सिडनी केस- फ्रैंक कुक तक

November 1971

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किरायेदार ने सोचा मकान बहुत बढ़िया है, यहाँ बहुत अच्छा रहेगा। और नहीं तो यह मकान मोल ही ले लूँगा। इन्हीं कल्पनाओं में खोया हुआ किरायेदार विलियम फ्राँक गहरी निद्रा में सो गया। किन्तु अभी उसे सोये हुये एक घंटा भी नहीं हुआ था कि किसी ने हाथ के इशारे से उसे जगा दिया। फ्राँक ने चद्दर हटायी, देखा एक बहुत ही भयंकर हरी आँखों वाली आकृति उसके सामने खड़ी है। उसने पूछा कौन है ? किन्तु जैसे यह प्रश्न हवा में खो गया, उसी प्रकार पता नहीं चला कि वह छायाकृति एकाएक कहाँ अन्तर्धान हो गई।

फ्राँक उठे, बत्तियाँ जलाकर सभी दरवाजे खिड़कियों की जाँच की, सब बिलकुल बंद थे। बाहर से चिड़िया तो आ सकती थी, किंतु बिल्ली नहीं धँस सकती थी,फिर यह पूरी दानवाकृति कहाँ से आई, कौन थी वह, कहाँ चली गई। उन्होंने निश्चित किया—"यह मेरे अवचेतन मन की कल्पना थी, जिसने स्वप्न में विधिवत् एक मनुष्य की आकृति खड़ी कर दी।" मन को आश्वस्तकर फ्राँक फिर सो गये किन्तु जैसे ही आधी रात नियराई, एक बार फिर वही पहले जैसी स्थिति। ठीक वही शक्ल फिर सिरहाने खड़ी थी और फ्राँक को झकझोरकर जगा रही थी। फ्राँक के मुँह से कौन तो निकला—उस कौन के साथ एक कराह-सी मालूम पड़ी। उन्होंने स्पष्ट खड़े हुए एक आदमी को देखा, किंतु जैसे ही उन्होंने फिर बत्ती जलाई वहाँ न राम न रहीम। फ्राँक बुरी तरह घबड़ा गए। रात जागते हुए बिताई। जहाँ उस मकान को खरीदने की सोच रहे थे। दूसरे ही दिन छोड़कर भाग गए।

यह कोई गल्पकथा नहीं लिखी जा रही, वरन् एक सच्ची घटना है जो सिडनी (आस्ट्रेलिया) शहर की हेयर फोर्ड स्ट्रीट के एक मकान में घटित हुई। जिसकी जाँच मनोवैज्ञानिकों ने भी की और सच पाया। उन्होंने माना कि अदृश्य जगत में यक्ष-गंधर्व, ब्रह्म, राक्षस, भूत-प्रेत, पिशाच, बेताल, किन्नर आदि होने की भारतीय मान्यता निराधार नहीं है।

फ्राँक के जाने के बाद एक अन्य सज्जन पधारे। मकान किराये पर ले लिया। उस समय मुहल्ले वालों ने बताया—श्रीमान् जी इस मकान में एक किरायेदार पहले भी आए थे, पर वह इन-इन परिस्थितियों में मकान छोड़ गए। कह नहीं सकते आपका मकान हितकर होगा अथवा नहीं, पर सुना यह जाता है कि इस मकान का मालिक जो चाय पीने का बेहद शौकीन था, शराब और माँस तो उसके लिए जल पीने की तरह थे। सदैव दुर्गंधित शरीर वाले उस दानवाकृति मकान मालिक ने शरीर छोड़ा, तब से इस मकान में कोई टिका नहीं। कहते हैं उसकी आत्मा इसी मकान में चक्कर काटती है। कोई और मनुष्य उस घर में रहे यह उससे बर्दाश्त नहीं होता। उसके रिश्तेदार चाहते हैं कि मकान का कुछ किराया मिले, पर यह अदृश्य भटकती आत्मा किरायेदार को रहने नहीं देती।

नम्बर दो का यह किरायेदार यह सब सुनकर जोर से हँसा और बोला—" लगता है तुम आजकल हिंदुस्तानी दर्शन (फिलॉसफी) पढ़ रहे हो। हिंदू लोग ही मानते हैं कि मरने के बाद जीव जिंदा रहता है। तुम्हें मालूम नहीं हम पश्चिम वाले इस पर कोई विश्वास नहीं करते और निर्भीक जीवन जीते हैं। आज के विज्ञानवादी युग में तुम्हारी ये बातें तो उस बच्चे जैसी लगती हैं, जिसे उसकी नानी ने किसी कहानी में डरा दिया हो।"

बात वहीं समाप्त हो गई। मकान उन्होंने ले लिया और उसी दिन सामान लाकर जम भी गए। इसे अंतर्चेतना की मजबूती कहा जाए अथवा एक प्रकट सत्य की, उन सज्जन की पहली और दूसरी रात दो रातें तो अच्छी तरह गुजर गईं। किंतु तीसरी रात जैसे ही कोई एक बजने को हुआ कि उन्हें किसी ने कंधे झकझोरकर जगा दिया। इतनी तेजी से जगाया गया था कि नींद तड़फड़ा कर टूट गई। उन्होंने देखा एक बहुत ही भारी-भरकम शरीर का व्यक्ति सामने खड़ा है। उसकी आँखें हरी थीं और शरीर काली छाया जैसा। देखते ही पहला हाथ बिजली की बत्ती के स्विच पर गया। बत्ती जलने पर उन्होंने चारों तरफ नजर दौड़ाई, दिखाई तो कोई नहीं दिया पर उनका अविश्वासी मन इतना डर गया कि अच्छी तरह बोलना कठिन था। जिन्हें पहले ही अतींद्रिय  अस्तित्व पर विश्वास होता है वे यह जानते हैं कि उच्छिष्ट आत्माएँ अपने आप अभिशापित होती हैं, वे दूसरों का कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं ? जिनमें कुछ ऐसी क्षमता होती भी है वह देव-श्रेणियाँ होती हैं और अहित सोचने की अपेक्षा मनुष्य का हित ही करती हैं। शंकालु मन, उक्त सज्जन को इन सब बातों का कोई पता न था, सो उस रौद्र-कल्पना ने उन्हें इतना डरा दिया कि वे भी शेष रात सो नहीं सके। दूसरे दिन वे भी वहाँ से सादर विदा होकर दूसरे घर में चले गए।

यह घटना सिडनी पुलिस हैड क्वार्टर के रिकार्ड से उद्धृत की जा रही है, जिसको यह विलक्षण रिपोर्ट इस तीसरे व्यक्ति से प्राप्त हुई। इस बार माइकल कुक नामक एक सज्जन आए और यही मकान किराए पर लेकर रहने लगे। उनसे किसी ने कुछ कहा भी नहीं। उन्हें या उनके परिवार को कभी इस बात की कल्पना भी नहीं थी, उनका इस पर अपना कोई विश्वास भी नहीं था किंतु एक रात की बात है कि कोई आहट पाकर उनकी कन्या जग गई और नेत्र खोलते ही जो भयंकरता, उसने देखी सो आँखें खुली की खुली रह गईं। अच्छी स्वस्थ कन्या की आँखों ने झपकना बंद कर दिया और कोई भी चिकित्सक उसे ठीक न कर सका। उस आकृति का जो भी दृश्य इस कन्या ने बताया वह पहले दो किरायेदारों के विवरण से सौ फीसदी मिलता जुलता था।

उसके बाद एक दिन श्रीमान् कुक के साथ भी ठीक वैसी ही घटना घटित हुई। श्री कुक उसे देखकर न केवल चीख उठे, वरन् रोने भी लगे। उन्होंने उसे बिस्तर उठाकर फेंकते हुए देखा। एक दिन उन्होंने पूरी केतली चाय गर्मकर रखी थी। किसी काम से वे थोड़ा बाहर निकलकर आए, दुबारा जब फिर चाय पीने के लिए आए, तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि वही हरी आँखों वाला वीभत्स छाया पुरुष केतली में ही मुँह लगाए चाय पी रहा है। कहीं एक बूँद चाय गिरी नहीं, फिर चाय का इस प्रकार देखते-देखते वायुभूत हो जाना, एक बहुत रोमाँचक घटना थी। उन्होंने कई बार उसे सेवकों की तरह काम करते हुए भी देखा और कई बार स्वयं बाहर खुला हुआ रखा सामान उठाकर खाते हुए भी देखा। श्री कुक ने अंततः सपरिवार मकान छोड़ दिया, पर चलते-चलते उसकी रिपोर्ट हैड-क्वार्टर में लिखा गए ताकि पीछे और कोई उसमें आकर तंग न हो।

पुलिस ने जाँच का निश्चय किया। एक पुलिस कांस्टेबल जाँच के लिए भेजा गया। सिपाही ने घूम-घूम कर पूरा बंगला देखा, पर वहाँ उसे न कोई आकृति दिखी न कोई छाया। सिपाही ने कुक को कई बार कोसा और कहा—"लोगों को पुलिस को तंग करने में मजा सा आता है।" उसने मकान में ताला बंद किया और थाने लौटकर पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट को बताया—"वहाँ कुछ भी तो नहीं है।" दूसरे दिन ऑफिसर ने उसी सिपाही को फिर भेजा, इस बार सिपाही ताला खोलकर घर में प्रविष्ट हुआ तो उसने जो कुछ देखा, उससे उसके रोंगटे खड़े हो गए। कमरों का सारा सामान अस्त-व्यस्त पटका पड़ा था। करीने से लगी कुर्सी-मेज इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। रसोई घर में उसे केतली में चाय मिली, जिसे देखने से लगता था किसी ने अभी हाल चाय बनाकर पी है। मकान में चारों तरफ ताला बंदी थी। कोई आने जाने का रास्ता नहीं, फिर अंदर कौन आया, किसने चाय बनाई? अभी वह इन्हीं विचारों में खोया पीछे को मुड़ा ही था कि ठीक वही आकृति उसके सामने खड़ी थी। पुलिस कांस्टेबल के शरीर से पसीना फूट पड़ा। बड़ी मुश्किल से बेचारे ने भागकर दरवाजे बंद किए, ताला लगाया और थाने लौट आया। थाने में सही घटना लिखाकर घर लौटा तो डर के मारे उसे बुखार आ गया। वह पन्द्रह दिन बाद ठीक हुआ।

इसके बाद सीनीयर पुलिस अफसरों तथा सी.आई.डी. कर्मचारियों ने भी छान-बीन की। कई ने तो वह आकृति ज्यों की त्यों देखी भी, पर जिन्होंने उसे देखा भी नहीं, उन्होंने भी मकान का सामान कई बार अदल-बदलकर रखकर जाँच की। बाहर पहरा होने के बावजूद सामान किस प्रकार तितर-बितर हो जाता है यह रहस्य कोई भी सुलझा न सका। मनोवैज्ञानिक तथा पत्रकारों ने भी न्यू कैसल में रह रहे माइकेल कुक से बातचीत की तथा मौके पर जाकर जाँच भी की। सारे तथ्य सही पाए और सबने एक स्वर से यह माना कि कोई ऐसी सत्ता सचमुच है, जो नितांत स्थूल न होकर भी समर्थ मनुष्य जैसे काम कर सकने में सक्षम है। यदि यह सत्य है तो आत्मा के अस्तित्व की, मानवेत्तर जीवन, परलोक और पुनर्जन्म की भारतीय मान्यताएँ निराधार नहीं कही जानी चाहिए, वरन् उस मान्यता के महत्त्वपूर्ण पहलुओं का वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाना चाहिए। जब तक विज्ञान इस तरह के रहस्यों का उत्तर नहीं देता, तब तक अतींद्रिय अस्तित्व से इनकार करने का कोई कारण नहीं होना चाहिये।

कहते हैं इस मकान में पहले एक वृद्धा रहती थी। जो घर के अंदर किसी से जोर-जोर से बातचीत किया करती थी। कभी-कभी उसका स्वर इतना रोबीला और आदेशपूर्ण होता था, मानों वह अपने किसी नौकर से काम करा रही हो। इतना होने पर भी उस व्यक्ति को किसी ने कभी नहीं देखा। कभी किसी ने वृद्धा से पूछा—अजी आप किससे बातें किया करती हैं तो वह हँसकर इतना ही उत्तर देती—बेटा ! जिससे मैं बात कर सकती हूँ तुम्हें तो उसको देखने की हिम्मत भी नहीं हो सकती। वृद्धा के आत्मबल पर लोग आश्चर्य करते और कहा करते कि जिसके कारण दूसरे लोग मकान में रह भी नहीं पाते,उसे बुढ़िया कैसे नाच नचाती है। वह इन दिनों बीमारी के कारण अस्पताल में थी, तब अन्य किरायेदार आए और यह बात असली रूप में सामने आई। घटना सामने आ जाने पर भी अव्यक्त-सी है और उसके गर्भ में सैकड़ों यथार्थ छिपे हुए हैं जिन्हें जाने-समझे बिना मनुष्य जीवन की यथार्थता को समझ पाना कठिन है।


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