इस संसार में सब कुछ चेतना ही है।

January 1970

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“न जड़ं क्वचित् सर्वं चिन्मात्र मेव हि”

अर्थात्—“संसार में जड़ कुछ है ही नहीं सब कुछ चेतना मात्र है।” शास्त्रकार की यह बात सामान्य मनुष्य की समझ में नहीं आई। योग की सिद्धावस्था तक पहुँचे हुये, महर्षि रामकृष्ण जब भावावेश में आते थे, वह दक्षिणेश्वर की काली की मूर्ति से माँ-माँ कहते हुये लिपट जाते थे। मूढ़ और जड़ बुद्धि लोगों के लिये यह भावाभिव्यक्ति शाँतिपूर्ण लगी होगी, उन्हें अपनी बुद्धिशीलता का गर्व हुआ होगा, उमड़ती हुई भावनाओं में उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया होगा पर आज का वैज्ञानिक कहता है, सचमुच संसार में जड़ता कुछ नहीं है। चेतना ही चेतना, भाव ही भाव है सब कुछ।

स्थूल आँखों से देखने में यह बात आधी सच लगती है। सूर्य, चन्द्रमा, तारे, रेल, मोटर, बसें और चलने-फिरने वाले पक्षी जीव-जन्तुओं में तो कुछ चेतनता, कुछ हलचल दिखाई भी देती है पर पृथ्वी, मकान, वृक्ष, लोटा-थाली बर्तन, पुस्तकें, पौधे, यह तो सब स्थिर लगते हैं। यह भी चंचल और गतिशील रहे होते तो हम रात मकान नं. 313 कलेक्टरगंज में सोते और प्रातःकाल जब जागकर उठते तो अपने आपको मकान नं. 312 की बगल में नहीं, 1685 मुहल्ला रामदास मंडी में पाते।

इससे शास्त्रकार की बात असत्य नहीं हो गई? हमारी समझ मात्र का अंतर है, अन्यथा वस्तुतः संसार में जड़ता कुछ है ही नहीं, जड़ता हमारी मानसिक स्थिति के कारण है, जितनी स्थूल बुद्धि होगी, उतनी ही स्थूलता सृष्टि में दिखाई देगी। यदि हम भावनाओं की गहराई से संसार को देखने और परखने लगें तो अपने दिखाई देने वाले शरीर, मकान, शहर, खेत, पेड़−पौधे तक अपने साथ रहने के लिये तैयार नहीं सब चेतन, गतिशील अपने−अपने उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न दिखाई देने लगें। सृष्टि का प्रत्येक परमाणु चंचल है। अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिये सब अशाँत हैं, न जाने क्यों यह मूढ़ता तो मनुष्य के पल्ले आ पड़ी कि वह समय और पदार्थों की स्थूलता के आगे की बात सोच ही नहीं पाता। अपने आपको वस्तुओं से आसक्त, बाँधे हुये, माया−मोह के चक्कर में पड़ा हुआ, कामनाओं और वासनाओं में घिरा हुआ, कष्टपूर्ण जीवन जीता रहता है।

एक वैज्ञानिक ने एक लोहे की एक शलाका ली, उसका एक शिरा आग में लगाया, दूसरा हाथ में पकड़े रहा थोड़ी ही देर में दूसरा सिरा भी गर्म हो गया। शलाका हाथ से फेंक देनी पड़ी। पूछा गया शलाका क्यों फेंक दी? गर्म हो गई इसलिये, उन्होंने बताया, कैसे गर्म हो गई? अगला प्रश्न पूछा—जिज्ञासु ने तो वैज्ञानिक ने बताया कि अग्नि चेतन है, उसके कण जब लोहे की शलाका के स्थूल लौह परमाणुओं से टकराये तो उन परमाणुओं में विद्यमान चेतनता (लोहे के परमाणु में भी इलेक्ट्रान्स चक्कर काटते रहते हैं) ने अपना नियमित मार्ग बदल दिया। इलेक्ट्रान जो अब तक परमाणु की सीमा में बंधे थे, आग की गर्मी लगते ही ऐसे भागे जैसे ज्ञान के उदय होने पर राग−द्वेष और वासनायें भाग खड़ी होती हैं। अग्नि की ताप सारे परमाणुओं में यह हलचल उत्पन्न करती चली गई और दूसरा सिरा भी गर्म हो गया। वैसे बाहर से देखने में शलाका में अब भी कोई अंतर नहीं आया था। चेतना शक्ति है, जब तक वह रहती है, मनुष्य या कोई भी वस्तु स्निग्ध प्राणवान गर्म और प्रकाशवान दीखती है पर जड़ता के आते ही यह गुण समाप्त हो जाते हैं, इसलिये निश्चयपूर्वक भावनाशील व्यक्ति को अधिक शक्तिशाली कहा जा सकता है।

चेतना के सूक्ष्मतम स्वरूप का चिन्तन न करने के कारण ही हमारी बुद्धि जड़तावादी हो गई है। पृथ्वी हमें इसीलिये जड़ दिखाई देती है, क्योंकि हमने अपनी भावनात्मक चेतना के द्वारा उसे देखने का प्रयत्न नहीं किया। अब आप यह मानिये कि आप एक छोटे बच्चे हैं। आपके एक हाथ में एक हथौड़ा है, दूसरे में पृथ्वी छोटे से मिट्टी के गेंद के समान। हथौड़े से पृथ्वी को पीस डालिये। देखिए पहाड़ नदियाँ, समुद्र, वृक्ष−वनस्पतियाँ सब रेत हो गये। इस रेत के किसी टुकड़े को एक छोटी−सी चीमटी से पकड़ कर प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) से देखिये शायद कुछ साफ न दिखाई दे तो न्यूक्लियर माइक्रोस्कोप से देखिये परमाणु के भी टुकड़े न्यूट्रॉन, प्रोट्रॉन, इलेक्ट्रान, पाजिट्रान, क्रोमोसोम, जीन्स, आदि का अध्ययन इसी सूक्ष्मदर्शी से किया जाता है। आप देखेंगे उस टुकड़े में जो पृथ्वी का सबसे लघुतम टुकड़ा होगा, कैसी हलचल मची हुई है। आप उस छोटाई का अनुमान नहीं कर सकते हों तो एक सेन्टीमीटर में उन परमाणुओं को बिछाकर देख लें, इतनी सी जगह में एक करोड़ परमाणु आराम से बैठे मिलेंगे। इतना छोटा कि जिसकी कल्पना भी न की जा सके।

अब इसका नाभिक (न्यूक्लियस) देखते हैं तो लगता है, यह तो और भी छोटा है। एक सेन्टीमीटर स्थान में 100000000000 (एक नील) नाभिक मजे में समा सकते हैं। इस छोटी से छोटी स्थिति में भी कितनी हलचल है, यदि आप उसे देख पायें तो आप भी यही कहें—

आकाशो भूजलं वायुरग्निर्ब्रह्मा हरिः शिवः। यत्किंचिधन्नं किंचिच्च सर्वं चिन्मात्र मेवहि॥

—तेजबिन्दुपनिषद 1।28,

आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, ब्रह्मा, विष्णु, महेश जो कुछ है और नहीं है, वह सब चैतन्य ही है। “न जड़ं क्वचित्” जड़ तो कुछ है ही नहीं।

अनुभव में न आने वाली यह चेतना जितनी सूक्ष्म है, उतनी ही विराट भी। पानी का एक परमाणु एक सेकिंड में 30 खरब टक्करें लेता है, उसकी एक परिक्रमा की दूरी इंच के दस करोड़वें भाग जितनी होती है पर इतनी सशक्त कि यदि उसे छेड़ दिया जाये तो इसी परमाणु की चेतना संपूर्ण पृथ्वी को जलाकर खाक कर सकती है। बमों की रचना में इसी शक्ति वाले भाग को छेड़ा जाता है। उसके वीभत्स परिणाम लोग नागासाकी के विध्वंस के रूप में देख चुके। मनुष्य की भावनात्मक चेतना में उससे भी कई गुनी प्रचण्ड और चमत्कारिक शक्ति होती है, जो कभी−कभी ही प्रभाव में आती है।

कोल्हापुर में एक परमहंस सन्त हो गये हैं। वे जब भावनाओं के आवेश में आते थे तो कोई कुछ भी देता जाता था, वह खाते चले जाते थे। एक बार कुछ बुरे व्यक्तियों को शरारत सूझी—उन्होंने दो भरी बोतलें शराब की दे दीं, परमहंस उन्हें पी तो गये पर संभवतः उस प्रभाव से उनकी व्याकुलता बढ़ी होगी और उसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि उन दुष्ट लोगों को तत्काल कुष्ठ हो गया।

सामान्य अवस्था में यह शक्ति प्रसुप्त अवस्था में होती है, इसलिये वह समझ में नहीं आती या उसका प्रभाव दिखाई नहीं देता, किन्तु यदि साधना तपश्चर्या द्वारा अपने ही भीतर की भावनात्मक चेतना को जागृत कर लिया जाये तो मनुष्य सूर्य चेतना की तरह सर्वसमर्थ और शक्तिशाली हो सकता है। सामान्य और सुषुप्त अवस्था की चेतना शक्ति सूर्य की चेतना के समान ही दृष्टिगोचर नहीं होती पर वह शक्ति है असंदिग्ध।

अणुओं की चाल अनियमित होती है, इसलिये त्रिज्या को पार करके सूर्य के सतह तक पहुँचने में ही उसे कई वर्ष लग जाते हैं। सूर्य ताप के धन और ऋण अणु जब टकराते हैं तब उनमें केवल एक सेन्टीमीटर की ही उछाल होती है, इसलिये वे अणु कितनी ही तेजी से उछलें सतह तक पहुँचने में उसे काफी समय लग जाता है, इस बीच वह कोई प्रकार की किरणों में बँटकर चारों ओर प्रकीर्ण हो जाता है, इस तरह ताप शक्ति की थोड़ी−सी ही मात्रा व प्रकाश पृथ्वी तक आ पाती है और उतने से ही पृथ्वी की गतिविधियाँ चलती रहती हैं। शक्ति वाला अंश धीरे−धीरे प्रवाहित होता रहता है।

यह चेतना शक्ति ही समुद्र, वायु, वृक्ष−वनस्पतियों और मनुष्यों तक में काम करती रहती है। दरअसल पृथ्वी में दिखाई देने वाली हलचल बिलकुल स्तब्ध रही होती, यदि यह चेतना उतरकर न आई होती यह चेतना ही अनन्त स्वरूपों में विभक्त होकर विलक्षण सृष्टि उत्पन्न कर रही है। वही सब सिमट कर अलग हो जाती है तो मनुष्य का शरीर खाक होकर नष्ट हो जाता है।

हम जो भी बोलते−सुनते, खाते−पीते, भाव, अहंकार, आकांक्षायें, इच्छायें रखते हैं, वह सब चेतना के गुण हैं, शरीर नष्ट हो जाने पर भी चेतना में इनकी वासनायें और संस्कार बने रहते हैं, इसीलिये शास्त्रकार ने बार−बार आत्म−चेतना को जानने और उसे शुद्ध करने के लिये सावधान किया है। चेतना कभी मरती नहीं, रूपान्तर भर होता है, इसलिये भावनात्मक चेतना में ढँके लोगों की अमरता का अविश्वास करने का कोई कारण नहीं रह जाता।


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