“सत्येन उत्मिता भूमि”-”धरती सत्य पर टिकी है”

August 1971

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नवागत सैनिकों को दिन भर कठोरता पूर्वक अभ्यास कराने वाला प्रशिक्षक सायंकाल घर लौटता है तो उसे अपनी पत्नी, पुत्री और बेटों से मधुर मुस्कान सौम्य सम्भाषण एवं मृदुल व्यवहार की अपेक्षा होती है, मधुरता की सौम्यता की आकाँक्षा नैसर्गिक होती है, पशुओं का निर्दयता पूर्वक वध करने वाला बधिक भी दयापेक्षी होता है, दया और करुणा हमारे अन्तःकरण की सनातन आकांक्षायें है बेईमानी और दलाली करने वाले वर्णिक भी अपने लिये ईमानदारी और निष्कपट व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, नैतिकता हमारे जीवन की प्रधान आवश्यकता है। इसी प्रकार संसार का कोई भी व्यक्ति अपने प्रति यह नहीं चाहता कि कोई उससे झूठ बोले भले ही उसने जीवन में एक बार भी सत्य नहीं बोला हो। उसकी इस आवश्यकता की पूर्ति करने वाला कोई न कोई तो होता ही है। निरन्तर असत्य के संसर्ग में रहकर संतुलित मस्तिष्क, तथा जीवित रह पाना कठिन था इसलिये संसार का हर जीवित प्राणी मैत्री सम्बन्ध स्थापित करता है, परिवार और दूसरी सार्वजनिक संस्थाओं का निर्माण करता है जहाँ वह विश्वास पूर्वक एक दूसरे से व्यक्त होकर अपने आपको बोझिल होने से बचा लेता है।

किसी न किसी अंश में सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठा जमी होने पर ही यह पृथ्वी यह संसार स्थिर है ऐसा शास्त्रकार का कथन है। और अपनी इसी उक्ति में उसने एक महत्वपूर्ण जीवन दर्शन-सत्य की आवश्यकता भी प्रतिपादित कर दी है-सत्य हर व्यक्ति के जीवन का मूल-मन्त्र होना चाहिए। हरिश्चन्द्र सत्यकाम जबाला ओर गाँधी जैसी पूर्ण सत्यनिष्ठा न हो तो भी उसे सत्य-के परिपालन में इतना तो दृढ़ होना ही चाहिए कि अपने द्वारा किसी अन्य प्राणी का किंचित मात्र अहित न हो।

मनीषा का कथन है-

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप॥

अर्थात्-सत्य सभी तपों का तप है, झूठ से बढ़कर दूसरा पाप नहीं, जिसके हृदय में सत्य है उसके हृदय में परमात्मा विराजता है। शून्य आकाश में अनन्त अन्तरिक्ष के अनादि नक्षत्रों का प्रकाश एक बिन्दु पर टकराता है बाहर खड़ा व्यक्ति प्रकाश-किरणों के द्वंद्व को देखकर यह पता नहीं लगा सकता कि कौन प्रकाश किस नक्षत्र से आ रहा है। किन्तु यदि वह इन प्रकाश कणों की बौछार के मध्य उस बिन्दु को प्राप्त करले जहाँ हर आगन्तुक कण टकराता हो तो उस मूल बिन्दु से चारों ओर देखते रह सकना तथा प्रकाश के द्वारा ग्रह-नक्षत्रों की अंतर्दशा का पता लगाना भी सम्भव हो जाता है जिसे पकड़ने और धारण करने वाला व्यक्ति संसार की प्रत्येक वस्तु स्थिति का परिपूर्ण एवं आशंका रहित ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

सत्य जीवन की एक ऐसी अवस्था है जहाँ स्थित होकर अपने आस-पास के सम्पूर्ण वातावरण का सम्यक् और यथार्थ अध्ययन किया जा सकता है। क्यों जब कोई व्यक्ति सत्य बोलने सत्य व्यवहार करने का व्रत लेता है तो दुनियाभर की अहंतायें उससे टकराती है। कीचड़ में फँसा हुआ बीज अपने आपको कीचड़ से अधिक नहीं सोच सकता पर जब वही अंकुरित और पल्लवित होकर अपने आपको अपनी चेतना के दायरे में समेट लेता है तो न केवल उस कीचड़ के प्रभाव से बच जाता है वरन् उस कीचड़ में ही फँसी बहुमूल्य विभूतियों का अपने लिये अर्जन करने लगता है और उसकी वही अन्तः उपार्जित उपलब्धियाँ ही सौरभ सुवास के रूप में फूट पड़ती है। कीचड़ की जहाँ निन्दा हो रही थी वहाँ उसमें से जन्में कमल की प्रशंसा होने लगती है।

संसार माया, मोह, काम और क्रोध, मद और मत्सर का कीचड़ जैसा है जहाँ हर व्यक्ति अपना स्वार्थ अपनी अहंता की पूर्ति चाहता है। ऐसी परिस्थितियों में जीवन और विश्व के यथार्थ को समझ सकना कठिन हो जाता है। पर यदि कोई सत्य का आश्रय ले लेता है तो कमल के समान वह अपनी आत्मा के मूल बिन्दु पर स्थिर होकर विश्व के यथार्थ को देख लेता है। भली प्रकार समझा हुआ यह सत्य ही स्वर्ग और बन्धन मुक्ति का आधार बनता है।

सत्य-केवल सम्भाषण तक सीमित नहीं उसका क्षेत्र बड़ा व्यापक और विश्वास है। बोलें सत्य, साथ ही दूसरों को भी झूठ बोलने न दें। व्यवहार में सत्यता को पर यह भी ध्यान रहे कि उस सत्य में अप्रियता न हो, जहाँ दूसरों के प्रति सत्य की अभिव्यक्ति में साहस और दृढ़ता हो वहाँ अपने सत्य को प्रस्तुत करते समय भी चित्त डाँवाडोल ही सार्वभौमिक सत्य है केवल ऐसा सत्य ही हमें विश्व के यथार्थ की अनुभूति करा सकता है।

उदाहरणार्थ गाँधीजी ने सत्य को अपना जीवन मन्त्र बनाया था उन्होंने कुछ प्रतिज्ञा की थी-अहिंसा का व्रत पालन करूंगा, निर्धन देश की सेवा करते समय निर्धन बन कर रहूँगा। दोनों प्रतिज्ञायें कदम-कदम पर परीक्षा लेती। एक बार गाँधीजी खेड़ा से एक गाँव जा रहे थे। यात्रा बैलगाड़ी में हो रही थी। जिस गाड़ी में गाँधीजी बैठे थे उसे एक किसान हाँक रहा था किसान ने डण्डे में लोहे की कील चुभा रखी थी, वह बार-बर कील बैलों के पीड पर चुभा देता था जिससे बैल थोड़ा तेज चलने लगा था। गाँधीजी की दृष्टि एकाएक उधर पड़ गई। बैलों के पीठ पर रक्त वह भी उनके निमित्त उनकी प्रतिज्ञा सत्यता की कसौटी गाँधीजी तुरन्त बैलगाड़ी से उतर कर और फिर खेड़ा तक पैदल ही गये।

उन्हें 1å3.5 डिग्री बुखार था। इलाज के लिए साराभाई की कोठी पर ले जाया गया। बेहोशी टूटी उन्होंने देखा मैं सत्याग्रह आश्रम में नहीं हूँ। उन्होंने इस बीमारी में भी जीवन की परवाह न करें साराभाई की कोठी छोड़ दी और अपने आश्रम में आ गये। वाणी के व्यवहार के इस सत्य ने ही गाँधीजी को विश्व प्रतिष्ठा अधिकारी बनाया। आज सारी दुनिया गाँधीजी नहीं उन्हें इस सत्यनिष्ठा को नमन करती है सत्यवादी व्यक्ति भी और बाहर एक समान होता है इसीलिये उसकी शक्ति थाह पा सकना किसी के लिये भी सम्भव नहीं होता। तक इस सत्य का एक भी कण जिन्दा है यह पृथ्वी तक स्थिर है मनुष्य जाति ने यदि सत्य का पल्ला छोड़ दिया तो वह अपने आप ही सत्यानाश की विभीषिका जलकर अपना अन्त कर लेगा। हमें दम्भ और कपट नहीं सत्य का आचरण करना चाहिए इसी में संसार शोभा है।


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