प्रकाश प्रवेश की भूमिका और परमात्मा के दर्शन

August 1971

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ऊष्मा (हीट) ऊर्जा, प्लाज्मा तथा विद्युत ऐसे हैं जिनका कोई स्वरूप नहीं है फिर भी वैज्ञानिक उनके प्रभाव के कारण उनका अस्तित्व स्वीकार करते हैं यही नहीं यह शक्तियाँ हमारे जीवन के हर क्षेत्र में क्रियाशील भी हो गई हैं। हमारे लिये ताप, ऊर्जा, प्लाज्मा और विद्युत साधारण सी वस्तुयें हो गई हैं उनकी उपस्थिति सभी अनुभव करते हैं पर उन्हें आज तक कोई खुली आँखों देख नहीं सका।

अब जैसे जैसे प्रकाश के अन्य विलक्षण स्रोतों की जानकारी होती जाती है वैसे-वैसे जीवन तत्व और प्रकाश में विद्यमान विद्युत चुम्बकीय गुणों की एकता का पता चलता जाता है। “क्वासार” प्रकाश ने इस दिशा में गजब की हलचल पैदा की है। वैज्ञानिक जहाँ विभ्रमिक हो रहे हैं वहाँ अब जीवन तत्व के बारे में नई धारणाएं भी बन रहीं हैं “एवप्लाजन इन एस्ट्रानामी के लेखक ग्राहम बेरी ने “साइंस टूडे” के 1967 के अंग में द्वितीय पैराग्राफ में स्पष्ट लिखा है-सुन्दर शरीर वास्तव में क्वासार है 40 वर्ष पूर्व आकाश गंगा की खोज होने पर इन “क्वासार किरणों” ने ज्योतिर्विदों में सबसे बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है। आकाश में नीला तारा पदार्थ वैतन्तुक तारा पुँज तथा एक्सरे स्रोत भी पाये जाते हैं जो संसार में एक सर्वभेदी और सर्वशक्तिमान तत्व की उपस्थिति प्रमाणित करते हैं। साथ ही क्वासार तथा नील तारा पदार्थ एक ऐसे दीर्घ इच्छित पदार्थ माने जाते हैं, जो संसार के सुदूर भागों को भी प्रकाशित कर दें (सर्वव्यापकता का गुण) और जिससे हम देख सकें कि वहाँ क्या हो रहा है यहाँ तक कि बहुत पहले वहाँ क्या हो रहा था वह भी देख सकते हैं” यह त्रिकालज्ञता तथा अनादि होने के गुण हैं और वह भारतीय दर्शन के ईश्वरवाद के नियम की बड़ी समीपता से पुष्टि करते हैं।

ऐतरेयोपनिषद में देवताओं की अन्न और शरीर की उत्पत्ति सम्बन्धी बड़ी ही महत्वपूर्ण आख्यायिका आती है। इसमें बताया गया है कि जब शरीर में सभी देवताओं के निवास की व्यवस्था हो गई तब परमात्मा ने विचार किया कि-पूर्ति में व्यस्त मनुष्य शरीर कहीं देवताओं की इच्छाओं में द्वंद्व का अखाड़ा न बन जो अतः उसने शरीर में अपनी उपस्थिति अनिवार्य समझी तब स एतमेव सीमानं विदार्येतया द्वारा प्रापद्यत’ उसने मूर्धा को चीरकर स्वयं प्रवेश किया इस तरह उसने ब्रह्मांड में उपस्थित रहकर भी मूर्धा में वास किया।

अभी तक सहस्रार में ब्रह्म को प्राप्त करने की विद्या योगीजन ही जानते थे पर अब विज्ञान भी इस तथ्य की पुष्टि करता है।

मनुष्य की मृत्यु तब तक क्लि निकल मृत्यु मानी जाती है पूर्ण नहीं जब तक कि मस्तिष्क के ग्रे मैटर (भूरी राख की शक्ल का पदार्थ) वाले कोश नष्ट नहीं होते। यह पदार्थ एक विलक्षण आश्चर्य है मस्तिष्क में उनमें सर्वव्यापकता भरी हुई है यह विज्ञान भी जान गया है। यदि भारतीय दर्शन के अनुसार यहाँ ईश्वरीय प्रकाश की उपस्थिति है तो भूरी राख की उपस्थिति जीवन के साम्य प्रकाश-स्रोतों में भी होनी चाहिए। यह बात भी अब प्रकाश में आ गई थी। उपरोक्त लेख के लेखक ने उसी लेख में लिखा है कि सभी नक्षत्र हाइड्रोजन बादल से भरे हुए है जो आकर्षण शक्ति से गैस को थोड़े-थोड़े घेरे में गाढ़ा कर जाते हैं जब गैस के परमाणु निकट आते हैं टकराते और उनके टुकड़े गर्मी पैदा करते हैं तब इन बादलों के भीतरी भाग का तापमान 5 लाख डिग्री फारेनहाइट तक हो जाता है। समाधि अवस्था के परीक्षण इस बात के साक्षी है कि उस समय मस्तिष्क का शिखा वाला भाग बहुत अधिक गर्म हो उठता है क्योंकि उस समय विचार क्षेत्र में अत्यधिक क्रियाशीलता से वहाँ के कोशों में असाधारण गर्मी उत्पन्न हो जाती है। जब व्यष्टि अग्नि भीतरी भाग में सुलग जाती है तब हाइड्रोजन ईंधन राख के रूप में बदल जाता है। मस्तिष्क में शून्य स्थान (वेन्ट्रिकल्स) के द्रव्यमान के फलस्वरूप यह क्रिया संपन्न होती है और उससे असाधारण शक्ति का विस्तार होता है। योगी सिद्धान्त इस शक्ति को पाकर ही ईश्वरीय क्षमताओं से ओत-प्रोत हो जाते हैं। हाइड्रोजन का राख में बदलना नक्षत्रों को अधिकाँश जीवन देना है। हाइड्रोजन समाप्त हो जाने पर नक्षत्र फैलने लगते हैं और वे लाल शैतान की तरह हो जाते हैं। सूर्य की 55 खरब वर्ष की आयु का अनुमान इसी बात से किया जाता है। योगीजन भी इसी प्रकार मस्तिष्कीय द्रव्य और बौद्धिक क्षमता के आधार पर किसी भी व्यक्ति के जीवन मरण का हाल किताब में लिखें अक्षरों की भाँति पढ़ लेते हैं यह एक ईश्वरीय गुण है जो सृष्टि में सर्वत्र प्रकाश के रूप में व्याप्त हैं।

वैज्ञानिक गवेषणा के लिए अभी प्रकाश तत्व का विशाल क्षेत्र वैज्ञानिकों के सामने परीक्षण के लिए पड़ा है। आये दिन नये-नये ज्योति, स्रोतों का पता चलता जा रहा हैं। कौन जाने किसी दिन किसी ऐसे तारे की, प्रकाश स्त्रोत की खोज हो जाये तो पूरी तरह ईश्वरीय गुणों से ओत-प्रोत हों, भारतीय तत्वदर्शियों ने अपनी योग दृष्टि से उसका पता बहुत पहले ही लगा दिया है और लिखा है-

ऋतञच सत्यच्चाभीद्धस्तपसोडध्य जायत। ततोवात्य जायत। ततः समुद्रोअर्गाव समुद्रोदर्रावदिधि संवत्सरो आजयत अहो-रात्राणी विद्धविश्वस्यमिषतो वशी सूर्या चन्द्रमसो धाता यथा पूर्वम कल्पयत्। दिवच्च पृथिवीच्चन्त रिक्षमथोस्वः।

अर्थात् सर्वत्र प्रदीप्त तपस् शक्ति के अनंत स्रोत) से ऋत (क्वान्त क्षेत्रों का स्पन्दन) और सत्य (धन व ऋण आवेश) उत्पन्न हुआ उसे समूचे विश्व को बचाने वाला द्रव्य उत्पन्न हुआ। यह प्रदीप्त तत्व बहकर तोर, अहोरात्र और संवत्सर का निर्माण हुआ उसी से विधाता ने सूर्य चन्द्रमा अन्तरिक्ष, आकाश और पृथ्वी की रचना की।

इस तरह यह स्पष्ट है कि भारतीयों ने परमात्मा की जो कल्पना की है वह कोई कल्पना नहीं वरन् एक दर्शन है आज नहीं तो कल विज्ञान उसी मूल बिन्दु पर पहुँचेगा भले ही उसके लिए कुछ देर क्यों न लगे।


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