अपने को तुच्छ एवं नगण्य न समझें

August 1971

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आत्म-हीनता का भाव मनुष्य की उन्नति में बहुत बाधक होती हैं जो भी व्यक्ति दीन हीन और प्रगतिहीन स्थिति में पड़े दिखलाई देते हैं, वे सब किसी न किसी प्रकार की आत्महीनता से ग्रसित होते हैं। कोई अपने को निर्बल समझ रहा होगा कोई विद्या-बुद्धि से रहित, कोई साधन हीनता का रोना रो रहा होगा तो कोई परिस्थितियों और भाग्य को कोस रहा होगा। उस प्रकार की सारी निराशा आत्महीनता का ही लक्षण होता है।

आत्महीनों के विचार बड़े प्रतिगामी होते हैं। वे अपने अन्तः करण में नाना प्रकार के भ्रम, न्यूनताएं, निर्बलतायें, कुकल्पनाएं, आशंकायें और भीतियाँ पाले रहते हैं।उन्हें संसार का हर आदमी अपने से अधिक सक्षम और योग्य मालूम होता है। हर काम अपनी शक्ति से बाहर का विदित होता है। उनके विचार सदैव विपरीत दिशा में ही दौड़ते हैं उनके सोचने का ढंग इस प्रकार का होता है कि मानो परमात्मा ने उन्हें इस योग्य ही नहीं बनाया कि वे संसार में आगे बढ़कर संघर्ष कर सकें और अपने लिए सम्मान पूर्ण स्थान अर्जित कर सकें। उनको यदि उन्नति और प्रगति के लिए उत्साहित किया जाता है तब भी वे भयभीत हो उठते हैं। सोचते हैं यदि हमने अमुक साहस पूर्ण कोई काम हाथ में लिया तो हो सकता है कि कोई नई आपत्ति खड़ी हो जाये और हम किसी संकट में पड़ जायें। अमुक काम हमारे बलबूते का नहीं है, भला हम उसे किस प्रकार कर सकते हैं। आत्महीन व्यक्ति किसी साहस पूर्ण प्रगति पथ पर चलने से बुरी तरह डरता रहता है। ऐसा कायर और शंकालु व्यक्ति निश्चय ही कोई उन्नति नहीं कर सकता। उसे गई बीती स्थिति में ही जीवन काटने को विवश होना पड़ता है।

आशा आकाँक्षा, आत्म-विश्वास और आत्मबल, जिनको उन्नति और प्रगति का आधार माना गया है, आत्महीन व्यक्ति में उनका सर्वथा अभाव रहता है। उन्नति की आशा और आकाँक्षा करने का अधिकार तो उसी को हो सकता है जो अपने को किसी भी कार्य भी कार्य करने और कोई भी संकट उठा सकने के योग्य समझता है। जिसे यह विश्वास होता है कि वह जिस काम में हाथ डालेगा उसे जरा करके रहेगा। उसमें आ पड़ने वाले किसी भी संकट को उठा लेने के योग्य साहस धैर्य और क्षमता है। इस विश्वास के अतिरिक्त जो कार्य करने में रुचि रखता है, साहस और उत्साह रखता है, अपनी कमियाँ दूर करने और योग्यताएं बढ़ाने के लिए प्रयत्नशीलता रखता है उन्नति और प्रगति की आशा आकाँक्षा करने का वही अधिकारी होता है। जिसने योग्यताओं, अनुभवों तथा शिक्षाओं से आत्म-विश्वास और सदाचरण द्वारा आत्मबल संचित नहीं किया है वह उन्नति और प्रगति की आशा आकाँक्षा करने का अधिकारी किस प्रकार हो सकता है। आत्महीन व्यक्ति में इन सारे गुणों का अभाव होता है अस्तु उसका उन्नति और प्रगति की आशा आकाँक्षा से वंचित रहना स्वाभाविक ही है।

आशा और आकाँक्षा उन्नति का मूल आधार हैं। जिसमें यह आकाँक्षा ही न होगी कि मुझे भी आगे बढ़ना चाहिए, उन्नति और प्रगति करनी चाहिए, उसे न तो उसकी प्रेरणा होगी और न वह उस दिशा में सक्रिय होगा। उन्नति और प्रगति भी संसार में कोई आवश्यक बात है-यह उसे याद ही न आयेगा। आकाँक्षा ही मनुष्य की क्रियाशीलता को प्रेरित तथा उत्साहित करती है। तथापि यदि उन्नति और प्रगति की आकाँक्षा तो हो किन्तु उसे प्राप्त कर सकने की आश्वासन हो तब भी मनुष्य की क्रियाशीलता गतिमान नहीं होने पाती। वह सोचता है जब वाँछित स्थिति पा सकने की आशा नहीं है, कोई सम्भावना नहीं है तो उसके लिए प्रयत्न करना ही बेकार है। बात भी ठीक है कि जिसे यह आशा न हो कि वह परीक्षा में पास हो जायेगा-वह उसमें बैठेगा ही क्यों। आशा का आधार पाकर ही मनुष्य सारे काम करता है। आशा से रहित अकेली आकाँक्षा मनुष्य को उन्नति तथा प्रगति के लिए प्रेरित तथा सक्रिय नहीं बना सकती, आत्महीन व्यक्ति में न तो आकाँक्षा का ही उदय होता है और न उसे सफलता में आशा होती है। निदान उन्नति और प्रगति के सहनीय शब्द उसके नाम के साथ जुड़ना सम्भव नहीं हो सकता।

आत्महीनता कोई प्रकृति-प्रदत्त दोष नहीं होता। यह वास्तव में एक मानसिक रोग होता है जो मनुष्य की अनेक असावधानियों से पैदा हो जाता है। उनमें से एक असावधानी तो अयोग्यता होती है। यह अयोग्यता कार्य कुशलता, कार्य क्षमता, विद्या-बुद्धि, आचार-विचार आहार-विहार अथवा व्यवहार-बर्ताव को क्यों न हो आत्म-हीनता का भाव पैदा कर देती हैं। जिस आदमी ने अभ्यास और लगन पूर्वक अपने कार्य में कुशलता, दक्षता और योग्यता प्राप्त करने की सावधानी नहीं वर्ती है उसे उस विशय में न तो आत्मविश्वास प्राप्त होगा और न वह दक्ष और कुशल व्यक्तियों के साथ समक्षता अनुभव कर सकता है। उसका उस दिशा में आत्महीनता अनुभव करना स्वाभाविक ही है। वह कितने ही दम्भ अथवा अहंकार का सहारा क्यों न ले आत्महीनता के भाव से बच नहीं सकता।

जिसमें विद्या बुद्धि की कमी है। किसी बात को सोच सकने समझ सकने और ठीक से व्यक्त कर सकने की योग्यता नहीं है, वह जहाँ भी जायेगा उचित स्थान तथा आदर न पा सकेगा। लोग स्वभावतः उसे निम्न दृष्टि से देखेंगे जिसकी प्रतिक्रिया उस पर आत्महीनता के भाव के रूप में ही होगी! जिसके विचार दूषित होंगे, आचरण निम्नकोटि का होगा वह दूसरों की दृष्टि में ही नहीं स्वयं अपनी दृष्टि में गिरा रहेगा। वह सभ्य और शालीन समाज में आता जाता भी यही अनुभव करता रहेगा कि वह इसमें आने जाने योग्य नहीं है। उसके अन्दर का चोर निश्चय ही उसे आत्महीन बना देगा।

आहार-बिहार का भी मनुष्य की आत्मा पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। यदि एक बार दूसरे लोग किसी के आहार-बिहार पर दृष्टि न भी डालें तो भी उसकी अपनी दृष्टि से तो वह बच ही नहीं सकता। वह किस प्रकार रहता है, क्या खाता पीता और पहनता है। इस विशय में उसका स्तर क्या है-आदि बातें भी मनुष्य में आत्म-गौरव आत्म-हीनता का भाव पैदा कर देती हैं। जिसका रहन-सहन निकृष्ट और अपने अनुरूप न होगा उसमें आत्महीनता का भाव रहना ही है। आलस्य के कारण जो गन्दगी से रहता है, अपने स्तर से ऊँचा-नीचा खाता पहनता है तो उसे निम्न स्तर में लज्जा ओर ऊँचे स्तर पर दम्भ की आत्म-हीनता पैदा हो जायेगी। अयोग्य आहार-बिहार ओर अयोग्य रहन-सहन की असावधानी आत्महीनता का बहुत बड़ा कारण है।

मनुष्य के आत्म-गौरव और आत्म-हीनता के सम्बन्ध में व्यवहार-बर्ताव का बहुत हाथ रहता है। जो अशिष्ट, असभ्य ओर अशालीन व्यवहार का अभ्यस्त है। व्यवहार करने में यथायोग्य की सावधानी नहीं बरतता तो निश्चय ही उसे अपमानित, लाँछित, तथा तिरस्कृत होना पड़ता है। तिरस्कार अथवा अपमान का सगा संबंध है। जो समाज अथवा परिवार आदि में तिरस्कृत अथवा अनादरित होता रहता है उसे आत्महीनता का शिकार बनने से कोई नहीं बचा सकता निश्चय ही उसकी आत्मा मलीन हो जायेगी उसका आत्म तेज नष्ट हो जायेगा और वह आत्महीनता का रोगी बन जायेगा। व्यवहार बर्ताव की असावधानी आत्महीनता का बड़ा कारण है। आत्म-हीनता उत्पन्न होने का एक कारण होता है दूसरों से तुलना करना। बहुत से लोगों का स्वभाव होता है कि वे दूसरे लोगों के धन-वैभव, कारबार, मान−सम्मान और पद प्रतिष्ठा पर बहुत दृष्टि रखते हैं ओर अनजान में ही प्रभावित होकर उन्हें बड़ा आदमी मान लेते हैं। यहाँ तक तो गनीमत होती है। किन्तु जब इससे आगे बढ़कर उनकी स्थिति से अपनी तुलना करके ऊहापोह में पड़ जाते हैं तभी उनमें आत्महीनता का के अंकुर उगने लगते हैं। उनके इस प्रकार सोचने का ढंग कि-देखो अमुक आदमी के पास कितनी धन दौलत है, उसका कारबार कितनी जोर से चन रहा है। समाज में उसे कितनी पद प्रतिष्ठा मिली है। कैसे शान-शौकत से रह रहा है। संसार के सारे सूख उसके पास हैं। भगवान की कृपा है॥ बड़ा भाग्यवान आदमी है। एक मैं हूँ न धन न दौलत, न मान न सम्मान, न कार न रोजगार। थोड़ी सी आमदनी है। पेट भर रोटी खा लो और सन्तोश करो। अपने-अपने भाग्य की बात है। हमारे भाग्य में जब गरीबी लिखी है तो हो भी क्या कर सकते है?-उसमें संभवतः आत्महीनता को भावना पैदा कर देता है। किसी की उच्च स्थिति से अपनी साधारण स्थिति की स्पृहा के साथ तुलना करने का अर्थ है अपने लिए आत्महीनता की भूमिका बनाना।

यदि किसी से तुलना न करके भी केवल अपने अभावों, कमियों और कष्टों का भी चिन्तन किया जाता रहे तब भी आत्महीनता का भाव उत्पन्न हो जाता है, मैं गरीब हूँ। मेरे घर का खर्च ही पूरा नहीं पड़ता है। मैं ज्यादा कमा ही नहीं पाता अपने पर कोई आपत्ति और उलझन आती ही रहती है- आदि-विचार मनुष्य को आत्महीन बना देते हैं। मनुष्य अपने प्रति जितने हीन और ओछे विचार रखेगा वह उतना ही आत्महीन बन जायेगा। विचारों का स्थिति पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि कोई मनुष्य यथार्थ रूप में गरीब न हो अच्छा खासा खाता-पीता हो किन्तु लोभ, लालच अथवा भय दुराव आदि के कारण अपने को निरन्तर गरीब समझता अथवा कहता रहे तो निश्चय ही एक दिन परिस्थितियाँ इस प्रकार से घूम जायेंगी कि वह गरीब हो जायेगा। यदि परिस्थितियाँ न भी घूमे तो भी पैसा होते हुए भी अपने को गरीब और दीन हीन मानने व कहने वाला यों ही दीन ही होता है। जो अपनी स्थिति और विभव का अनुभव न कर सके और दूसरों को उसको समझने से वंचित रक्खे वह दीन−हीन ही तो होता है। ऐसे निम्न और निकृष्ट वाले अवश्य ही आत्महीनता के रोगी बन जाते हैं।

यह और इस प्रकार की अनेक न्यूनताओं और असावधानियों के कारण लोगों में आत्महीनता का भाव आ जाता है। यदि उसे तत्परता पूर्वक जल्दी ही दूर न कर दिया जाये तो वह प्रौढ़ होकर एक मानसिक रोग में बदल जाता है। आत्महीनता का भाव नैसर्गिक न होकर मनुष्य का अपना पैदा किया हुआ होता है। यह भाव उन्नति और प्रगति में बहुत बाधक होता है। अस्तु इसे अपने पास न तो आने देना और न रखना चाहिए।

आत्महीनता से बचकर रहना कोई कठिन बात नहीं है। थोड़ी-सी सावधानी बरतने से इससे आसानी से बचा जा सकता है। उसमें से एक तो यह है कि अपने कार्य और क्षेत्र में दक्षता तथा कुशलता प्राप्त करली जाये ! सब के साथ यथायोग्य व्यवहार किया जाए। इसके अतिरिक्त दो विशेष बातें यह हैं कि न तो कभी किसी किसी की उच्च स्थिति से अपनी सामान्य स्थिति की तुलना की जाये और न अपना न अपने कार्यों तथा भाग्य की अवमानना करने के साथ अपनी क्षमताओं में अविश्वास ओर अपनी स्थिति का अवमूल्यन ही किया जाये। अपने को महत्वहीन और अभागा समझने वाले लोग अवश्य ही आत्महीनता के शिकार बन जाते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों से सावधान रह कर जीवन में विश्वास और आदर भाव से अपना कर्तव्य किया और अपनी स्थिति में प्रसन्न रहकर चला जाए तो आत्महीनता का कोई प्रश्न ही न रह जाये।


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