कर्मण गहनों गति

August 1971

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बहेलिये ने तीर छोड़ दिया-समग्र तीक्ष्णता के साथ वह लता बल्लरियों की बाधाओं को चीरता राजकुमार सुकर्णव के मस्तक पर जा लगा। सकुर्णव वहीं धराशायी हो गये। जब तक व्याघ्र और अन्य अंग-रक्षक सैनिक उनके पास तक पहुँचे, राजकुमार के प्राण-पखेरू काया का पिंजड़ परित्याग कर आकाश भूत हो गये।

समस्त अन्तःपुर रो पड़ा, अपने राजकुमार की याद विसूरती प्रजा के अन्तःकरण उमड़ उठे। ऐसा कोई भी हतभाग्य राज्य में नहीं था जिसने सुकर्णव की अर्थी देख कर आँसू न बहाये हों।

दाह-संस्कार सम्पन्न हुआ पुत्र-शोक अब प्रतिशोध की ज्वाला में भड़क उठा। महाराज वेनु-विकर्ण ने कारागृह में बन्दी बहेलिये को सम्मुख उपस्थिति करने का आदेश दिया। सैनिक गण व्याध को बाँधकर ले आये। सिंहासन के सम्मुख पहुँचकर उसने महाराज सहित समस्त सभासदों को शीश झुकाया और मौन मुद्रा में खड़ा हो गया।

महाराज विकर्ण की कड़कती हुई आवाज गूँजी-दुष्ट बहेलिये तूने राजकुमार का वध किया है, बोल! तुझे मृत्युदण्ड क्यों न दिया जाये ? बहेलिये ने एक बार सभा भवन में बैठे हर व्यक्ति पर दृष्टि दौड़ाई फिर राजपुरोहित पर एक क्षण को उसकी दृष्टि टिकी। उसे कुछ याद आया-उत्तर दिया बहेलिये ने-महाराज! मेरा इसमें क्या दोष मृत्यु ने राजकुमार को मारने का निश्चय किया था उसने ही मुझे माध्यम बनाया, मेरी बुद्धि भ्रमित की और मैंने राजकुमार को कस्तूरी मृग समझ कर तीर छोड़ दिया। जो दण्ड आप मुझे देना चाहते हैं वह मृत्यु को दें। चाहें तो राजपुरोहित से पूँछ लें यह भी तो कहते है कि विधाता ने जितनी आयुष्य लिख दी, उसे कोई घटा-बढ़ा नहीं सकता, घटनायें तो मृत्यु के लिए मात्र माध्यम होती है।

विकर्ण का क्रोध विस्मय में बदल गया। उन्होंने राज पुरोहित की ओर दृष्टि डाली तो लगा कि सचमुच ही वे भी बहेलिये का मूक समर्थन कर रहे हों। उन्होंने मृत्यु का आवाहन किया-मृत्यु उपस्थित हुई महाराज ने उनसे पूछा आपने राजकुमार को मारने का विधान क्यों रचा- “उनका काल आ गया था” मृत्यु बोली। तो फिर काल को बुलाया गया-काल ने कहा-मैं क्या कर सकता था महामहिम! राजकुमार के कर्मों का दोष था। कर्म-फल से कोई बच नहीं सकता। राजकुमार ही उसके अपवाद कैसे हो सकते थे।

कर्म की पुकार की गई-उसने उपस्थित होकर कहा-’आर्यश्रेष्ठ! अच्छा है या बुरा, मैं तो जड़ है, मुझे तो आत्म-चेतना चलाती है उसकी इच्छा ही मेरा अस्तित्व है, आप राजकुमार की आत्मा को ही बुलाकर पूँछ लें उन्होंने मुझे क्रियान्वित ही क्यों किया।

और अन्त में बुलाई गई राजकुमार की आत्मा-दण्डनावक ने प्रश्न किया-भन्ते! तुम कर्त्ता की स्थिति में थे क्या यह सच है कि तुमने कोई ऐसा कार्य किया जिसके फलस्वरूप तुम्हें अकाल काल कवलित होना पड़ा। शरीर के बन्धन से मुक्त आकाश में स्थिर राजकुमार की आत्मा थोड़ा मुस्कराई फिर गम्भीर होकर बोली-राजन्! पूर्व जनम में मैंने इसी स्थान पर माँस-भक्षण की इच्छा से एक मृग का वध किया था। मरते समय मृग को प्रतिशोध का भाव था, उसी भाव ने व्याध को भ्रमित किया। इसलिए व्याध का कोई दोष नहीं, न मुझे काल ने मारा मनुष्य ने, चिन्ता छोड़ा कर्म की गति बड़ी गहन है अपने कर्मों से हिसाब करो, भावी जीवन की प्रगति और स्वर्ग मुक्ति से कर्म की गति पर ही आधारित हैं सो तात तुम भी अपराध कर्म सुधारो।


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