धरा से गगन तक हृदय से नयन तक, निरे शून्य में भी लगा एक फेरा- कि संस्कृति के दीपों। जगो तुम जलाओ॥
नसों में तुम्हारी, धरा का रुधिर है, जगत् के लिये वह बहाना पड़ेगा। अंधेरा नहीं मिट सकता इन्दु से जो, सदा के लिये वह मिटाना पड़ेगा॥
नये चाव से तुम, नये भाव से तुम, लगाते हुए ज्योति का मन्जु मेला, अमा को प्रदीपों! प्रभाती सुनाओ कि संस्कृति के दीपों! जगो तुम जलाओ॥
जली है जहाँ जिन्दगी सर्वदा से, उमंगे कफ़न में समा सो रही हैं। विवश कामनायें, लजाती स्वयं को, गहन कालिमा में जहाँ खो रही है।
सबल प्राण से तुम, अभय दान दे तुम, दुःखों की कठिन-बीथिका में विहँसते, खुशी का खजाना निरन्तर लुटाओ। कि संस्कृति के दीपों! जगो तुम जलाओ॥
प्रलय की घटायें, कहीं अणुबमों में, निशाचर पलते लगाने न पायें। रजत चोटियों, खाइयों-खन्दकों में, पली सृष्टि सुन्दर नसने न पायें॥
सजग प्रहरियों! तुम, अथक राहियो! तुम, निखिल विश्व को शाँति का पथ दिखाते, चतुर्दिक बड़े जोर से जगमगाओ। कि संस्कृति के दीपों! जगो तुम जलाओ॥
*समाप्त*