मनुष्य अपने आपको पहचानने से भगवान को पहचान सकता है मैं कौन हूँ ? भली-भाँति विचार करने पर मालूम होता है कि मैं नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। हाथ, पैर, खून, माँस इत्यादि इनमेँ से मैं कौन है जिस प्रकार प्याज का छिलका अलग करते-करते छिलका ही निकलता जाता है, होश कुछ बचता ही नहीं, उसी तरह विचार करने पर “अपनत्व” के नाम से कुछ बचता नहीं, अन्त में जो कुछ रहता है वही आत्मा या चैतन्य है। अहम्भाव दूर हो जाने पर भगवान् के दर्शन होते हैं।
मैं दो तरह का होता है। एक है पक्का “मैं”। मेरा मकान मेरा घर, मेरा लड़का-यह सब कच्चा “मैं” है और पक्का “मैं” है-मैं उनका दास मैं उनकी सन्तान और मैं वही नित्य-मुक्त-ज्ञान स्वरूप हूँ।
-रामकृष्ण परमहंस