकर लगने वाले तत्त्वों से अरुचिकर लगने वाले तत्त्वों की मात्रा कम नहीं, अधिक ही होती है।
सत् और तम से मिलकर यह संसार बना है। रज तो इन दोनों का सम्मिश्रण है, जो हमें दीखता है। वस्तुतः रज की कोई पृथक सत्ता नहीं है। सुर और असुर के—शुभ और अशुभ के—भगवान् और शैतान के संग का सम्मिश्रित स्वरूप मनुष्य है, इसलिए उसमें जितनी श्रेष्ठता दिखाई पड़ती है उतनी ही निकृष्टता भी विद्यमान है। इसी से मनुष्य को अपूर्ण कहा जाता है। इस संसार में कोई जीवधारी पूर्ण नहीं। पूर्णता प्राप्त करने पर काया धारण करने की, जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। पूर्ण पुरुष बिना काया के भी—सूक्ष्म शरीर के द्वारा सूक्ष्मजगत में हलचलें उत्पन्न करके वह काम कर सकते हैं जो देहधारियों द्वारा संभव नहीं होते। लोक-शिक्षण के लिए-जनता का मार्गदर्शन करने के लिए कोई देहधारी देवदूत भेजे जाएँ और वे प्रभु का कार्य पूरा करने के लिए लीलाएँ प्रस्तुत करें, यह बात दूसरी है। ऐसे अपवादों को छोड़कर आमतौर से मनुष्यों में अपूर्णता का, विकारों का—त्रुटियों का—बहुत बड़ा अंश पाया जाता है।
यही बात वस्तुओं के बारे में भी है, वे न मिलने तक बड़ी आकर्षक लगती हैं क्योंकि तब तक उनका एक पक्ष—आकर्षण के रूप में ही दीखता रहता है।जब समीप आते हैं और वे उन पदार्थों की प्राप्ति के साथ ही जो साज-संभाल, सुरक्षा, उपयोग, उपभोग आदि की जिम्मेदारियाँ कन्धों पर आती हैं, तथा उन वस्तुओं में जो परिवर्तन उत्पन्न होते हैं, दोष दृष्टि में आते हैं, उनके कारण सारा आनन्द ही चला जाता है। गरीबों को अमीरी प्राप्त करने की बड़ी अभिलाषा रहती है, पर अमीरों को अंतर्द्वंद्वों से बेतरह उद्विग्न देखा गया है उनमें से कितने ही आत्महत्या करते तथा विरक्त होते देखे गए हैं। सांसारिक वस्तुओं में यही विशेषता है कि जब तक वे दूर रहती हैं तब तक प्रिय लगती हैं और वे जैसे ही जितनी ही समीप आती हैं उतना ही आकर्षण खो बैठती हैं। विवाह होने से पूर्व प्रेमिका या मंगेतर जितनी सुहावनी—आकर्षक लगती हैं, विवाह होने के बाद पत्नी बन जाने पर वह आकर्षण चला जाता है। दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा कितने सुन्दर लगते हैं पर यदि उनके समीप पहुँचा जाए तो मुसीबत ही खड़ी हो जाएगी। सूर्य की प्रचण्ड ज्वाला और चंद्रमा की वायुरहित अनियंत्रित शीत ताप वाली स्थिति में किसी को एक क्षण भी ठहरना न भाएगा।
लिप्सा, तृष्णा और वासना जो आमतौर से प्रेम का आवरण ओढ़कर हमारे सामने आती हैं, यही झंझट उत्पन्न करती हैं। जिस पदार्थ की आज बहुत उत्कण्ठा थी वह मिल जाने के बाद अरुचिकर बन जाता है। यही कारण है कि न तो भोग से तृप्ति होती है और न भोग्य पदार्थों की एकरूपता से। एक ही मिठाई कोई बहुत दिनों तक नहीं खाना चाहेगा। भोजन में रोज-रोज नए पदार्थ बदलने की आकांक्षा के पीछे, यही रहस्य छिपा हुआ है कि जिस पदार्थ को जितना आकर्षक समझा गया था, मिलने के बाद उसका आकर्षण चला गया। नित नए भोजन-व्यंजन पाने की इच्छा के पीछे यही मर्म छिपा पड़ा है कि न मिलने तक वस्तु के गुण ही गुण दीखते हैं, पर जब उसको प्राप्तकर लिया जाता है तो दोष भी सामने आ जाते हैं। अथवा यों कहिए कि अपनी कल्पना का नशा वस्तुस्थिति समझने के बाद नीचे उतर आता है। यह बात अन्य इन्द्रियों के संबंध में भी है। आज जो खेल देखा था उसे कल देखने की इच्छा नहीं होती। आज जो गीत सुना कल वह फीका लगता है। व्यभिचारी की काम-वासना भी नई-नई आकृति के भोग्य व्यक्ति ढूंढ़ती है। पुरुषों को नई स्त्रियाँ और स्त्रियों को नए पुरुषों में रति रहती है। इसी से कहा जाता है कि वस्तुओं और व्यक्तियों का आकर्षण,भले ही प्रेम नाम से पुकारा जाए, वस्तुतः वह लोभ और मोह का भावुकता भरा सम्मिश्रण ही है। इसे कोई प्रेम समझे तो समझता रहे, पर वास्तविकता से वह दूर ही है।
प्रेम का स्तर ऊँचा है। वह न वस्तु के स्थूल रूप को देखता है और न व्यक्ति के शरीर आकर्षण को। वरन् प्रेमी की दृष्टि उन आवरणों के अन्तराल में छिपी हुई दिव्यसत्ता को देखने की—उसकी रसानुभूति उपलब्ध करने की रहती है। साकार मूर्ति पूजा के माध्यम से हम पदार्थों के भीतर छिपी हुई दिव्यसत्ता को अनुभव करने और उसके साथ भक्तिभावना का समन्वय करने का अभ्यास करते हैं। देव प्रतिमाएँ धातु या पत्थर की बनी होती हैं। धातु तथा पत्थर का मूल्य नगण्य है। उनका सामान्य उपयोग उपेक्षापूर्वक होता रहता है, चाहे तो इस व्यवहार को तिरस्कार भी कह सकते हैं। पर इसी पत्थर या धातु की बनी देव प्रतिमा के सम्मुख हम भावविभोर हो जाते हैं। यह भावना पत्थर या धातु के प्रति नहीं, वरन् उसके अंतराल में छिपी हुई देवसत्ता के प्रति है। जहाँ ऐसी दृष्टि होगी वहाँ वह पत्थर कभी भी अनाकर्षक प्रतीत न होगा, वरन् जितना पुराना होता जाएगा उतना ही सम्मान बढ़ता जाएगा। यही बात प्राचीन ध्वंसावशेषों, ऐतिहासिक स्मारकों, तीर्थों के बारे में लागू होती हैं। स्थूल रूप से वे सब पुराने-धुराने जीर्ण-शीर्ण होने के कारण— नई इमारतों की तुलना में मूल्य, कला, उपयोगिता आदि की दृष्टि से नगण्य ही ठहराये जा सकते हैं, पर चूँकि उनके पीछे ऐतिहासिक और भावनात्मक तथ्य जुड़े हुए हैं। इसलिए वे स्वभावतः बहुत आकर्षक लगते हैं और उन्हें देखने के लिए लोग बहुत धन और समय खर्च करके बहुत कष्ट उठाते हुए भी पहुँचते रहते हैं।
यदि स्थूलदृष्टि से इन दर्शनीय स्थानों का मूल्यांकन किया जाए तो निःसन्देह उनमें से सभी अनाकर्षक लगेंगे। जो आकर्षक हैं उनके चित्र आदि देखकर काम चलाया जा सकता है। पर देखने की जो तीव्र अभिलाषा होती है, उसके पीछे उन स्थानों या स्मारकों के पीछे जुड़ा सूक्ष्मदर्शन ही है, जो बरबस ही व्यक्ति को अपनी ओर खींचता रहता है। मेले-ठेले देखने जाते हैं तो एक दुकान पर बहुत देर खड़े रहने की इच्छा नहीं होती, पर तीर्थों या देव मंदिरों के बारे में यह बात लागू नहीं होती। बार-बार उन्हें देखते हैं, पर आकांक्षा बनी ही रहती है। कितने ही व्यक्ति अपना प्रिय घर-परिवार छोड़कर भी इन पुण्यतीर्थों में निवास करने लगते हैं। सुविधा की दृष्टि से यद्यपि घर-परिवार ही अच्छा था, पर भावना का आकर्षण उन असुविधाजनक स्थानों में निवास करने पर शान्ति प्रदान करता है। यह तथ्य बताते हैं कि वस्तु का स्थूलरूप देर तक आनन्द नहीं दे सकता। उसकी अंतःसत्ता की सूक्ष्मता और दिव्यता को देखा-समझा जा सके तो ही वह चिर उल्लास दे सकने में समर्थ होगा। मूर्तिकारों के यहाँ बिकने वाली एक से एक सुन्दर प्रतिमा में वह श्रद्धा या आकर्षण नहीं होता जो किसी प्राचीनकाल की अनगढ़ देव प्रतिमा में होता है। यह सूक्ष्मदर्शन का ही चमत्कार है।
व्यक्तियों के बारे में भी यही बात लागू होती है। उनके साथ यदि बाह्य आकर्षणों से प्रभावित होकर प्रेम किया गया है तो उसमें स्थिरता न रह सकेगी। रंग, रूप पर हाव-भाव पर मोहित होकर कई व्यक्ति परस्पर प्रेमी बन जाते हैं। धन, कौशल, कला, सफलता, पद, सत्ता, विनोद आदि के आकर्षण भी कई बार मित्रता के लिए आकर्षित करते हैं। आमतौर पर इन्हीं आधारों पर मित्रता जुड़ती रहती है। युवा स्त्री-पुरुषों के बीच जो जल्दी और गहरी मित्रता जुड़ जाती है, उसके पीछे आमतौर से वासना की तृप्ति तथा दूसरे भौतिक लाभों की प्राप्ति ही प्रधान कारण देखी जाती है। यों इस आकर्षण को भी प्रेम का ही नाम दिया जाता है और गीत वैसे ही गाए जाते हैं। पर वस्तुतः बात वैसी ही नहीं है।
शाश्वत प्रेम का स्तर उससे बहुत ऊँचा हैं। वह यदि वस्तु से किया गया है तो उसकी उपयोगिता के प्रति श्रद्धा रखकर ही किया जाता है। मंदिरों में प्रसाद प्रायः एक ही तरह का मिलता है, पर उसे स्वाद की दृष्टि से न देखकर श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है, इसलिए उसमें स्वाद-परिवर्तन की इच्छा या अरुचि नहीं होती । संसार में जो वस्तुएँ हैं। वे मेरे उपभोग के लिए नहीं, वरन् इस विश्व की शोभा व्यवस्था बनाए रहने के लिए परमात्मा की पुनीत कृति के रूप में है। यह मान्यता यदि मन में हो तो कोई पदार्थ अरुचिकर नहीं लगेगा, वरन् उसकी लोक मंगल के लिए आवश्यकता को समझते हुए श्रेष्ठतम उपयोग करने की इच्छा होगी। तब दुरुपयोग किसी वस्तु का न हो सकेगा, न अपव्यय किया जा सकेगा, न उपेक्षापूर्वक रत्तीभर बर्बादी संभव होगी। हर वस्तु को यहाँ तक कि कूड़े और मल-मूत्र को भी उसके उचित स्थान पर इस प्रकार रखने की बुद्धि जगेगी, जिससे उसे तिरस्कृत या हेय न समझा जाए।यह प्रेमदृष्टि यदि पदार्थों के प्रति उत्पन्न हो जाये तो निश्चय ही उन्हें अधिक स्वच्छ, व्यवस्थित एवं सदुपयोग की स्थिति में ही रखा जायेगा। तब किसी पदार्थ से न तो अरुचि होगी, न घृणा, न निराशा।
व्यक्तिप्रेम के सम्बन्ध में भी यही बात है। मनुष्य के भीतर रहने वाली परम पवित्र आत्मा में जब स्नेह भावना जुड़ती है तो उसकी श्रेष्ठता के प्रति श्रद्धा रखने और उसे अभिसिंचित करने की भावना रहती है। दोष हर व्यक्ति में संभव है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जो त्रुटियाँ हैं उन्हें सुधारने पर आशा भरा विश्वास रखा जाता है और जब तक अनुकूलता उत्पन्न न हो तब तक सहने और निबाहने का भाव रखा जाता है। इस सन्तुलित दृष्टि के साथ जो प्रेम किया जाता है वह न तो त्रुटियाँ सामने आने पर निराश होता है और न रंग-रूप अथवा लाभ का आकर्षण घटने पर खिन्न होता है। आस्था के आधार पर जब मिट्टी के ढेले को गणेश बनाकर रखा जा सकता है और उसकी उपासना का आनंद पाया जा सकता है तो मिट्टी की काया में समाए हुए अमृत आत्मा के समावेशयुक्त सजीव व्यक्ति के प्रति क्यों आत्मीयता नहीं बनाए रखी जा सकती ?
प्रेम वस्तुतः एक आन्तरिक दिव्य अनुभूति है जो पदार्थ या व्यक्ति के माध्यम से विकसित भर होता है। अन्ततः वह आदर्शों पर जाकर जम जाता है और समस्त विश्व में फैल जाता है। प्रेम एकांगी होता है। इसलिए उसका आदि होता है, अंत नहीं। कलम टूट जाने से भी मस्तिष्क में भरी विद्या का अन्त नहीं होता, इसी प्रकार किसी पदार्थ या व्यक्ति के अनुपयुक्त या हानिप्रद सिद्ध होने पर भी सहज आत्मीयता में कमी नहीं आती। अपनापन जिस बालक में जुड़ा होता है, वह कुरूप या बीमार होने पर भी स्नेहभाजन, कृपापात्र एवं सहयोग का अधिकारी ही बना रहता है। यह आत्मीयता जब अपनी प्रौढ़ स्थिति में पहुँचती है तो उसकी प्रेम-साधना व्यष्टि से बढ़कर समष्टि में संव्याप्त हो जाती है, और उस पदार्थ या व्यक्ति के न रहने पर भी अवरुद्ध नहीं होती। अपने शरीर में भरे हुए अशुभ और अवांछनीय तत्त्वों को जब हम सहन कर लेते हैं तो दूसरों के दोष देखकर ही क्यों अपनी प्रेम-साधना समाप्त कर ली जाए?
प्रेम की कभी तृप्ति नहीं होती, क्योंकि उसका क्षेत्र व्यापक है। अधिक सेवा, अधिक त्याग, अधिक अनुदान देने की प्रेमभरी प्रवृत्ति तब तक विकसित होती ही रहती है जब तक कि उसका अपना कहने लायक कुछ भी शेष रहता है। प्रेमी देना ही जानता है सो देते-देते जब अपनी अहंता तक प्रभु चरणों में समर्पित नहीं कर देता, तब तक अतृप्ति ही बनी रहती है। पूर्ण समर्पण में जब अहंता का लय हो जाता है, तभी तृप्ति मिलती है। जब तक प्रेमी का अस्तित्व मौजूद है—पूर्ण समर्पण नहीं हुआ, तब तक अतृप्ति ही रहेगी। सो तत्त्वदर्शियों ने ठीक ही कहा है-प्रेम का आरंभ होता है,अंत नहीं।क्योंकि न उससे निवृत्ति मिलती है और न उसकी पूर्ति होती है।