राजहंस कपिष्टल, इंदुजात, श्वेतपुच्छ, उद्रक और विनता पाँचों ने मंत्रणा की और फिर निकल पड़े प्रवास पर। सुदूर देशों का प्रवास राजहंस प्रतिवर्ष किया करते और कठोर शीत के चातुर्मास समाप्त होते ही मानसरोवर आ जाते। इस प्रवास में जहाँ देश-दुनिया के रंग-बिरंगे दृश्य दीखते वहाँ संसार के विभिन्न लोगों से भेंट और उनकी परिस्थितियों के अध्ययन द्वारा एक विवेकपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने में भी उन्हें मदद मिलती।
अनेक देश और भूखंड पार करते हुए राजहंसों की टोली समुद्रतट पर रुकी। कोणार्क राजवंश के प्रसिद्ध उद्यान यहीं पर थे। वहाँ का माली इन राजहंसों का प्रतिवर्ष आतिथ्य करता। राजहंस प्रत्युपकारवश माली को प्रतिवर्ष एक उपदेश दिया करते। इस बार भी माली ने अभ्यागतों को सुंदर मीठे फलों से ब्रह्मभोज कराया। टोली-नायक— 'कपिष्टल' ने माली को उपदेश दिया और कहा— "तात ! जो व्यक्ति अपनी शक्ति और साधनों की मर्यादा में रहता है वह स्वल्पसाधनों में भी अपना जीवन हँसी-खुशी में बिता लेता है, किंतु अपनी शक्ति से अधिक का मिथ्या प्रदर्शन करने वाले न केवल संकट में पड़ते हैं, अपितु उपहास और निंदा के पात्र भी बनते हैं।"
माली राजहंस की विद्वता से बहुत प्रभावित हुआ। मार्ग के लिए भी कुछ देने लगा तो राजहंसों ने मना किया। कहा—"तात ! संचय पाप है, यह खाद्य तुम ले जाओ, दुनिया में और बहुत से लोग अभावग्रस्त हैं, उन्हें दे दो, सामर्थ्यवान लोग अपनी आवश्यकताएँ आप पूरी कर लेते हैं, कुछ भी मिले, कहीं से भी मिले, उदरस्थ कर लेने की काकवृत्ति घटिया लोगों का काम है।"
कपिष्टल के यह शब्द वटवृक्ष पर बैठे कौवे 'उपद्रवी' ने सुन लिए। पंख फुलाता हुआ उपद्रवी राजहंसों की टोली के पास जाकर भला-बुरा कहने लगा और बोला—"राजहंसों ! तुम लोग यदि श्रेष्ठता का अभिमान करते हो तो चलो न हमारी तुम्हारी प्रतिद्वंद्विता हो जाए। यह देखो विशाल समुद्र दूर तक फैला है, चलो न देख लें, किसके पास शक्ति है, इसे पार करने की। अभी पता चल जाएगा कि तुम लोग समर्थ हो अथवा मैं!
राजहंस हँसे और बोले—"तात ! हम लोग किसी से प्रतिद्वंद्विता नहीं करते, आप भी न किया करें, परमात्मा ने एक से बढ़कर एक क्षमतावान प्राणी रचे हैं, फिर कोई अपनी शक्ति का गर्व क्यों करे।" यह कहकर राजहंसों की टोली ने उछाल भरी और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़े। किंतु उपद्रवी कौवा उन्हें यों छोड़ने वाला नहीं था। अहंकार की सहजात है— 'अशांति', सो कौवा कैसे शांत हो जाता, वह भी राजहंसों की बगल में उड़ चला और थोड़ा तेजी दिखाकर आगे हो गया। आगे-आगे काक पीछे अपनी सहज स्वाभाविक गति में हंस, कौवा बीच-बीच में कोई-न-कोई व्यंग मारता जाता और कहता—"थक जाना तो बता देना-हम तो केवल तुम्हें अपनी शक्ति दिखाना चाहते हैं, मारना नहीं चाहते।” राजहंस बिना कोई उत्तर दिए— समुद्र के ऊपर धीर-गंभीर उड़ते चले जा रहे थे।
अभी कुछ ही देर उड़े हुए हुई थी कि बकवादी कौवे का शरीर थक गया, पंख ढीले पड़ गए, यों लगा कि अब गिरा— तब गिरा, किंतु हेकड़ी उसकी अभी तक भी जाती न थी। कौवा अब एक क्षण में समुद्र में गिरने वाला था, अपने ही कृत्य पर उसकी आँखें डबडबा आईं। यह देख राजहंसों को दया आ गई, उन्होंने कौवे को अपनी पीठ पर बिठाया, फिर पीछे लौटे और कौवे को वहाँ पर पहुँचा दिया, जहाँ वह रहता था। अभी तक उसका दम फूल रहा था। कपिष्टल बोले— "तात ! आगे कभी अपनी शक्ति से बढ़कर प्रदर्शन मत करना अन्यथा मारे जाओगे"— यह कहकर टोली फिर अपने प्रवास पर चल पड़ी।