स्वामी दयानन्द जी अपने गुरु के आश्रम में झाडू लगाते, आश्रम का पानी भरने से लेकर सभी काम वे स्वयं करते। एक दिन जल्दबाजी में किसी दूसरे काम में लग जाने से झाडू तो निकाल दी, किंतु कूड़े को एक ओर लगा दिया, सोचा बाद में फेंक देंगे। बाहर से तो विरजानन्द जी अंधे थे, किन्तु उनकी अंतर्दृष्टि से दयानन्द जी की यह ढिलाई और बाद के लिए काम को टाल देने की बात कैसे छिप सकती थी ? कुटिया में प्रवेश करते समय गुरुजी का पैर कूड़े के ही ढेर पर पड़ गया। अब तो दयानन्द जी पर वह मार पड़ी, जिसका ठिकाना नहीं। उस समय लगी एक चोट का निशान हमेशा के लिये स्वामी जी के कन्धे पर बना रहा। किंतु दयानन्द जी ने कहा—”गुरुदेव! मेरा शरीर कितना कठोर है, आपके दुबले पतले कोमल हाथों में बड़ी चोट लगी होगी। आप इस तरह मुझे न मारा करें।” फिर वे गुरुदेव के पैर दबाने लगे।
विरजानन्दजी तो शिष्य को सहनशीलता का पाठ पढ़ा रहे थे, महर्षि की निगाह जब कभी अपने शरीर पर लगे उस चोट के निशान पर पड़ती अथवा कोई पूछता—”महाराज, यह चोट कैसे लगी?” तो उनकी आँखें भर आतीं, गुरुदेव की याद करते और कहते-”यह गुरुदेव के उपकार की स्थूल निशानी है।”