लड़ रहा हो जब स्वयं विज्ञान से विज्ञान

January 1970

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जे. वी. एस. हाल्डेने से एक बार एक अन्य वैज्ञानिक ने प्रश्न किया—“आप विज्ञान और धर्म में क्या संबंध मानते हैं, क्या विज्ञान के साथ धर्म का भी मानव−जीवन में महत्त्व है?”

जे. बी. एस. हाल्डेने ने हँसते हुये उत्तर दिया—“विज्ञान की शिक्षा और धर्म की शिक्षा दोनों एक दूसरे से विपरीत हैं। धर्म विज्ञान के आगे उस भिखारी की तरह है, जो अपने जीवन की रक्षा के लिये विज्ञान से ज्ञान के टुकड़े माँगा करता है, उससे वह अपना पेट पाल सकता है। उद्यम नहीं कर सकता, वह एक परोपजीवी के रूप में स्थित है, जिस प्रकार फर्नीचर (कुर्सी−मेज आदि) चारपाई और दीवार की दरारों में खटमल प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार विज्ञान की दरारों में धर्म जीवित है।”

जे. बी. एस. हाल्डेने की बुद्धिशीलता से कोई इनकार नहीं करेगा, क्योंकि आखिर उसने अनेक वैज्ञानिक विभागों का अध्ययन किया था। उसके मस्तिष्क की पहुँच का प्रमाण यही था कि उसने कई अनुसंधान भी किये थे, इसलिये विज्ञान के प्रति उसकी आस्था स्वाभाविक थी। किसी इञ्जीनियर से राजयक्ष्मा की दवा पूछी जाये तो वह बेचारा क्या बतायेगा। जीवन भर पंसारी की दुकान करने वाले रामदास पंसारी के लिये यह कहाँ सम्भव हो सकता है कि वह रखे हुये जवाहरातों में से हीरा, नीलम, पन्ना, पुखराज, मोती, मूँगे, गोमेद, बदूर्य आदि अलग−अलग निकाल कर रख सके। पारखी के लिये विषय का पारंगत भी होना चाहिये। धर्म−तत्त्व का अध्ययन किये बिना उसे परोपजीवी का स्वरूप देना ऐसा ही था, जैसे गवर्नर का लड़का गवर्नर से कहे—“इस कुर्सी पर तुम्हारा नहीं पापा! मेरा अधिकार है।”

डॉ. डेस्काटेंस और प्रसिद्ध वैज्ञानिक हेरबर्ट बटरफील्ड ने जे. बी. एस. हाल्डेने की बात ध्यान से सुनी और फिर उसका प्रतिवाद करते हुये, उन्होंने पूछा—“क्या कोई वैज्ञानिक आज तक फूलों का सा सौन्दर्य बना सका है, क्या वृक्षों की हरियाली और मनुष्य−शरीर जैसे कोई सर्वसमर्थ मशीन बना सका है, यदि नहीं तो इन्हें किसने बनाया? संसार में जब तक सौन्दर्य है, व्यवस्था है, तब तक हम ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं करेंगे, जब तक ईश्वर है, धर्म उसके सर्वसमर्थ पुत्र की भाँति विश्व के राज्यासन पर उसका साम्राज्य बना रहेगा। धर्म नहीं परोपजीवी विज्ञान है। क्योंकि वह आज तक अपनी प्रयोगशाला (लैबोरेटरी) में भावनायें नहीं बना सका।

बहुत से वैज्ञानिक मनुष्य के विचारों और कार्यों पर विज्ञान और धर्म के अन्तरंग प्रभाव के अध्ययन के लिये समय नहीं निकाल सकते, इसलिये ही विज्ञान और धर्म दो भिन्न अनुभवों के रूप में दिखाई देते हैं। एक वैज्ञानिक जितना समय विज्ञान के अध्ययन के लिये देता है, उतना ही समय यदि वह धर्म के अध्ययन के लिए दे सका होता तो वस्तुतः वह अपने ही द्वंद्व−युद्ध से बच गये और उन्होंने संसार को भी उससे बचा लिया होता। विज्ञान कितनी ही हठधर्मी करे पर वह धर्म के अस्तित्व से इन्कार नहीं कर सकता, क्योंकि उसे यह तो पता है ही कि विज्ञान के फर्नीचर में भरे जाने के लिये अनेक दराजें हैं और उन्हें विज्ञान भर पाने में असमर्थ है केवल धर्म ही उस अभाव की पूर्ति कर सकता है।

एडिंगटन का कहना था, 17 वीं शताब्दी से ही बढ़ रहे विज्ञान ने, धार्मिक अंध−विश्वासों और प्राचीन रूढ़ियों का विनाश तेजी से किया है। अंध−विश्वासों की संख्या इतनी तीव्र हो गई थी कि विज्ञान को उस पर शुभ−चिन्तक की तरह नहीं शत्रु की तरह आक्रमण करना पड़ा। उसका फल यह हुआ कि ईश्वर, आत्मा कर्मफल जैसी आवश्यक मान्यताओं का भी उनके साथ ही सफाया हो गया। उन्होंने लिखा है—एक वैज्ञानिक के रूप में मैं भी सर्वप्रथम नास्तिक हूँ, किन्तु जे. बी. एस. हाल्डेने के साथ सहमत होने के लिये मैं बाध्य नहीं हूँ। हम मानते हैं कि धर्म और ईश्वर को हम एक वैज्ञानिक विचार−धारा अथवा अनुसंधान के रूप में नहीं ला सकते तो भी कई ऐसे अनुभव हैं, जो वैज्ञानिक ढंग से भी स्पष्ट नहीं किये जा सकते। हम नहीं जानते कि इन अनुभवों को किस ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है। किन्तु यदि कोई उपाय हो सकता है तो उसे धर्म कहने में मुझे कोई संकोच नहीं हो सकता।

डॉ. बरनल भी वैज्ञानिकों की नास्तिकतावादी पंक्ति के सदस्य थे। वह कहा करते थे—“अब विज्ञान का विकास इतना अधिक हो चुका है कि इस वस्तुवादी संसार में धर्म और ईश्वर की आवश्यकतायें रद्दी एवं क्षीण हो चुकी हैं। हम ईश्वर और धर्म के बिना भी बहुत अच्छे रह सकते हैं।

इसका उत्तर भी एक प्रसिद्ध जीव−शास्त्री वैज्ञानिक डॉ. कोलिन्स ने दिया उन्होंने कहा—“यदि वैज्ञानिक अपने उपयोगितावाद सिद्धान्त को सुधार कर प्राणिमात्र के प्रति भाई−चारे का विश्वास बना लें तो भी उसे अपने मूल प्रयोजन और विश्व की उत्पत्ति जानने के लिये धर्म और ईश्वर का आश्रित होना ही पड़ेगा। जीव विज्ञान परमात्मा का स्मरण किये बिना नहीं रह सकता। जीव की उत्पत्ति और विकास के उद्देश्य का मूल्यांकन करने के लिये धर्म और ईश्वर की आवश्यकता सदैव ही बनी रहेगी।”

मध्य युग के अनेक विज्ञान−वेत्ताओं ने धर्म की आलोचना की और उसे मानवीय प्रगति का अवरोध तक ठहराया। उनका कहना था—“जब तक ईश्वर और आत्म−चेतना का विज्ञान इतना विकसित नहीं हो जाता कि उसे स्थूल पदार्थों की तरह ही पढ़ाया और प्रमाणित किया जा सके, तब तक इन मान्यताओं को शिरोधार्य नहीं किया जा सकता।”

धर्म जीवन की आन्तरिक और भावनात्मक प्रक्रिया है, उसके निश्चित परिणाम, विचारों की एकाग्रता और आत्मचिन्तन से ही प्रतीत होते हैं। इसलिये उसे एक स्वतंत्र रूप में अध्ययन का विषय बनाया जाना चाहिये था, जैसा कि भारतवर्ष में किया गया। यहाँ पदार्थ के गुणों के रूप में भी भौतिक विज्ञान का पर्याप्त विकास किया गया और चेतना के अस्तित्व की जानकारी के लिये भी योग विज्ञान का प्रादुर्भाव किया गया, जिससे स्थूल रूप से धर्म और ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति की जा सके। आर. ए. मिलिकान ने पता लगाकर बताया कि इलेक्ट्रान में भी चार्ज होता है, इसी से सिद्ध हो जाता है कि सम्पूर्ण प्रकृति में एक मस्तिष्क (इन्टेलीजेन्स) काम करता है और वही आत्मा और भगवान का स्वरूप हो सकता है। यह एक प्रकार से आत्मा या परमात्मा की स्थूल व्याख्या ही है। भौतिकीय विवेचन की दृष्टि से ही महर्षि कणाद ने आत्मा को पदार्थ कहा था। वैशेषिक दर्शन के इस मत की भारतीय आचार्य भी आलोचना करते हैं पर दरअसल ऐसी कोई बात है नहीं। एक बिन्दु निश्चित रूप से ऐसा है, जहाँ प्रकृति और आत्म-चेतना एकाकार होते हैं, यदि इस बात को पदार्थ विज्ञान द्वारा समझ लिया जाये तो धर्म की भावनात्मक प्रक्रिया को आसानी से समझा जा सकता है। आर. ए. मिलिकान के उक्त कथन से इसलिये इनकार नहीं किया जा सकता।

नास्तिकवादी धर्म और ईश्वरीय आस्थाओं को नहीं मानते हैं, किन्तु अलबर्ट आइन्स्टीन जैसे महान् वैज्ञानिक को भी यह मानना पड़ा कि वैज्ञानिक अनुसन्धान मनुष्य की आध्यात्मिक भावनाओं पर निर्भर करते हैं। इनका सम्बन्ध भी भावनाओं की गहराई एवं आन्तरिक अनुभूतियों से ही है। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में अपने चिन्तन में इतना डूब जाता है कि उसे अपने शरीर की आवश्यकताओं का भी ध्यान नहीं रहता। वह यह देखकर ही कहते थे कि कुछ अनुभव है, उनसे यह व्यक्त होता है कि मेरा ईश्वर यहाँ विद्यमान है। वह शक्ति जो ऐसी अनुभूतियाँ कराती है। चिन्तन में बाँध लेती है, वही आत्मा है, ईश्वर है, उसी को धार्मिक चिन्तन द्वारा प्रगाढ़ बनाते हैं।

गिलवर्ट मुरे ने आइन्स्टीन के अनुभूतिवाद को और स्पष्ट करते हुए कहा था—बाज तेजी से उड़ता हुआ अपने शिकार की ऐसी ताक करता है कि वह उसके चंगुल से बच नहीं पाता, कुत्ता सुगन्ध लेता हुआ, उन्हीं गलियों से चलता हुआ चोर का पता लगा लाता है, जहाँ हम कई बार चलते हुए भी कुछ समझ नहीं पाते, हिरन इतनी तेजी से भागता है कि और कोई हो तो पीछे की आवाज सुन भी न सके, किन्तु वह सब कुछ सुनता भी जाता है। हम सामान्य जीवन के अनेक कार्य करते हैं पर ऐसी विलक्षणतायें प्रतीत नहीं होतीं तो भी उन विलक्षणताओं से इनकार नहीं कर सकते। वह बहुत मूल्यवान होती हैं और आध्यात्मिक होती हैं, इसलिए धर्म को मानव−जीवन से हम कभी अलग कर भी नहीं सकते हैं।

जेनी मार्गन नामक एक लड़की का उदाहरण इस मन्तव्य की पुष्टि करेगा। मिसौरी के सिडैलिया के निकट रहने वाली एक डरपोक लड़की जेनी मार्गन जब 14 वर्ष की हुई, तब अचानक उसके शरीर में अज्ञात विद्युत शक्ति आ गई। जो कोई भी उसे स्पर्श करता ठीक बिजली की तरह का उसे तेज करेंट लगता। वह कभी कोई लोहे की सलाख पकड़ती तो उससे विद्युत स्फुल्लिंग निकलने लगतीं। चिनगारियाँ इतनी तीव्र होतीं कि स्वयं लड़की उससे घबरा जाती।

इस विलक्षण घटना की सूचना डॉ. ऐशक्राफ्ट को दी गई। वे वैज्ञानिक थे किसी की बात पर सहज विश्वास करना उनके लिये आवश्यक न था, उन्हें इस बात पर कतई विश्वास न हुआ। इसका पता लगाने के लिये उन्होंने स्वयं लड़की का स्पर्श किया। और जब आधे घण्टे बाद उनकी बेहोशी दूर हुई तो उन्हें पता चला कि उनकी हालत सुधारने के लिये डाक्टरों को कितने प्रयत्न करने पड़े। इस पर भी उन्हें विश्वास न हुआ तो उन्होंने दुबारा पुनः लड़की का स्पर्श किया। इस बार उनकी जो हालत हुई कि दुबारा वे उसे स्पर्श तो क्या वहाँ बैठ सकने का भी साहस नहीं रख सके। उन्हें कहना ही पड़ा—“कोई विलक्षण शक्ति मनुष्य शरीर में है, जिसे हम वैज्ञानिक नहीं जानते।”

पीटरवान ने भारतीय योग पद्धति से यह शक्तियाँ विकसित कीं और यह दिखाया कि आध्यात्मिक शक्तियाँ भौतिक विज्ञान की शक्तियों से बढ़कर हैं, उनसे इनकार करने का तो कोई कारण ही नहीं है। वैज्ञानिक इनके शरीर की जाँच करके आश्चर्यचकित हैं वे इस पर कुछ भी अन्तिम निर्णय दे सकने में असमर्थता अनुभव कर रहे हैं जबकि उसके कुल एक सप्ताह पूर्व ही चन्द्र धरातल का वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा स्पर्श तक किया जा चुका है।

वैज्ञानिकों की मान्यताओं का वैज्ञानिकों द्वारा ही खण्डन होता चला जा रहा है, तब प्रबुद्ध व्यक्तियों के सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि किसे स्वीकार करें। अन्तिम निर्णय उन्हें स्वयं लेना चाहिये पर यदि यह कहा जाये कि मनुष्य जीवन में धर्म और अध्यात्म की महत्ता भौतिक विज्ञान के मूल्य और महत्त्व से बढ़कर है तो उसमें किसी को आश्चर्य या नाराजी नहीं प्रकट करनी चाहिये।


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