बुढ़िया की सीख

November 1971

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अपनी सेना से बिछुड़कर शिवाजी एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ दूर-दूर तक आबादी दिखाई न देती थी। कुछ अँधेरा हो चला था। तभी कुछ दूर पर उन्होंने दीपक का मन्द प्रकाश देखा। वे उधर गए और एक झोपड़ी के सम्मुख आ खड़े हुए। एक बुढ़िया बाहर आई और उन अभ्यागत को झोंपड़ी के अन्दर ले गई। शिवाजी थके होने के साथ-साथ भूखे भी थे। बुढ़िया ने यह अनुभव कर लिया। उसने हाथ-मुँह धोने के लिए गर्म पानी दिया और बैठने के लिए चटाई बिछा दी। शिवाजी हाथ-मुँह धोकर आराम से बैठ गए। कुछ ही समय पश्चात बुढ़िया ने एक थाली में पकी हुई कोदों परोसकर उनके सम्मुख रख दीं।

शिवाजी असहनीय रूप से भूखे थे। तुरन्त कोदों का बड़ा-सा कौर भरा। तभी ओ माँ कहकर ! हाथ झटकने लगे। कोदों बहुत गर्म थीं।

बुढ़िया ने देखा तो बोली—”तू भी शिवा जैसे स्वभाव का मालूम होता है।” शिवाजी ने पूछा—”माता ! तूने शिवा से मेरी तुलना किस आधार पर की ?”

बुढ़िया बोली—”जिस प्रकार शिवा आस-पास के छोटे किले न जीतकर बड़े-बड़े किले जीतने की उतावली करता है, उसी प्रकार तूने भी किनारे-किनारे की ठंडी कोदों को खाना शुरू न करके, बीच में से बड़ा कौर भरकर हाथ जला लिया ! बेटा उतावली से काम बनता नहीं, बिगड़ता है। मनुष्य को उन्नति के लिए छोटे-छोटे कदम बढ़ाते हुए सावधानी और धैर्य के साथ आगे बढ़ना चाहिए। उतावली के साथ बड़े-बड़े कदम उठाकर कोई बड़ा लक्ष्य नहीं पाया जा सकता। जिस दिन शिवा छोटे-छोटे किलों से अपना विजय-अभियान प्रारंभ करेगा, उसी दिन से उसे कभी पीछे हटने की आवश्यकता न होगी, और एक दिन ऐसा आयेगा जब वह अपने मनोनीत लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।"

शिवाजी ने बुढ़िया की सीख गाँठ बाँध ली, जिसके फलस्वरूप उन्होंने इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया।

लक्ष्य सांसारिक हो अथवा आध्यात्मिक उसकी साधना में उतावली से विरत होकर जो धैर्यवान व्यक्ति दृढ़तापूर्वक धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं, वे अवश्य सफल होते हैं। इसके विपरित जो व्यक्ति छलांग लगाकर जल्दी ही जीवनलक्ष्य प्राप्त करने की उतावली करते हैं, वे बहुधा अपनी साधना में असफल रहकर उपहासास्पद बन जाते हैं।


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