ध्रुव-प्रभा द्वारा देवयान मार्ग और स्वर्गारोहण की पुष्टि

August 1971

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महर्षि चित्र ने यज्ञ-आयोजित किया। ऋत्विक् के लिये उन्होंने महर्षि उदालक को आमंत्रित किया था किन्तु उदालक कुछ समय के लिये समाधि लेकर अन्तरिक्ष के कुछ रहस्यों का अध्ययन करना चाहते थे इसलिये उन्होंने अपने पुत्र श्वेतकेतु को यज्ञ के ऋत्विक् के रूप में भेज दिया, योग्यता की परख किये बिना महर्षि चित्र उन्हें यज्ञ का आचार्य वरण करने में हिचकिचाये सो उन्होंने श्वेतकेतु से प्रश्न किया-

‘सवृत लोके यस्मित्राधास्य हो बोचदध्वा लोके वास्यसीति’।

अर्थात्-क्या इस लोक में कोई आवरण वाला ऐसा स्थान है जहाँ तुम मेरे प्राणों को स्थिर कर सकोगे अथवा कोई ऐसा आवरण रहित अद्भुत स्थान है जहाँ पहुँचा कर मुझे यज्ञ के फलस्वरूप स्वर्ग का भागी बनाओगे।

श्वेतकेतु ने इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थता प्रकट की। वे लौटकर अपने पिता के पास गये और उनसे वही प्रश्न पूछा जो उनसे (श्वेतकेतु से) महर्षि चित्र ने पूछा था। महर्षि उद्दालक बड़े सूक्ष्मदर्शी थे उन्होंने सारी स्थिति जानली कि चित्र ने ऐसा प्रश्न क्यों पूछा-वे स्वयं इसी रहस्य को जानने के लिए अविकल्प समाधि (जिस समाधि में चिन्तन, मनन, भावानुभूति चलती रहती है उसे सविकल्प समाधि कहते हैं) लेना चाहते थे। उन्होंने अनुभव किया कि महर्षि चित्र यह रहस्य पहले से ही जानते हैं सो पिता पुत्र दोनों महर्षि चित्र के पास गये और उनके प्रश्न का उत्तर सविनय उन्हीं से बताने का आग्रह करने लगे। उनकी जिज्ञासा को समझकर महर्षि चित्र ने उन्हें मृत्यु की अवस्था और देवयान मार्ग द्वारा स्वर्ग प्राप्ति का जो ज्ञान दिया है कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् का वह सारा का सारा ही आख्यान महान् वैज्ञानिक सत्यों ओर आश्चर्यों से ओत-प्रोत है। उससे यह पता चलता है कि भारतीय तत्व-दृष्टा न केवल प्राण और जीवन के रहस्यों से विज्ञ थे वरन् उन्हें सूक्ष्म से सूक्ष्म भौगोलिक ओर खगोल विद्या के रहस्यों का भी ज्ञान था। आज जब उस ज्ञान को विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं तो मानना पड़ता है कि भारतीय साधनायें किसी भी भौतिक विज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण हैं और जीवन से सम्बन्धित समस्त जिज्ञासाओं और समस्याओं का वही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है।

महर्षि चित्र उद्दालक और श्वेतकेतु को बताते हैं- आर्य! यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म करने वाले लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति जिस तरह होती है वह मैं बताता हूँ, प्राणों के योग से चन्द्रमा को बल मिलता है। पर कृष्णा पक्ष में तथा दक्षिणायन सूर्यगति के समय स्वर्ग का द्वार अवरुद्ध रहता है इसलिये योगीजन उस समय अपने प्राणों को अपने ध्यान में ही स्थिर कर लेते हैं। अपनी निष्काम भावना को दृढ़ करके वे देवयान मार्ग में पर्दापण करते हैं, और प्रथम अग्नि लोक को प्राप्त होते हैं, फिर वायुलोक और वहाँ से सूर्य लोक को गमन करते हैं। सूर्य लोक से वरुण लोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक में पहुँचते हुए वे स्वर्ग लोक के अधिकारी बनते है-

कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् की इस आख्यायिका में आगे के वर्णन में बड़े विस्तार पूर्वक देवयान मार्ग की अनुभूतियों का वर्ण हैं जीवात्मा को वहाँ से जैसे चित्र दिखाई देते हैं जैसी-जैसी ध्वनियाँ और गन्ध की अनुभूति होती है उस सब का बड़ा ही अलंकारिक और मनोरम वर्णन किया गया है। पढ़ने से ऐसा लगता है जैसे कोई सम्बन्ध न हो पर जब दर्शन और आज के विज्ञान की तुला पर उसे तौलते और विश्लेषण करते हैं तब आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि इतनी विराट् अनुभूति ऋषियों को कैसे सम्भव हो सकी। विज्ञान अब उनकी अनुभूतियों को शतप्रतिशत सत्य प्रमाणित कर रहा है। यद्यपि अभी विज्ञान अपूर्णावस्था में है तथापि अभी तक उसने जो भी निष्कर्ष निकाले हैं वह भारतीय तत्वदर्शन से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ पाते।

वैज्ञानिकों ने यह मान लिया है कि पृथ्वी स्वयं की चुम्बक है, उत्तरी ध्रुव, उत्तरी सिरा और दक्षिणी ध्रुव, दक्षिणी सिरा दोनों उसके दो शक्तिशाली साँद्रित स्थान है। पृथ्वी ही नहीं सूर्य भी चुम्बक की तरह व्यवहृत होता है, और यदि यहाँ पर कहा जाये कि मनुष्य या उसकी जीवन-शक्ति भी एक प्रकार का विद्युत चुम्बकीय पदार्थ ही है। सूर्य के 11 वर्षीय चक्र में जब सूर्य कलेको (सन-स्पाट्स) की तीव्रता होती है और पृथ्वी पर चुम्बकीय औषधियां आ जाती हैं तो मनुष्य जीवन उससे बुरी तरह प्रभावित होता है। डॉ. क्रिट्ज आदि वैज्ञानिकों ने अनेक परीक्षणों से यह सिद्ध किया है कि विद्युत-चुम्बकीय औषधियों के समय जन्तु-जगत अपना सारा मानसिक सन्तुलन खो देता है जो इस बात का प्रतीक है कि सूर्य के जीवन या विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में हलचल के साथ पृथ्वी के जीवन या विद्या-चुम्बकीय क्षेत्र में हलचल होना अवश्यम्भावी है।

कुण्डलिनी विज्ञान के अंतर्गत सुषुम्ना शीर्षक को अत्यधिक प्रचण्ड क्षमता वाला चुम्बक माना गया है जिसका उत्तरी सिरा मस्तिष्क स्थित “सहस्रार” है और दक्षिणी गुदा स्थित मूलाधार चक्र है नाभि को सूर्य-चक्र स्थान माना है मूलाधार पृथ्वी का प्रतिनिधि, जो स्थिति ब्रह्मांड में सूर्य के साथ पृथ्वी की अर्थात् 23 डिग्री झुकी हुई है वही नाभि के साथ मूलाधार चक्र की। मूलाधार चक्र स्थित त्रिकोण परमाणु ही “नाभि” से प्राप्त ऊर्जा को विद्युत चुम्बकीय रूप “प्रेरणा” या जीवन शक्ति के रूप में बदलता रहता है। यह ठीक सूर्य द्वारा पृथ्वी में जीवन-विकास की अवस्था के समान ही है। जब तक मूलाधार स्थित काम या इच्छा शक्ति से प्रेम बना रहता है मनुष्य अधोगामी स्थिति में रहता है पर यदि उसी प्राण-शक्ति को विभिन्न योग साधनाओं द्वारा ऊर्ध्वमुखी प्रक्षालित कर लिया जाता है तो सुषुम्ना प्रवाह के अन्दर के आग्नेय कर उत्तेजित और क्रियाशील हो उठते हैं, जिससे सहस्रार के जागरण की क्रिया सम्पन्न होती है। यह अवस्था ईश्वरीय दिव्य शक्तियों से संपर्क और अनुभूति एवं बौद्धिक एवं आत्मिक प्रतिभा के विकास की होती है साथ ही ऊर्ध्वमुखी लोकों की प्राप्ति का साधन भी।

मानवीय प्राण-शक्ति जो कि एक विद्युत-चुम्बकीय शक्ति होती है उसे यदि प्राणायाम ओर योग साधनाओं द्वारा नियन्त्रित कर लिया जाये तो सूर्य की उत्तरायण अवस्था में जबकि पृथ्वी का उत्तरी, ध्रुव सक्रिय होता है वहाँ से जाने वाली एक तीव्र-विद्युतीय-चुंबक रेखा द्वारा उसे ऊर्ध्व लोकों में बहाया जा सकता है। उत्तरी ध्रुव से खगोल के किन्हीं विशेष ग्रह वा ज्योति पिण्डों का सम्बन्ध होता है इस बात से अब विज्ञान भी सहमत है। यह कथा वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित असंदिग्ध सत्व है इस बात की पुष्टि के लिए दि ग्रीलियर-न्यूयार्क टोरोंटो द्वारा प्रकाशित पुस्तक दि बुक ऑफ पापुलर साइंस का 7 वाँ भाग पढ़ना चाहिए। इस पुस्तक में चुम्बकीय क्षेत्र और सूर्य के आग्नेय कारणों द्वारा ध्रुवों में एक ध्रुव-प्रभा के निर्माण का रोमाँचकारी वर्णन दिया हुआ है। इन ध्रुव प्रभाओं (अरोरल-लाइट) के बारे में आज तक विज्ञान जितना जान सका है वहां कौषतकि ब्राह्मणोपनिषद् के महान् ज्ञान की पुष्टि करता है।

इस पुस्तक में बताया गया है कि चुम्बकीय विक्षोभ पृथ्वी के दोनों ध्रुवों पर प्रचण्ड होने के कारण पृथ्वी के उस क्षेत्र में न केवल आकस्मिक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं वरन् आविष्ट कारणों की उपस्थिति में विचित्र-विचित्र प्रकार के चकाचौंध उत्पन्न करने वाले प्रकाश भी उत्पन्न करते हैं। इस प्रकाश प्रभा को उत्तर में “अरोरा बोरीयेलिस” तथा दक्षिण में “अरोरा आस्ट्रेलिया” कहते हैं। इसका उद्गम ठीक ध्रुव प्रदेश में होता है और उत्पत्ति का स्रोत भी, सूर्य व चन्द्रमा माना गया है। मन को भारतीय दर्शन में-”चन्द्रमा मनोसाउजायत “मन चन्द्रमा है और प्राण को सूर्य का आग्नेय स्फुल्लिंग कहा है इससे प्रतीत होता है कि जीवन शक्ति और ध्रुव-प्रभा की रासायनिक बनावट में कोई बड़ा अन्तर नहीं है।

ध्रुव प्रभा आकृति और चमक में एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न देखी गई है। अचानक ही वे स्वर्ग में-सुदूर अन्तरिक्ष में चमकदार प्रकाश फैला देती है। इनकी गति आश्चर्यजनक और शीघ्र चलित होती हैं जिससे आकृति और सघनता में अद्भुत परिवर्तन देखे गये हैं यदि इस प्राण प्रवाह में बहते हुए किसी जीव को कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में वर्णित विराट् आकाश गंगाओं के नदी रूप में, निहारिका के बादल रूप में तथा अनेक ग्रह-नक्षत्रों के दृश्य विलक्षण रूप से दिखाई दिये हों तो आश्चर्य क्या ? उत्तरायण मार्ग को स्वर्गारोहण और दक्षिणायन को अम्ध लोकों में ले जाने वाला कहा है उसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि दक्षिणी ध्रुव की प्रभायें कुछ ही दूर जाकर अन्धकार मय हो गई देखी गई है। जबकि उत्तरी-ध्रुव की प्रभायें जितनी ऊपर बढ़ती है। और भी दिव्य होती गई हैं।

गहन अध्ययन और अन्वेषणों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ध्रुव प्रभा की उत्पत्ति का कारण सूर्य पर घटित हलचल ही हैं। यह ध्रुव प्रभायें यद्यपि कभी-कभी दिखाई देती हैं। स्पेन में 1å वर्ष में एक बार, उत्तरी फ्राँस में 1 वर्ष में 5 बार, लन्दन में 1 वर्ष में 6 बार, उत्तरी आयरलैण्ड में 1 वर्ष में 3å बार और उत्तरी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, कैनेडा तथा फेरो आयलैण्ड्रा में क्रमशः 6å, 8å और 1åå बार दिखाई देती है। यह ध्रुव प्रीयें वह होती है जो खुली आँख से देखी जा सकती हैं पर पीछे डॉ. बी.एम. स्लीफर ने लावेल वेधशाला में लगे स्पेक्ट्रम परीक्षण द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि ध्रुव प्रभायें मन्द रूप में हमेशा पर तो यह सतत् अविच्छिन्न रूप से पाई जाती है। साँप की तरह से लहराती हुई चलने वाली इन प्रकाश लहरियों के बारे में विज्ञान जितना ही खोज करता जा रहा है। उतने ही आश्चर्य जनक परिणाम सामने आ रहें हैं। कदाचित इन खोजों में भारतीय तत्व दर्शन भी सम्मिलित कर लिया जाता तो न केवल आध्यात्मिक मान्यताओं को बल मिलता वरन् मनुष्य-जीवन के अनेक अप्रकट रहस्यों का भी पता लगाना सम्भव हो जाता।

मन्द प्रकाश पुंज यद्यपि विस्तार में कम होते हैं पर ठीक ध्रुव पर उनमें स्थायित्व के साथ-साथ चमक और चौंध भी बहुत तीव्र होती है। उसकी शक्ति के आगे सामान्य यन्त्र भी काम नहीं कर पाते एक बार उस क्षेत्र में एक जहाज जा रहा था उस चुम्बकीय शक्ति की प्रचण्डता के कारण जहान में लगी लोहे की कीलें निकल-निकल कर भागी और जहाज वहीं चूर-चूर हो गया तब से उधर जाने वाले जहाजों में लकड़ी की कीलें ठोंकी जाती है। इसी प्रकार इस विद्युत चुम्बकीय शक्ति में “प्राणा-तत्व” को प्रवाहित कर जीवात्मा को ऊर्ध्वगामी बनाने स्वर्ग पहुँचाने की बात सत्य है। उसके लिए तो पितामह भीष्म को शैय्या पर लेटे रहना पड़ा था। बाणों में लेटने का अर्थ उनकी इस निष्ठा से था कि कहीं सूर्य की गति उत्तरायण होने से पूर्व ही उनका मन किन्हीं इच्छाओं में भ्रमित न हो जायें। इच्छायें जीवनी-शक्ति का विक्षोभ होती हैं इसलिये जब तक मन निष्काम न हो वह प्राणों को संकल्प किसी विशेष दिशा में नहीं ले जा सकता इसलिए मृत्यु के समय प्राणों को शुद्ध करने की क्रियायें पहले से ही निर्धारित कर दी गई हैं गीता में उनका उल्लेख भी है।

ध्रुव-प्रभा श्वेत दूधिया रंग की होती है। बादलों के समान दीखने वाले प्रकाश को “सीरस” नाम दिया गया है। बादलों में और इनमें उन्तर ज्ञान करना कठिन है कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में भी इन्हें बादल ही कहा गया है।

ध्रुव-प्रभा फैलती और सिकुड़ती रहती है जो कि इलेक्ट्रानिक प्रवाह होती है। प्रकाश इसमें चापों के रूप में बहता है। और उसका वेग बहुत अधिक होता है। इसमें तीव्र गतिमान परिवर्तन भी वैज्ञानिकों ने नोट किये हैं। शेट लैण्ड आइसल्स वैज्ञानिक इन्हें मेरी डासरस कहते हैं कैनेडा वाले मेरीयोनेट। उनका विश्वास है कि इन प्रकाश-पुंजों के प्रवाह में अद्भुत ईश्वरीय नियम आसीन हो सकते हैं। इनमें श्वेत, पीत और गुलाबी रंग की प्रभाओं के अतिरिक्त “शब्दों” के कम्पन भी अंकित किये गये हैं यह रंगीन किरणों कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में वर्णित विभिन्न प्रकार के दृश्य और श्रव्य की अनुभूति की समानार्थी उपलब्धियाँ हैं। हाइड्रोजन कणों की उपस्थिति से अनिवार्य सूर्य-हस्तक्षेप का पता चलता है।

समाधिवस्था में सहस्रार का विद्युत-चुम्बकीय सम्बन्ध इस सूक्ष्म प्रकाश प्रभा व प्रवाह से जोड़कर विभिन्न ध्वनियों की विभिन्न लोक-लोकान्तरों की अनुभूतियाँ होती है यह ठीक आधुनिक रेडियो विज्ञान के समान ही है कालान्तर में वैज्ञानिक इन्हीं तथ्यों पर आने वाले और मनुष्य जीवन के विकास और खगोल सम्बन्धी जानकारियां में इसका वैज्ञानिक प्रयोग करेंगे तो यह निश्चित हैं कि जीवन से सम्बन्धित विज्ञान में तीव्र परिवर्तन करने पड़ सकते हैं।


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