नारी को स्वतंत्रता मिले, साथ ही दिशा भी

November 1971

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नारी समाज को समय की प्रगति के सामाजिक क्रूर बन्धनों से धीरे-धीरे छुटकारा मिलता जा रहा है। बहुत पिछड़े, अशिक्षित, अहंकारी और संकीर्ण, अनुदार लोगों में ही अब घूँघट, परदा प्रथा की कठोरता शेष रह गई है। बाकी समझदार लोग अब अपनी बच्चियों को भी शिक्षा दे रहे हैं और उन्हें घर से बाहर काम करने के लिए जाने देने के प्रतिबंध भी उठा रहें हैं। महिलाओं का उत्साह और रुझान भी इसी दिशा में है। औचित्य और न्याय का तकाजा भी यही है। प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिपादन भी इसी दिशा में है। स्वतंत्रता और सम्मान एवं औचित्य का जो व्यापक समर्थन हो रहा है, उसने भी नारी के ऊपर लदे हुए पिछले सामन्ती बंधनों को निरस्त करने में सहायता ही की है। इन अनेक कारणों के मिल जाने से नारी की स्वतंत्रता का एक नया युग आरंभ हुआ है। अंधे मानव समाज को सामाजिक पराधीनता के अवांछनीय बंधनों से इस प्रकार मुक्ति पाते देखकर सर्वत्र प्रसन्नता और सन्तोष की ही अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

पर दुर्भाग्य की करामात तो देखिए, वह पिछली खिड़की से छद्मवेश बनाकर फिर घुसपैठ करने में लग गया है और वह नारी पराधीनता के लिए नए किस्म के जाल बंधन बुनकर फिर ले आया है। पहले लोहे की जंजीरों से कैदी बाँधे जाते थे, अब सोने की जंजीरों या रेशमी रस्सों से उन्हें बाँधा जाने लगे तो इसे कोई प्रगति भले ही कहता रहे; वस्तुतः यह बन्धन उतने ही दुखद रहेंगे जितने कि लोहे वाले समय में थे।

नारी को नर के समान ही अपने व्यक्तित्व के विकास और लोक निर्माण में अपनी प्रतिभा का समर्थ योगदान कर सकने का सुअवसर मिले, तभी उनकी स्वाधीनता सच्ची और सार्थक कही जा सकती है। यदि उपलब्ध नारी तंत्र को सही दिशा मिली होती तो सचमुच मानव जाति का यह एक बहुत बड़ा सौभाग्य होता और उससे उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ देखकर सन्तोष व्यक्त किया जा सकता था, पर हुआ ठीक इससे उलटा है।

पत्रकार, कलाकार, साहित्यकार, चित्रकार, कवि, अभिनेता, गायक, वादक सब मिलकर पुरुष की पशुप्रवृत्ति को भड़काने और उसे तृप्त करने का वातावरण बनाने में लग गए हैं। उन्होंने अमीरों और विलासियों की कामुकों और कुत्सितों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष की तरह फूल और फल देना आरंभ कर दिया है। उनका सारा बुद्धिकौशल और क्रियाकलाप इस दिशा में लग गया है कि नारी को रमणी और कामिनी के रूप में उसी तरह बने रहने दिया जाए, जैसी कि वह सामन्ती जमाने में थी। तब वह बलात् बंधित की जाती थी। अब वैसी परिस्थिति नहीं रही तो उसी कार्य को इस चतुरता से सम्पन्न किया जाए कि नारी उसी गर्हित स्थान पर स्वेच्छापूर्वक खड़ी रहे, जहाँ उसका शोषण पूर्ववत् निर्बाध गति से चलता रहे।

नारी का चित्रण साहित्य, चित्र, गीत, काव्य, मंच आदि पर जहाँ भी आज हो रहा है वहाँ उसे रमणी और कामिनी ही चित्रित किया जाता है। माता, भगिनी और पुत्री के रूप में उसे उभारने वाली रचनाएँ, कृतियाँ, अभिव्यक्तियाँ ढूँढ़ने पर भी कहीं न मिलेंगी। जब फूहड़ चित्रण में निम्न वर्ग की निकृष्टता और सम्पन्न वर्ग की कुत्सा भड़काने के निमित्त बनकर इन तथाकथित कलाकारों को प्रचुर धन कमाने ओर बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर मिलता हो तो वे उसे छोड़ें भी क्यों ?

जहाँ नारी फैशनपरस्त भड़कीली और निर्लज्ज होती दिखाई पड़े वहाँ वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उसे दोष नहीं ही दिया जा सकता। यह उसकी विवशता है। यह उसके भोलेपन का शोषण है। जब हर मासिक पत्रिका में सजी-धजी नटनियों की कुत्सित भाव-भंगिमा में सभी तस्वीरें छपती हैं, और वैसे ही चित्र, कैलेंडर, हर दीवार पर टँगे मिलते हैं, तो उसे देखकर एक भोली नारी यही मान्यता बना सकती है कि उसके अस्तित्व की सार्थकता इसी ढाँचे में ढल जाने में हो सकती है। सिनेमा आज का एकमात्र मनोरंजन रह गया है, उसमें नारी जिस प्रकार की पोशाक पहनती है, जिस तरह का वेष-विन्यास बनाती है, जैसे हाव-भाव दिखाती है, जैसा जीवनक्रम बनाती है, उसी का अनुकरण करने में ही तो वह सिनेमादर्शक जैसे स्तर के इस सारे समाज में अच्छी लग सकती हैं। ऐसे संस्कार सिनेमा देखने वाली, उस संदर्भ के लेख चित्र पढ़ने वाली लड़की भला और किस निष्कर्ष पर पहुँचेगी।

बढ़ती हुई साज-सज्जा, श्रृंगारिकता, भड़कीली पोशाक, नख-शिख की लीपा-पोती, केश-विन्यास में बरती जाने वाली विलक्षणता इस बात का प्रमाण है कि नारी को उसके लिए अर्धसहमत कर लिया गया जहाँ निशाचर लोग उसे ले जाना चाहते हैं। शरीर और वस्त्रों की स्वच्छता और शालीनता के परिधान बिलकुल दूसरी बात है और भड़कीलापन नितान्त प्रतिकूल। पर दोनों को मिला देने वाले तर्क थोथी वाचालता ही कहे जाएँगे।

सज-धज की प्रतिक्रिया क्या होती है। इस संदर्भ में एक छोटा-सा किन्तु बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्मरण यह है कि एक बार लाहौर की एक लड़की ने महात्मा गाँधी को एक पत्र लिखा कि “जब वह कॉलेज जाती है, तब शोख लड़के उसे छेड़ते हैं, क्या करूँ ?” गाँधी जी उसे उत्तर दिया "तुम अपने सिर के बाल मुड़ा लो, फिर कोई लड़का तुम्हारी ओर नजर उठाकर भी नहीं देखेगा।” बात आई-गई हो गई, पर तथ्य जहाँ का तहाँ खड़ा है। यदि नारी की शालीनता अक्षुण्य रखना है, और उसके व्यक्तित्व का समग्र विकास संभव किया जाना है तो उसे श्रृंगारिकता के वातावरण से निकालना ही पड़ेगा।

अमेरिका की श्रीमति बेट्टी प्राइडन के नेतृत्व में इन दिनों 'नारी मुक्ति आँदोलन' चल रहा है। उसमें इस विषाक्त वातावरण को उत्पन्न करके नारी को फिर सामंती बंधनों में जकड़ने के षडयंत्र का पर्दाफाश किया जा रहा है। नारी को समझाया जा रहा है कि वह इस जाल में फँसने से इनकार करने का साहस एकत्रित करे और लोगों को यह बताए कि वह न तो कठपुतली है और न गुड़िया, न वह कामिनी है, न रमणी, उसका अस्तित्व वर पशुओं की कुत्साएँ तृप्त करने के लिए नहीं है और न वह उपभोग्या है। और बताना होगा कि वह भी मनुष्य है और मनुष्य की तरह रहने और जीने की अधिकारिणी है। उसकी मनस्विता और प्रतिभा का उपयोग उसके स्वास्थ्य, ज्ञान, कौशल के अभिवर्धन में होना चाहिए, ताकि वह भी एक सुयोग्य विश्व नागरिक की भूमिका प्रस्तुत कर सकने में समर्थ बन सके।

नारीमुक्ति आंदोलन में जहाँ विश्व नारी को एक आदर्शवादी दृष्टिकोण दिया है वहाँ उसने उन मान्यताओं को व्यावहारिक रूप देने के लिए यह कार्यक्रम भी घोषित किया है कि इन आदर्शों को स्वीकार करने वाली प्रत्येक नारी केवल सज्जनोचित सीधी-साधी पोशाक पहने। भड़कीली, उद्धत लोगों की नजर अपनी ओर खींचने वाली कोई चित्र-विचित्र पोशाक न पहने और न बालों को उद्धत ढंग से सजाए। होठ , नाखून तथा कपोलों को रंग तथा मसालों से पोतना, लंबे नाखून रखना, इठलाते हुए चलना, उच्छृंखल ढंग से बातचीत करना इस आंदोलन से सहमत नारियों के लिए निषिद्ध है। इस सादगी और शालीनता को इन्होंने नारी के गौरव और स्वातंत्र्य को अक्षुण्ण रखने का महत्त्वपूर्ण प्रमाण माना है।

नारीमुक्ति आंदोलन से सहमत नारियाँ अब ऐसी सर्वमान्य पोशाकों का सृजन कर रही हैं, जो नर और नारी के लिए समान रूप से उपयोगी हों। उनमें अन्तर भी हो तो बहुत थोड़ा। चीन ने भी अपने देश में नर और नारियों के लिए लगभग एक-सी पोशाक निर्धारित की है। उनमें नाम मात्र का अंतर है। यह नारी के सम्मानास्पद आदर्श की उचित व्यवस्था है। उपरोक्त आंदोलन ने न केवल श्रृंगार प्रसाधनों का परित्याग किया है वरन् उनकी होली भी जगह- जगह जलाई है और उन उपकरणों को नारी के लिए अपमानजनक बताया है। नर और नारी की समान पोशाक का जहाँ प्रचलन हुआ है वहाँ निस्संदेह कामुकता की दृष्टि और प्रवृत्ति को भारी आघात लगा है और उसका मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव यह हुआ कि वे लोग विशुद्ध मनुष्यों की तरह बिना लिंगभेद की बात सोचें, सीधे-साधे ढंग से रहने लगे हैं। जिस प्रकार पुरुष-पुरुष या नारी-नारी मिलकर अश्लील बातें नहीं सोचते, वरन् उपयोगी वार्तालाप करते हैं, उसी प्रकार का रहन-सहन अपनाने से असमानता का स्तर और यौन आकर्षण स्वतः घट गया है। इस जंजाल से छुटकारा पाकर नारी को पुरुषों की तरह ही अपने व्यक्तित्व तथा भविष्य के निर्माण की चिन्ता करने—उसके लिए प्रयत्न करने और समाज की प्रगति में योगदान देने के लिए सोचने तथा कुछ करने का अवसर मिलने लगा है। नारी स्वातंत्र्य का यही रचनात्मक लाभ है, जो मिलना ही चाहिये। श्रृंगार सज्जा से लेकर यौन आकर्षण की केन्द्र बनने से यदि वह इनकार न करे तो फिर यह स्वतंत्रता भी पूर्ववर्ती परतंत्रता की ही तरह पतन और प्रवंचना भरे दुष्परिणाम प्रस्तुत करती रहेगी।

  आरंभ कहीं से भी हुआ हो यह आंदोलन विश्वव्यापी होना चाहिए और भारत में भी इस दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। समस्या विश्वव्यापी है। नारी के साथ पूर्वकाल से दृष्टता बरती जाती रही है; अब उसे छलना के रूप में बदला जा रहा है। एक हाथ से जंजीर ढीली होने और दूसरे हाथ से नई रस्सी कस देने से स्थिति कहाँ बदली ? परिवर्तन ऐसा लाया जाना चाहिए, जिससे नारी द्वारा भी नर की ही तरह एक सुयोग्य और सुसंस्कारी मानव की भूमिका का संपादन  किया जा सके। उसके लिए बौद्धिक और भावनात्मक वातावरण तैयार किया ही जाना चाहिए। इसका आरंभ यदि नारी द्वारा आकर्षक श्रृंगारिकता से इनकार करने के रूप में किया जा सके, तो उसे प्रशंसनीय ही कहा जाएगा। अपने देश में यह आंदोलन जेवरों के बहिष्कार के रूप में होना चाहिए। क्योंकि हाथ, पैर, गले और कमर में बँधी हुई यह धातुओं की जंजीर नारी की पराधीन स्थिति का ही समर्थन करती हैं।

भारत की परिस्थितियाँ, अशिक्षा तथा रूढ़िवादी कट्टरता को देखते हुए समान पोशाक की बात तो यहाँ अभी मुश्किल से ही चलेगी, पर इतना तो हो ही सकता है कि भड़कीलेपन का अंत हो जाए।अनावश्यक ध्यान बटाने वाली रंग-बिरंगी,चित्र-विचित्र पोशाकें न पहनी जाएँ। और विलायती ढंग का उनका पहनावा उनके छिछोरेपन और शालीनता पर आँच लाने वाला घृणास्पद समझा जाने लगे, ऐसा वातावरण बनाया ही जाना चाहिए। अध्यापिकाऍ इस दिशा में बहुत काम कर सकतीं हैं। उन्हें गुरु एवं माता का गौरव ध्यान में रखकर स्वयं तो उच्छृंखल वेशभूषा से परहेज करना ही चाहिए साथ ही लड़कियों को भी चुस्त पोशाक से लेकर चित्र-विचित्र फैशन बनाने और बालों का तमाशा खड़ा करने से रोकना चाहिए। उत्सवों और शादियों में जो फूहड़ सज-धज होती है इसके स्थान पर भी सादगी का प्रचलन होना चाहिए। ऐसे अनेक सुधार हैं जो तुच्छ दीखते हुए भी नारी स्वातंत्र्य की सार्थकता संबंधी प्रकाश दे सकते हैं। सुलझे विचारों के लोग अपने लड़के-लड़कियों की एक सी पोशाक रख सकते हैं, जिससे वे लड़की लड़के नहीं, मात्र बालक ही प्रतीत हों। बालों का भी सीधा सादा ढंग रह सकता है जो सहज स्वच्छता की दृष्टि से उपयोगी हो—व्यर्थ की श्रृंगारिकता को बढ़ावा न दें और जिसकी साज-संभाल आसानी से रखी जा सके।

यह तो प्रतीकात्मक प्रक्रियाएँ हुईं। मूल बात यह है कि नारी को अश्लील आकर्षणों का केन्द्र नहीं बनाया जाना चाहिये। साहित्य, संगीत, कला के नाम पर उसे रमणी बनने के लिए उसे आकर्षित न किया जाए, वरन् पुरुष के सह-स्तर वाले मित्र एवं सहचर के रूप में उत्तरदायी विश्व नागरिक के सपने अपने गौरवशाली स्थान को सम्भाले रह सकने योग्य साहस एवं चरित्र प्रदान किया जाए। पुरुष वर्ग का कर्त्तव्य है कि वह नारी को बहकाने फुसलाने और गिराने का प्रयत्न छोड़ें और उसे भावनात्मक बौद्धिक एवं व्यावहारिक सहयोग इस प्रकार का प्रदान करें, जिससे उसकी प्रतिभा को विकसित होने और नवनिर्माण की भूमिका संपादन में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकने का अवसर मिल सके। साथ ही नारी में वह चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए कि वह अपने विरुद्ध खड़े किए गए षडयंत्र में फँसने से इनकार कर सके। उसके मानवीय स्वाभिमान का तकाजा है कि वह किसी को आकर्षित करने के लिए श्रृंगार करने को तिलांजलि देकर अपनी प्रतिभा की प्रखरता बढ़ाती हुई समाज का नैतिक मार्गदर्शन और नेतृत्व कर सकने में समर्थ हो सके। इस स्तर का वातावरण एवं उत्साह उत्पन्न करने के लिए हमें विशेष रूप से प्रयत्न करना चाहिए, ताकि नारी स्वातंत्र्य का विश्व को समुचित लाभ मिल सके।


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