मनुष्य से कुछ कम नहीं मनुष्येत्तर प्राणी

August 1971

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घर की दादी और पिता-दादा का काम छोटे बच्चों को खिलाना होता है। इस बंटवारे का कारण उनकी बेकारी नहीं वात्सल्य भाव की प्रबलता मानी जाती है। अपने बच्चे बहुत प्यारे लगते हैं। पर बच्चे का बच्चा तो और भी प्रियतर होता है यदि यह बात मनुष्य जाति की एक विशेषता है तो जंगल में पाये जाने वाले खरगोश भी मनुष्य से कम नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि वह भी अपने बच्चों को मनुष्य से अधिक ही प्यार करता है।

प्रसिद्ध जीव-विशेषज्ञ डॉ. डी अरिच. डी. विकेल ने लम्बे समय तक खरगोशों के सामाजिक जीवन का अध्ययन किया और लिखा है कि खरगोशों में बहुत अधिक मानवीय गुण होते हैं उनमें कुछ तो थोड़ी सी बात पर नारा हो जाने वाले दम्भी प्रकृति के होते हैं तो कुछ शान्त और सहनशील। उनमें परस्पर मैत्री का आधार गुणों की समानता होती है और इसका परिचय वे कुछ ही समय साथ-साथ रहने में पा लेते हैं। बूढ़े खरगोश बच्चों को बड़े प्यार से रखते हैं उनकी देखभाल से लेकर खेल में प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होती हैं। खेलना खरगोशों के लिये अनिवार्य होता है। वे कई बार खेलते समय इतने मस्त हो जाते हैं कि लोमड़ियों को भी सजातीय खरगोश मानकर उन्हीं के साथ क्रीड़ा करने लगते हैं। सम्भवतः उनकी इसी प्रकृति का वरदान उन्हें आजीवन आरोग्य के रूप में मिला हैं। खरगोशों के इस नैसर्गिक गुण से मनुष्य जाति भी शिक्षा ले सकती हैं क्रियाशील और क्रिड़ाशील जीवन का। आज जो धन रोगों की रोकथाम चिकित्सा में फूँका जा रहा है उसका आधा भाग भी देश में गाँव-गाँव खेल की अनिवार्य व्यवस्था में लगा दिया जाता तो वह सौ अस्पतालों से बढ़कर काम करता।

मनुष्य को अपनी बुद्धिमता का बड़ा अहंकार हैं पर सच बात यह है कि उसने इसी अहंकार वश अपने को अप्राकृतिक बनाया और रोग-शोक में जकड़ता चला आय स्वस्थ और सन्तुलित जीवन की शिक्षायें वह आज भी प्रकृति से, अपनी इन छोटे-छोटे जीवनधारियों से प्राप्त कर सकता है। कौवे जैसे उपेक्षित पक्षी में भी जातीय हित और स्वाधीनता के भाव पाये जाते हैं। एकबार उसके स्वभाव का विस्तृत अध्ययन करने के लिये कौवे का अण्डा सेया। कौवों की साहसिकता और निर्भय आक्रमण के फलस्वरूप सामान्यतः उसका बच्चा पकड़ में नहीं आता इसीलिये ऐसा करना पड़ा। अण्डे से बच्चा निकला। बच्चा बड़ा हुआ। मानवीय संसर्ग पाकर उस मनुष्य से स्नेह हो गया यह बात अलग है पर यह बात अन्य कौवों को कदापि पसन्द न आई और अध्ययन करने से पता चलता था कि वह कौवे का बच्चा भी अपनी भूल स्वीकारता है निश्चित। वह खिड़की के समीप बैठा रहता अपने मालिक के साथ खेलता भी पर जब एक विशेष प्रकार की ध्वनि से अन्य कौवे उसे धिक्कारते और उसे अपनी भाषा में मनुष्य जाति की बुराइयों से सावधान कर उसे भागने का संकेत करते तो वह बच्चा मालिक की भी परवाह न करके उड़ जाता। अपने साथी भाइयों के साथ देर तक खेलता रहता पर जिस तरह पाप अन्याय और हीन भावनाओं के कारण एक मनुष्य अन्य मनुष्यों से मेल-जोल रखने में आत्म हीनता अनुभव करता है उसी प्रकार यह कौवा भी उन्मुक्त प्रकृति में जन्मे अपने जाति भाइयों के बीच कुछ छोटापन सा अनुभव करता इसलिये वह बार बार लौटकर घर आ जाता।

कौवा बड़ा बुद्धिमान पक्षी है। मनुष्य समझता है बुद्धि मेरी विरासत है पर सच बात यह है कि अपने सीमित क्षेत्र और क्षमताओं में ही सृष्टि के अन्यान्य जीवों में भी विलक्षण बौद्धिक और आत्मिक क्षमतायें होती हैं। जब सब कौवे उपाय कर हार गये तब उनके एक मुख ने एक चाल चली। उन्होंने एक भोज आयोजित किया और ठीक ऐसे स्थान पर जहाँ से उस पालतू कौवे को उनकी हरकतें दिखाई देती रहें। कौवे को ललचा कर अपने पास बुलाने का यह उपाय कितना बुद्धि प्रेरित हो सकता है।

इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। इस प्रकार वे इस पराधीन कौवे को भी बन्धन मुक्त करने में सफल हो गये।

कौवों की ही जाति का रैवेन (एक प्रकार का काला कौवा) की बुद्धिमत्ता और सामाजिकता को देखकर तो यही लगता है इस जन्म के कुछ मनुष्य ही अपनी किन्हीं बुराइयों के कारण इस योनि में जाने को विवश होते हैं क्योंकि उनमें और मनुष्यों के रहन-सहन, विचार-व्यवहार में असाधारण समानतायें पाई जाती हैं।

भारतवर्ष, साइबेरिया, ग्रीनलैण्ड, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप में पाये जाने वाले इस 2 फुट की लम्बाई वाले पक्षी की विलक्षणतायें जितनी अध्ययन की गई नई विलक्षणताओं के अन्यान्य रहस्य उतने ही गम्भीर होते जा रहे हैं। बहुत संभव है कि एक दिन वह आये जबकि दुनिया में पुनर्जन्म सिद्धान्त को सार्वभौमिक मान्यता मिल जाये, विज्ञान उसकी पुष्टि कर दे ओर फिर नई खोजें हों तो पता चले कि यह रैवेन नटों की जाति के मनुष्य हैं जो मरने के बाद अपने स्वभाव और संस्कारवश इस कौवे की योनि में आ पड़ते हैं।

जर्मनी के “मैक्सप्लोंक इन्स्टीट्यूट फॉर दि फिजियोलॉजी ऑफ बिहेवियर इन सी विजन” स्थान में, जो कि जीव-जन्तुओं की प्रकृति के अध्ययन का बहुत ही उपयुक्त स्थान है, जर्मन वैज्ञानिक डॉ. एवरहार्ड ग्विनर ने “रैवेन” पक्षी का विस्तृत अध्ययन किया और यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि उसके रक्त में ऐसे लक्षण (ट्रेट्स) पाये जाते हैं जो मनुष्य से बहुत अधिक मिलते-जुलते हैं। इनके स्वभाव की विचित्रतायें, नट जाति की मानवीय विशेषताओं से ओत-प्रोत होती हैं।

विवाह से पूर्व नर और मादा रैवेन एक वर्ष तक लगातार साथ-साथ रहते हैं। मादा अपने लिये ऐसे नर का चुनाव करती है जिसमें नेतृत्व के गुण हों, जो साहसी हो, निर्भय हो, आलसी, दुर्बल, मूर्ख आदमियों की कौन पूछ करें, प्रकृति उद्योगी, साहसी और हिम्मत वालों का वरण करती है मादा रैवेन इस मामले में पूरी छान-बीन करके अपना फैसला देती है। आजकल का युवक समुदाय बड़ा चालक हो गया है वह यह समझते हैं कि नारी में बुद्धि नहीं होती, उसे गुणी होने का धोखा देकर फुसलाया जा सकता है, लड़कियाँ युवकों की इस धोखेबाजी में आ सकती है। रैवेन मादा जानती है कि एकाएक विश्वास करना धोखा हो सकता है इसलिये वह एक वर्ष तक नर के साथ रहकर उसका समीप से अध्ययन करती है। वह नर का कामुकता को अच्छी तरह पहचानती है इसलिये एक वर्षीय परीक्षक काल में उसकी इस दुर्बलता को धमका कर रखती है। यदि वह देखती है कि नर में नरोचित गुणों का अभाव तो वह उसे छोड़कर किसी अन्य का वरण करती हैं। दहेज और कृत्रिम गुणों पर जिस तरह लड़कियाँ ठग ली जाती है। रैवेन का ठगा जाना नितान्त असम्भव होता है।

बेशक परीक्षण काल में भी वे एक दूसरे के सहाय होने का प्रमाण दे सकते हैं। कई बार नर और मादा भटक जाते हैं। इन परिस्थितियों के लिये वे पहले से कुछ खास ध्वनियाँ निर्धारित कर लेते हैं जो उनकी जाति के किसी भी अन्य रैवेन को मालूम नहीं होती। उन्हीं के सहारे वे एक दूसरे को ढूँढ़ लेते हैं। एकबार परीक्षण दौरान डॉ. ग्विनर एक कुत्ते की आवाज सुनकर चौंका। उन्होंने देखा पास में कोई कुत्ता नहीं हैं फिर भौंकने की आवाज कहाँ से आ रही हैं। थोड़ी ही देर में पता चल गया कि एक रैवेन जिसका कि “सगाई काल” चल रहा था संकेत देकर अपने बिछड़े मंगेतर को बुला रहा था। थोड़ी ही देर में दोनों फिर मिल गये।

विवाह के बाद भी मादा अपने दांपत्य अधिकार अपने स्वाभिमान के भाव को सुरक्षित रखती है। नारी होने का कारण अपना वर्चस्व खो दिया जाये यह बात कोई महिला स्वीकार भले ही करले रैवेन को स्वीकार नहीं। सम्भव निश्चित कर लेने के बाद वह अपने रहने के उपयुक्त स्थान ढूँढ़ती है नर मकान बनाता है यदि इस बीच मादा वहाँ की परिस्थितियाँ अनुकूल न जान पड़ी तो वह अन्य स्थान ढूंढ़ेगी। कई बार इस खोज में नर को कई अधूरे बने मकान छोड़कर बार-बार नये मकान बनाने पड़ते हैं। यह मादा की इच्छा पर है कि वह इनमें से किसी भी स्थान को चुने और उसमें रहने का अन्तिम फैसला करे।

गिवनर लिखते हैं-कि पति और पत्नी के सम्बन्ध कैसे है, पारिवारिक जीवन में प्रेम, शान्ति, सुख, और व्यवस्था है या नहीं इस बात का पता लगाना हो तो घर की, बच्चों की स्थिति देखकर पता लगाया जा सकता है। जिन घरों में प्रेम, मैत्री एवं सद्भाव होता है वे घर साफ, सुथरे सजे हुये। उसके बच्चे और सदस्य हँसते खेलते हुए होते हैं यही बात रैवेन के बारे में भी है उसका घोंसला देखकर बताया जा सकता है कि उनका पारिवारिक जीवन में प्रेम और सौहार्द है अथवा नहीं।

पति रैवेन अपनी मादा के प्रति समर्पित और “एक नारी व्रत का पालन करके मनुष्य जाति को शिक्षा देता है और एक प्रकार से उसकी कामुकता को धिक्कार कर कर्तव्य भाव की प्रेरणा देता है। अण्डे सेने के 18-16 दिन मादा लगातार घोंसले में बैठी रहती है उस अवधि में दाना लाकर पत्नी की चोंच में डालकर खिलाने का काम नर बड़ी भावना के साथ पूरा करता है। एक डच प्लाजिस्ट ने लिखा है कि एक बार-अण्डा सेने की अवधि में एक मादा रैवेन मर गई उस समय पति ने लगातार भूखे रहकर सन्तति पालन का बोझ उठाया और बच्चों को पालकर बड़ा करने से लेकर उन्हें सिखाने तक का पूरा उत्तरदायित्व अकेले निभाया।

खेलना इनमें अनिवार्य होता है। अपने गाँवों में पहले पहलवानों के गुरु हुआ करते थे। गाँव के बच्चों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती थी, वे सवेरे-शाम उन्हें अखाड़े पर ले जाकर उन्हें दाँव-पेंच मल्ल-विद्या और शस्त्र संचालन सिखाकर शक्तिशाली, स्वस्थ और समर्थ बनाते थे अपने देश में जब से यह प्रथा टूट चली स्वास्थ्य और समर्थता का स्थान रोग-शोक, बीमारी और निर्बलता ने ले लिया पर इन पक्षियों में यह अनुकरणीय परम्परा इस कलियुग में भी दृढ़ता पूर्वक चल रही है और वह इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य मानवोचित गुणों से गिरकर चाहे किसी युग को सतयुग को कभी नहीं खोते इसी लिये वे चिरन्तर काल से अपने अस्तित्व को बचाते चले आ रहें है।

हर रैवेन-उपनिवेदा में कुछ रिंगलीडर होते हैं उनका काम होता है बच्चों को खेल-रत रखना। कोई आलसी बच्चा होगा तो उसे चोंच मार-मार कर खेलने को विवश करेंगे। इनके खेल पूरी नट-विद्या होती हैं उसमें इनको इतना अधिक परिश्रम करना पड़ता है कि शरीर का सारा विजातीय द्रव्य निकल जाता है।

इनके नेता इंसाफ पसन्द और नैतिक गुणों वाले होते हैं। एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव रखते हैं। उन्हें देखकर तो ऐसा लगता है कि आज के मनुष्य ने बुद्धिमान न होकर इन्हीं के गुणों के धारण कर लिया होता तो वह कहीं अधिक स्वस्थ सुख और समुन्नत हो सकता था।


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