सच्ची सेवकाई

November 1971

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जगारिका के नगरश्रेष्ठ अनंगपाल का स्वभाव जितना मृदुल और सौम्य था, भार्या बिंदुमती थी उतनी ही कर्कश और कुटिल। कोई भी परिचारिका उसकी सेवा में आज तक एक मास से अधिक न टिक पाई थी। नगरश्रेष्ठ निराश हो चुके थे और निश्चय कर चुके थे कि बिंदुमती को कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़े, अब और कोई परिचारिका नियुक्त नहीं करेंगे।

एक दिन अनंगपाल के एक सेवक ने एक निर्धन कन्या उपस्थित की नाम था— 'चौलिया'। उसके माता-पिता स्वर्गवासी हो चुके थे। आश्रय की खोज में भटक रही कन्या को देखते ही अनंगपाल की करुणा उमड़ उठी। उन्होंने उसके शीश पर स्नेह-वत्सल हाथ फेरा और कहा—"बेटी ! सेविका तो क्या, तुम मेरी पुत्री के समान इस घर में रह सकती थीं, किन्तु दैवयोग से गृह-स्वामिनी के तीखे और कर्कश स्वभाव के कारण तुम इस घर में रह भी पाओगी ? मुझे पूरा सन्देह है।

आपने मुझे पुत्री कहा—"आर्य! आपकी यह शालीनता और सज्जनता इतनी बड़ी है कि उसके सम्मुख कोटि-कर्कशतायें भुलाई जा सकती हैं। आर्य ! फिर सेवा का सच्चा अधिकार भी तो उन्हें ही है, जो ऊबे, उत्तेजित और संसार से खीझे व निराश जैसे हैं। माताजी के स्वभाव की चिन्ता आप न करें। मुझे सेवा का सौभाग्य प्रदान करें।

चौलिया अब इस गृह की परिचालिका बन गई। घर की एक-एक वस्तु को व्यवस्थित किया चौलिया ने। गन्दी-भद्दी-टूटी-कलूटी वस्तुओं को साफ-सुथरा, ठीक किया, सजाया चौलिया ने। प्रातः चार बजे जब दूसरे लोग सो रहे होते तो चौलिया जागती और सायंकाल सबको सुलाकर सोती, एक क्षण भी उसने निरर्थक नहीं खोया किन्तु बदले में मिला क्या ? बिंदुमती की फटकार, अपमान और मार।

एकान्त पाकर अनंगपाल  ने कहा—"बेटी ! तू मुझसे निर्वाह साधन लेकर कहीं सानन्द रह, इस नारकीय यंत्रणा में क्यों प्राण दे रही है।" चौलिया ने उत्तर दिया— " तात ! यदि मैंने माँ बिंदुमती की कोख से जन्म लिया होता तो क्या आप मुझे यों हटाते ? मुझसे भूल होती होगी, तभी तो माँ जी डाँटती और मारती हैं, इनमें बुरा मानने की क्या बात !"अनंगपाल चुप हो गये।

उस रात बिंदुमती को एकाएक ज्वर हो गया। चौलिया उनकी देखभाल के लिए नियुक्त की गई। एक दिन दो दिन क्रमशः कई दिन बीत गए, ज्वर सन्निपात में परिवर्तित हो गया, चिकित्सकों ने ज्यों-ज्यों चिकित्सा की, स्थिति त्यों-त्यों बिगड़ती गई। इस बीच घर के सब लोगों ने अपनी दैनिक क्रियाएँ यथावत् निबटाईं, किन्तु चौलिया को किसी ने न स्नान करते देखा, न शयन करते। अपनी सगी माँ की कोई क्या सेवा करेगा, चौलिया ने जैसी सेवा बिंदुमती की की, किन्तु दैवयोग किसके टाले टलता है। एक रात बिंदु की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ, उसने आँखें खोली-सामने चौलिया खड़ी थी, अनंग  को बुलाया बिंदु ने, उन्हें देखते ही बिंदु की आँखें छलक पड़ी। कुछ कहना चाहा, पर निकले कुल दो शब्द-बेटी चौलिया...........और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। बिंदुमती का देहावसान हो गया।

इधर अर्थी जा रही थी श्मशान को उधर चौलिया किसी नए आश्रय की खोज में। अनंग ने समझाया बेटी ! यह घर तेरा घर है, तू कहाँ जा रही है? तो चौलिया बोली—" माँ थी तब तक उसकी सेवा के लिए मेरी आवश्यकता थी और मुझे भी अपनी सहनशीलता का अभ्यास करने के लिए उनकी आवश्यकता थी। अब वे नहीं रहीं तो मुझे अन्यत्र वैसी ही परिस्थिति ढूँढ़ने के लिए जाना चाहिए, जहाँ मेरा रहना अधिक सार्थक हो सके।

अनंगपाल देखते ही रह गए और चौलिया वैसी ही स्थिति वाला अन्य स्थान ढूँढ़ने के लिए आगे बढ़ गई।


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