हृदय का हिमालय पिघलने लगा (Kavita)

November 1971

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स्त्रोत उमड़ा तुम्हारे मधुर स्नेह का। तो हृदय का हिमालय पिघलने लगा॥

मैं चला जा रहा था दिशाहीन ही, तम निशा थी घिरी घोर अज्ञान की। बुद्धि में पल रहे, पाप-कल्मष दुखद, बेलि बढ़ती रही घोर अभिमान की॥

यह तुम्हारी दयादृष्टि ही है, कि जो- आत्मव्यापी कलुष आज धुलने लगा। तो हृदय का हिमालय पिघलने लगा॥

जिन्दगी भी अभी तक मरुस्थल बनी, धार तुमने बहाई--कि अंकुर उगे। हर दुखी गीत के, चिर सहारे बने, स्वर तुम्हारे अतुल प्रेरणा में पगे॥

प्यार की जो बखेरी उषा-लालिमा- उर कमल मुस्करा-आज खिलने लगा। तो हृदय का हिमालय पिघलने लगा॥

साधना है नहीं, पास मेरे सखे, हैं नहीं, भक्ति या शक्ति या भावना। किन्तु पाता रहूँ यह कृपा की किरण, पल रही आत्मा में यही कामना॥

हाथ जब गह लिया-छोड़ दोगे नहीं। एक विश्वास यह-अब मचलने लगा। तो हृदय का हिमालय पिघलने लगा॥

*समाप्त*


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