जेन-एडम्स

November 1971

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समर्थ होते हुए भी किसी दु:खी अथवा आवश्यकतापीड़ित व्यक्ति की सहायता न करने वालों को क्या कहा जाएगा और क्या कहना होगा उन उपकारी आत्माओं को जो अपने सारे साधन मनुष्यों की मदद के लिए मुक्त कर देते हैं। अठारह वर्षीया छात्रा जेन-एडम्स ऐसी ही महान् आत्माओं में से थीं, जिसने दूसरों का दु:ख दूर करने के लिए अपने घर के द्वार खोल दिए थे।

घटना 1883 की है। अमेरिका के शिकागो शहर की छात्रा जेन-एडम्स उस समय लन्दन के एक कॉलेज में अध्ययन कर रही थीं। वह छात्रावास से बहुधा कॉलेज पैदल ही जाया करती थी। इसका कारण यह नहीं था कि उसके पास सवारी के लिये पैसों की कमी थी। वास्तविक कारण यह था कि वह रास्ते में दु:खी, असहाय एवं आवश्यकतापीड़ित व्यक्तियों को देखती और उनका दु:ख-दर्द पूछती हुई जाया करती थी। उसे अपने इस कार्य से बड़ी आत्मिक सांत्वना मिला करती थी। उसका हृदय कोमल तथा करुणापूर्ण था। वह दीन-दु:खियों की सहायिका बनकर अपने मानव जीवन को सार्थक बनाना चाहती थी। उसका नित्य का यह कार्यक्रम उस भविष्य की भूमिका थी, जिसमें वह जन सेवा करने का विचार किए हुए थी।

एक दिन उसने देखा कि एक बालक किताबों के अभाव में स्कूल न जा सकने के कारण बुरी तरह रो रहा है। उसने फुटपाथों पर पड़े असहाय रोगियों को रोते-कराहते देखा। उसने देखा कि बेरहम मालिक —भाड़ा न चुका सकने की विवशता के कारण वर्षा से भीगी घोर जाड़ों की रात में किराएदार को धक्का देकर बाहर निकाल रहा है और सामान फेंक रहा है। उसने देखा कि शिक्षा के अभाव में उसके पड़ोस की स्त्रियाँ बुरी तरह लड़ती झगड़ती और गाली-गलौज करती हैं। उसने ऐसे और अपाहिजों को भी देखा, जो दानों के लिए मुँह बायें दम तोड़ रहे हैं।

कुमारी जेन-एडम्स के हृदय से एक आह निकल पड़ी और उसकी आत्मा कह उठी— “मानवता की यह दशा।” जेन ! जिनको तेरी सहायता की आज और अभी आवश्यकता है, उनको तू भविष्य के लिए टाल रही है। कल किसने देखा है। जो कुछ कर सकती है, इनके लिए आज, अभी कर। कुमारी जेन-एडम्स के इन छोटे-छोटे परोपकारी कार्यों की अंतर महानता ने उसे एक विख्यात समाज सेविका बना दिया।


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