कर्तव्य पालन से बड़ी साधना नहीं

August 1971

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उलझी केश राशि समेटी और उन्हें वेणी से गूँथते हुये परिचारिका बोली-भन्ते तुमने सुना नहीं गौतमी ने प्रव्रज्या ली है, उन्होंने अर्हव्स भी प्राप्त कर लिया और अब उन्होंने भिक्षुणी संघ स्थापित किया है। उनका विचार है कि पुरुषों के समान ही महिलायें भी साधनायें करें और स्वर्ग तथा मुक्ति का अधिकार प्राप्त करें। पूर्णा, धीरा उपशया, मुक्ता, तिष्या तथा भद्रा आदि ने तो प्रव्रज्यायें ग्रहण भी कर ली अब वे योग-साधनायें कर रही हैं।”

फिर एक क्षण मौन रहकर परिचारिका ने पुनः कहना प्रारम्भ किया-भन्ते ! आपके भ्रातर कौशल राज प्रेसन जित् स्वयं भी गौतमी की योग-साधना से बहुत प्रभावित हैं वे कई बार वेलुवन में उनके दर्शन कर चुके हैं। मैंने उन्हें देव माता से कई बार गम्भीर एकान्त-वार्ता करते देखा है और यह भी सुना है कि गौतमी चाहती है कि राज घरानों की कन्यायें आगे आयें और धर्म को जीवन की मूल आवश्यकता प्रदर्शित करने का नेतृत्व करें। कहीं उनका संकेत आपकी ओर तो नहीं है।

वेणी बँध चुकी थी। सुमना ने खड़े होते हुये कहा-विद्या! आत्मोद्धार मनुष्य जीवन का प्रधान लक्ष्य और मूल आवश्यकता है फिर इन दिनों जब कि धर्म-तन्त्र विकृत हो चुका है, सामाजिक मर्यादायें टूट रही हैं, लोगों के जीवनों में कल्मष काषाय बढ़ते जा रहें हैं महिलायें भी इस महान् अभियान में हाथ बंटाती है तो यह अच्छी बात होगी किन्तु मैं यह नहीं चाहती कि कोई साँसारिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके मुक्ति की प्राप्ति हो। ऐसी मुक्ति मेरी दृष्टि में बंधन से बढ़कर है। बौद्ध धर्म और भगवान् बुद्ध के प्रति मेरे अन्तःकरण में अपार आदर है। आवेश में ग्रहण की गर्ठ प्रव्रज्यायें किसी दिन भोग वृत्ति का दूषण न फैलाने लगें ऐसी मुझे पूरी आशंका है, इसलिये मैं चाहती हूँ कि साधना तो सभी करें पर ब्रह्मचर्य गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ के चरण पूरे करते हुए ही मुक्ति की ओर बढ़ा जाये। जो शक्ति प्रारम्भिक अवस्था की साधनाओं में मनोनिग्रह में खर्च होती है वह परिपक्व अवस्था में नहीं, उस समय इन्द्रियाँ भी अशक्त हो उठती है इसलिये मुक्ति के लिये वही उपयुक्त समय होता है।

सुमना यह कह ही रही थी कि वहाँ आ पहुँचे प्रसेनजित। उन्होंने कहा-तू ठीक कहती है सुमना! मैंने तेरी बातें सुनली हैं और उनकी यथार्थता भी समझ ली मेरी ओर से निश्चिन्त रह मैं तुझे अभी प्रव्रज्या के लिये प्रेरित नहीं करूंगा।

सुमनो अपने माता-पिता की सेवा में लग गई। कौटुम्बिक उत्तरदायित्वों को ही साधना मानकर उसने अपने कर्तव्यों का पालन किया वृद्धावस्था आने पर उसने प्रव्रज्या ग्रहण की और दीर्घकालीन तप के बाद भी जो लाभ अन्य भिक्षु-भिक्षुणियाँ नहीं ले पाई थी वह उन्होंने थोड़े ही समय में प्राप्त कर लिया।


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