अपने को जानें, भवबंधनों से छूटें

November 1971

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संसार में जानने को बहुत कुछ हैं; पर सबसे महत्त्वपूर्ण जानकारी अपने आपके संबंध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियाँ प्राप्त करना सरल हो जाता है। ज्ञान का आरंभ आत्मज्ञान से होता है, जो अपने को नहीं जानता वह दूसरों को क्या जानेगा ?

आत्मज्ञान जहाँ कठिन है, वहाँ सरल भी बहुत है। दूसरी वस्तुएँ दूर भी हैं और उनका सीधा संबंध भी अपने से नहीं है। किसी के द्वारा ही संसार में बिखरा हुआ ज्ञान पाया और जाना जा सकता है, पर अपना आपा सबसे निकट है, हम उसके अधिपति हैं— आदि से अंत तक उसमें समाए हुए हैं, इस दृष्टि से आत्मज्ञान सबसे सरल भी है। शोध करने योग्य एक ही तथ्य है— आविष्कृत किए जाने योग्य एक ही चमत्कार है— वह है अपना-आपा। जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।

बाहर की चीजों को ढूँढ़ने में मन इसलिए लगा रहता है, कि अपने को ढूंढ़ने के झंझट से बचा जा सके। क्योंकि जिस स्थिति में आज हम हैं। उसमें अँधेरा दीखता है और अकेलापन। यह डरावनी स्थिति है। सुनसान को कौन पसंद करता है। खालीपन किसे भाता है। अपने को इस विपन्न स्थिति में रखकर स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और फिर उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागते हैं। अपने को देखने, खोजने और समझने की इच्छा इसी से नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजों को ढूँढ़ते फिरते हैं, कैसी है यह विडंबना।

क्या वस्तुतः भीतर अँधेरा है ? क्या वस्तुतः हम अकेले और सूने हैं ? नहीं, प्रकाश का ज्योति-पुंज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर विराजमान है। उसे पाने और देखने के लिए आवश्यक है कि मुँह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने से तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता और हिमालय तथा समुद्र भी दीखना बन्द हो जाते हैं। फिर अपनी ओर पीठ करके खड़े हो जाएँ तो शून्य के अतिरिक्त और दीखेगा भी क्या ?

बाहर केवल जड़ जगत है। पंचभूतों का बना हुआ निर्जीव। बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम मात्र जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आँखों से दीखता है, कानों से सुनाई पड़ता है, जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जाएगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दृष्टिगोचर होगी। अन्दर जो है, वही सत् है। इसे अंतर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अन्तःदृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अन्तर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।

स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शांति आदि विभूतियों की खोज में कहीं अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है। बाहर भरी हुई जड़ता में चेतना कैसे पाई जा सकेगी। जिसे ढूँढ़ने की प्यास और चाह है वह तो भीतर ही भरा पड़ा है। जिसे कुछ मिला है यहीं से मिला है। कस्तूरी वाला हिरण तब तक उद्विग्न और अतृप्त ही फिरता रहेगा जब तक कि अपने ही नाभिकेन्द्र में कस्तूरी की सुगन्ध सन्निहित होने पर विश्वास न करेगा, बाहर जो कुछ भी चमक रहा है सब अपनी ही आँखों का प्रकाश-प्रतिबिंब मात्र है।

श्रुति कहती है—"अपने आपको जानो, अपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ।" उसी को ऋषियों ने दुहराया है और तत्त्वज्ञानियों ने उसे ही सारी उपलब्धियों का सार कहा है। क्योंकि जो बाहर दीख रहा है, वह भीतरी तत्त्व का ही विस्तार है। अपना आपा जिस स्तर का होता है संसार का स्वरूप भी वैसा ही दीखता है। बाहर हमें जैसा देखना पसन्द हो उसे भीतर से खोज निकालें। यही अन्वेषणा की चरम सीमा है।

दुःख, दारिद्रय, शोक, सन्ताप और अभाव, उद्वेग का निवारण करने के लिए इन अनात्मतत्त्वों की अंतरंग में जमी हुई जड़ों को खोदना पड़ेगा। भीतर का दीपक जलने पर ही बाहर फैले अन्धकार का समाधान होगा। जो कुछ हमारे लिए अभीष्ट और आवश्यक है, उसकी समस्त संभावनाएं अपने भीतर सुरक्षित रखी हुई हैं। आवश्यकता उन्हें प्रयोग करने की है। अपने आपे का प्रयोग करना यदि हमें आया होता तो हम दूसरे ईश्वर बन सकने में समर्थ होते। अपने को खोकर हमने खोया ही खोया है। बाहर ढूँढ़ने में जीवन गँवा डाला, पर मिला कुछ नहीं, मिलता तब जब बाहर कुछ होता।

अनात्मतत्त्वों की जो गन्दगी भीतर भर गई है, उसे निकाल दें तो शेष वही रह जाता है जो हमारा स्वरूप है। कुछ पाने के लिए कुछ खोने के लिए तप-साधन किए जाते हैं। आत्मा तो स्वयं उपलब्ध ही है। उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है। करने की बात इतनी ही है कि जो अनुपयुक्त और अवांछनीय अपने भीतर भर लिया है उसे निकाल कर फेंक दें। यह परिशोधन ही उपलब्धि का निमित्त बन जाता है।

किसी तत्त्ववेत्ता से जिज्ञासु ने पूछा—" गुरुदेव, तप-साधना से आपने क्या पाया ?" उन्होंने उत्तर दिया—"खोया बहुत,पाया कुछ नहीं।" जिज्ञासु ने आश्चर्य से पूछा—"ऐसा क्यों ?" ज्ञानी ने कहा—जो पाने लायक था, वह तो पहले से ही प्राप्त था। जो खोने लायक विषय, विकार और अज्ञान, अन्धकार के अनात्मतत्त्व भीतर घुस पड़े थे, उन्हें साधना से निकाला भर है। इस तरह साधक—साधना में खोता ही खोता है, पाता कुछ नहीं, हम स्वप्न खोते हैं, तब सत्य पाते हैं।

रोवर गोडंल ने अपनी पुस्तक ‘दी कन्टेन्योटेरी साइन्सेज एण्ड दी लिवरेटिव एक्पीरियेन्स ऑफ योग’ में लिखा है—"मनुष्य को यह जानने से पहले कि वह वास्तव में क्या है, अब तक के जाने हुए को भूलना होगा।" वर्तमान नकारात्मक मान्यताओं के कारण मानव अपने भीतर स्थूल अहंवाद के साथ जुड़ी हुई मिथ्या मान्यताओं से ही परिचित हो पाया है। आत्मिक प्रगति के लिए हमें आत्मबोध का प्रशिक्षण आरम्भ से ही करना होगा। क्योंकि उन तथ्यों को जिन पर आत्मोन्नति निर्भर है, एक प्रकार से हमने भुला ही दिया है।

कालीदास ने कहा है—अपने को जानने का प्रयत्न करो। अपने स्वरूप को समझो और जिस लिये जन्मे हो उस पर विचार करो। तुम्हें दिशा मिलेगी और सही दिशा में कदम उठ गए तो वह प्राप्त करके रहोगे जिसके पाए बिना अपूर्णता और अतृप्ति घेरे ही रहेगी।

स्वामी विवेकानन्द ने एक कथा सुनाई—"एक तत्त्वज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, संध्या आने वाली है, काम समेट लो। एक सिंह कुटी के पीछे यह सुन रहा था। उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है जिससे डरकर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए हैं। सिंह चिन्ता में डूब गया और उसे संध्या का डर सताने लगा।

पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेटकर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब। उसे ढूँढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी, समझा गधा है। सो लाठी से उसे पीटने लगा। धूर्त यहाँ छिपकर बैठा है। सिंह की पीठ पर लाठियाँ पड़ींं तो उसने समझा यही संध्या है सो डर से थर-थर काँपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लादकर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला। उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा —यह क्या हुआ ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो? सिंह ने कहा—संध्या के चंगुल में फँस गए हैं, वह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है।”

सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं, उसकी भ्रान्ति थी, जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देवदानव समझ लिया गया और उसका भार एवं प्रहार बिना सिर हिलाए स्वीकार कर लिया गया। हमारी यही स्थिति है, अपने वास्तविक रूप को न समझने और संसार के साथ—जड़ पदार्थों के साथ अपने संबंधों का ठीक तरह से तालमेल न मिला सकने की गड़बड़ी, ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है, जिनमें अन्धकार के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। इस भ्रान्ति को ही माया कहा गया है। माया को ही बंधन कहा गया है और दुःखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है।

गीता में माया की व्याख्या और प्रतिक्रिया समझाते हुए भगवान ने कहा है।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।

ज्ञान अज्ञान के द्वारा ढक दिया गया है, इस कारण सब प्राणी मोह को प्राप्त होते हैं।

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः।

अपनी योगमाया से ढके हुए होने के कारण मैं सबके लिये दृश्य नहीं हूँ।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

तीन गुणों से युक्त इस मेरी माया को पार करना बड़ा कठिन है।

शरीर को आत्मा समझ बैठने—शरीर के सुख-दुःख, हानि-लाभ और संयोग-वियोग को आत्मा पर घटित हुई मान लेने से मनुष्य दुःखी होता है, उपलब्धियों की अपेक्षा यदि अपना ध्यान आत्मा के निर्मल निर्विकार स्वरूप में बना रहे और जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कर्त्तव्य कर्मों को करते रहने एवं दिव्य विचारों में रमण करने की प्रवृत्ति अपना ली जाए तो न दुःख की गुंजाइश रहे, न शोक की। अपने को आत्मा बना इस संसार को परमेश्वर का स्वरूप मानकर परमात्मा के लिए आत्मा द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले अनुदानों-कर्त्तव्य कर्मों को अपनाते हुए जीवन-यात्रा पूरी करने लगे तो सारे दुःख दूर हो जाएँ, जिन्हें अज्ञता के कारण मायाबद्ध जीव पग-पग पर भुगतता रहता है।



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