पुरोहित की पात्रता

August 1971

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इक्ष्वाकु वंश की परम्परा के अनुसार ही सम्राट रथ प्रोष्ट असमाति भी धर्म परायण, गुण एवं विद्वता का सम्मान करने वाले थे। गोपायन उन दिनों महान् विद्वान् पण्डित और मन्त्र दृष्टा थे उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर महाराज असमाति ने उनके छोटे भाई सुवन्धु को अपना राज पुरोहित बनाया। किन्तु शीघ्र ही यह बात मालूम पड़ गई कि सुवन्धु भाई होने पर भी गोपायन के समान विद्वान् नहीं है।

प्रजा के सुख-समुन्नति की कोई योजना बनानी होती तो, सुरक्षा और समृद्धि की कोई बात आती तो, न्याय के मामले में भी पुरोहित की जो क्षमतायें होनी चाहिये थी, सुबन्धु में नहीं थी फलतः उनका सम्राट से सदैव मनोमालिन्य बना रहता। असमाति सोचते सम्भव है स्वाध्याय, तप और अनुभव सुवन्धु में यथार्थ योग्यता लादें किन्तु वैसा कुछ देखने में नहीं आया तब उन्होंने सुवन्धु को कुद्ध होकर अपने पद से हटा दिया और उनके स्थान पर किरात तथा आकुली नामक दो असुर तान्त्रिकों को अपना पुरोहित नियुक्त कर दिया।

किरात और आकुल बड़े समझदार और मायावी थे वे जानते थे कि गोपायन अपने भाई का यह अपमान सहन नहीं करेंगे और एक न एक दिन निश्चित ही उसमें जिस योग्यता और सिद्धि का अभाव है उसे पूर्ण कर देंगे। यदि ऐसा हुआ तो सुवन्धु पुनः पुरोहित बनाया जा सकता है। वे इस अनायास प्राप्त सौभाग्य को हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे सो एक दिन दोनों ने तान्त्रिक अभिचार किया। योगासीन होकर उन्होंने मरण तन्त्र का प्रयोग किया। विद्युत की सी तेज लपलपाती हुई शक्ति धारा निकली और सुबन्धु पर जा टूटी। देखते ही देखते सुबन्धु के प्राण शरीर छोड़ गये।

तपस्वी गोपायन को भाई की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने अपने प्रज्ञा-चक्षुओं द्वारा यह समझ लिया कि यह सारा कृत्य सिवाय किरात और आकुली के किसी और का हो नहीं सकता। भाई के अपमान से वे पहले ही दुःखी थे, षड़यन्त्र पूर्वक वध से उनका अन्तःकरण और भी मर्माहत हो उठा।

गोपायन स्वयं कुत्याघात कर सकते थे पर आसुरी शक्तियों पर उनका विश्वास नहीं था। सम्राट असमाति भी उनकी शक्ति उनकी सिद्धियों का भय मानते थे पर स्वयं गोपायन इस पक्ष में नहीं थे कि शक्ति पाकर अहंकार प्रदर्शन किया जाये और लोगों को उसका भय दिलाया जाये संसार का कर्माध्यक्ष भगवान् है। अच्छे बुरे कर्म का फल जब स्वतः देता है तब मनुष्य उसमें बाधक क्यों बने? गोपायन दक्षिण मार्गी सिद्ध और सन्त थे सो प्रतिशोध की तो कल्पना भी उनके मस्तिष्क में नहीं आई। तो भी पुरोहित वंश की गरिमा को तो अक्षुण्ण रखना ही था, इसलिये उन्होंने निश्चय किया अपने मृत भाई के प्राणों को वापस लाने का और वे इसी प्रयोग में संलग्न हो गये।

अपने सूक्ष्म शरीर और मन्त्र बल से उन्होंने अभिचार मृत देह के टूटे अंगों को ठीक किया और फिर वरुण देवता की उपासना करने लगे-हे वरुण देव! तुम एक ही दृष्टि में समस्त सृष्टि को देखने वाले हो, मुझे वहाँ तक पहुंचाओ जहाँ मेरे भाई का मन है। यदि उसका मन आकाश के छोर में है, भूत या भविष्य में है तो भी वहाँ तक मेरे मन को पहुंचाओ। वरुण देव प्रसन्न हुये। महर्षि गोपयन के मन का उन्होंने सुबन्धु के मन से मिलाप करा दिया। गोपायन भगवान् इन्द्र की कृपा और प्रेरणा से मृत भाई के प्राणों को वापस ले आये और मृतक देह में उन्हें स्थिर कर दिया। सुबन्धु जी उठे। गोपायन की सर्वत्र जय जयकार होने लगी। सुबन्धु ने अब अपना ध्यान तप ओर ज्ञान साधना में लगाया इससे उन्हें गोपायन जैसी ही सामर्थ्य प्राप्त हुई। पौरोहित्य की शक्तियों का विकास हो जाने पर राजा असमाति नतमस्तक हुये और उन्होंने पुनः सुबन्धु को लेकर अपना राज पुरोहित नियुक्त किया।


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