शिष्य ने गुरु के पास जाकर कहा- ‘गुरुदेव! मुझे ज्ञान का उपदेश दीजिए ताकि मैं उसे आचरण में लाकर अपने जीवन को सार्थक कर सकूँ।
गुरु ने शिष्य की ओर देखा और मुस्करा दिये। उत्तर कुछ भी न दिया। इस प्रकार कई दिन तक आता रहा ज्ञान-प्राप्ति के लिये जिज्ञासा प्रकट करता रहा और उत्तर में गुरु मुस्कराते रहे।
यह क्रम बहुत दिनों तक चला। शिष्य की उद्विग्नता बढ़ने लगी। एक दिन गुरु उस शिष्य को नदी के किनारे ले गये और उसमें डुबकी लगाने के लिये कहा-शिष्य ने ज्यों−ही डुबकी लगाई त्यों−ही गुरु ने उसकी गरदन दबा दी। प्रयत्न करने के बाद भी पानी में से वह अपना सिर न निकाल सका। उसकी दम घुटने लगी। हाथ, पैर ढीले हो गये।
अन्त में गुरु ने से छोड़ दिया। शिष्य पानी में खड़ा हो गया और दम लेने लगा। जान में जान आई। गुरु ने पूछा ‘अभी तुम पानी के भीत थे तब तुम्हारी सबसे तीव्र इच्छा क्या थी?
‘गुरुदेव! तब मैं केवल हवा चाहता था। पानी से बाहर आकर साँस लेने की मेरी इच्छा थी। उसके लिए यदि मुझसे कोई कुछ माँगता तो मैं बदले में सब कुछ समर्पित कर सकता था। पर यह सब पूछने का कारण क्या है ? मेरे प्रश्न से तो इसका कोई सम्बन्ध जान नहीं पड़ता।’ शिष्य के सकपकाते हुये कहा-
गुरु ने प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही देते हुये कहा-’वत्स! जिस तरह से साँस लेने के लिये तुम में उतावली थी क्या तुम्हारे हृदय में ईश्वर प्राप्ति के लिये भी ऐसी उतावली है। यदि नहीं तो धर्म के बाजार में तुम में और किसी नास्तिक की कीमत में कोई अन्तर नहीं है। मेरा तो यह विश्वास है कि असली नास्तिक अपनी मान्यता के प्रति तुमसे कहीं अधिक ईमानदार दिखाई देगा। जब तक तुमने ईश्वर प्राप्ति की दृढ़ भावना उत्पन्न नहीं होती तब तक ज्ञान का उपदेश भी तुम्हें किसी प्रकार का लाभ नहीं पहुँचा सकता। और न उससे क्रियात्मक प्रतिफल निकलने की ही आशा की जा सकती है।’