माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे।

January 1970

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डॉ. बारमस रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) की बीमारी पर एक शोध−कार्य चला रहे थे। अनेक रोगियों का अध्ययन करते समय उन्होंने जो एक सामान्य बात पाई वह यह थी कि रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) के अधिकाँश बीमार लोग माँसाहारी थे। उनके मस्तिष्क में एक विचार उठा कि कहीं माँसाहार ही तो रक्तचाप का कारण नहीं है, यदि है तो किन परिस्थितियों में? इस प्रश्न के समाधान के लिये उन्होंने प्रयोग की दिशायें ही बदल दीं। अब वे माँसाहार से होने वाले शरीर पर प्रभाव का अध्ययन करने लगे। उनके प्रयोग और निष्कर्ष बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुये दूसरे वैज्ञानिकों ने भी माना कि माँसाहार केवल शरीर ही नहीं, मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। दोनों पर उसकी प्रतिक्रिया दूषित और अस्वाभाविक होती है।

कई माँसाहारी जीवों को कुछ दिन के लिये माँस देना बिलकुल बन्द कर दिया गया। इस अवधि में निर्वाह के लिये उन्हें घास, सब्जी और फल खाने को दिये गये। देखा गया कि ऐसा करने से कुछ दिन में ही इन जानवरों का उतावलापन मन्द पड़ गया, वे काफी शान्त रहने लगे, कम हिंसक हो चले।

एक दूसरे कमरे में कुछ शाकाहारी जीवों को रखकर उन्हें माँसाहार के लिये विवश किया गया। उनमें से कुछ ऐसे थे, जिन्होंने तो आमरण अनशन ही कर दिया, उन्होंने माँस को सूँघा तक नहीं। अन्त में परीक्षण के लिये उन्हें अम्लीय (एसिडिक) आहार दिया गया। इससे उन पर बड़े दूषित प्रभाव दिखाई दिये, उनकी पाचन क्रिया अवरुद्ध हो गई और कई तरह के रोगों ने घेर लिया। उनमें अधिक स्वार्थपरता आ गई, उनका सौम्य स्वभाव नष्ट हो गया, वे गुर्राने और काटने तक लगे। पहले उनके पास जाने में उन्हें कोई भय नहीं लगता था। वे सकरुण आँखों से देखते रहते थे। पर इस तरह के प्रयोग के बाद उनमें संशयशीलता की मात्रा एकाएक बहुत अधिक हो गई।

माँस मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं हो सकता। हम इस संसार में सुख−शाँति और निर्द्वंद्वता का जीवन जीने के लिये आये हैं। आहार हमारे जीवन धारण की सामर्थ्य को बढ़ाता है, इसलिये पोषण और शक्ति प्रदान करने वाला आहार तो चुना जा सकता है, किन्तु जो आहार हमारी मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों को नष्ट करता हो, वह पौष्टिक होकर भी स्वाभाविक नहीं हो सकता। हमारे जीवन की सुख−शाँति शरीर पर उतनी अवलम्बित नहीं, जितना इनका संबंध मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धता से है। इसलिये जो आहार इन तीनों को शुद्ध नहीं रख सकता, वह हमारा स्वाभाविक आहार कभी भी नहीं हो सकता।

बहुत स्पष्ट बात है। जंगल के शेर, चीते, भेड़िये भालू, लकड़बग्घे माँसाहार करते हैं, इन्हें देखकर लोग कहते हैं कि शक्तिशाली होने के लिये माँसाहार आवश्यक है। उनकी एक दलील यह भी होती है कि माँस खाने की प्रेरणा स्वयं प्रकृति ने दी है, समुद्र की बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को जंगल के बड़े जन्तु छोटे जीवों को मारकर खाते रहते हैं? प्रकृति ने मानवेत्तर प्राणियों की संख्या न बढ़ने देने के लिये ऐसी व्यवस्था की है पर मनुष्य उन परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न है, जिनमें अन्य जीव−जन्तु जन्म लेते, बढ़ते और विकसित होते हैं। शेर, चीते माँसाहारी होने के कारण बलवान् होते हैं पर उनमें इस कारण दुष्टता और अशाँति से जो संशयशीलता उत्पन्न होती है, वह उन्हें भयग्रस्त और कायर बना देती है। शेर दिन भर भय ग्रस्त रहता है। चीते और भेड़िये खूँखार होने के अतिरिक्त समय केवल इसी प्रयत्न में रहते हैं कि कहाँ छिपे रहें, जिससे कोई उन्हें देख न ले या मार न डाले। साँप चलते हुए इतना भय ग्रस्त होता है कि सामान्य सी खुटक से भी वह बुरी तरह घबड़ा जाता है। मनुष्य भी यदि माँसाहार करता है तो उसमें भी स्वभावतः ऐसी संशयशीलता, अविश्वास और भय की भावना होनी चाहिये। यह बुराइयाँ मनुष्य को सदैव ही अधःपतित करती रही हैं।

हाथी माँस नहीं खाता, बैल और भैंसे माँस नहीं खाते, साँभर नील गाय शाकाहारी जीव हैं, यह शक्ति में किसी से कम नहीं होते। भारतवर्ष संसार के देशों में एक ऐसा देश है जिसमें अधिकाँश लोग अभी भी शाकाहार करते हैं यह प्रत्यक्ष उदाहरण है कि भारतीयों जैसा शौर्य संसार की किसी भी जाति में नहीं है। यदि किसी में है भी तो वह चील−झपट्टे जैसा है। आकस्मिक प्रहार तो एक बच्चे का भी प्राण घातक हो सकता है, उसे शौर्य कभी नहीं कहा जा सकता। वीरता आत्मा की पवित्रता का गुण है और वह माँसाहार से कदापि विकसित नहीं हो सकता।

किन्हीं अंशों में ऐसा न भी हो तो भी मनुष्य का पाचन संस्थान माँसाहारी प्राणियों के पाचन संस्थान की तरह कठोर और बलवान् नहीं होता। वह कम अम्लीय प्रकृति (एसिडिक नेचर) का ही आहार पचा सकता है। माँस में क्लिष्ट प्रोटीनों (काम्प्लेक्स प्रोटीन्स) की मात्रा अधिक होती है, अधिक प्रोटीन युक्त भोजन वैसे ही रक्त को अधिक अम्लीय बना देते हैं। माँसाहारी जन्तुओं का पाचन संस्थान काफी शक्तिशाली होता है। इनका माँस पचता है, तब काफी मात्रा में एमीनो एसिड बन जाता है, उसी एमीनो एसिड को यकृत (लिवर) प्रोटीन्स में बदल देते हैं। इसीलिये लगता है माँसाहार में शक्ति अधिक है।

किन्तु एमीनो एसिड में यूरिया (मूत्र) की मात्रा भी कम नहीं होती। सार्कोलैक्टिक एसिड भी माँसाहार से बनता है। यह दोनों पदार्थ रक्त में उसी मात्रा में शोषित (आब्जर्व) हो जाते हैं। ऐसा दूषित रक्त जब मस्तिष्क में परिभ्रमण करते हुये पहुँचता है, तब अधिक अम्लीय होने के कारण नाड़ी संस्थान (नर्वस सिस्टम) के नियंत्रक मस्तिष्क (पिट्युटरी ग्लैंड) में थकावट (फटीग) और अशुद्धता उत्पन्न करता है। इस थकावट और अशुद्धता को दूर करने के लिये अधिक रक्त की आवश्यकता आ पड़ती है, फलस्वरूप हृदय की धड़कन गति बढ़ जाती है और मस्तिष्क को ज्यादा खून पहुँचने लगता है। इसी कारण रक्त चाप (ब्लड प्रेशर) की बीमारी उठ खड़ी होती है।

गाँवों में रहने वाले लोगों को प्रायः लकड़बग्घे, बाघ या भेड़ियों का सामना करना पड़ जाता है। शहरी लोग चिड़िया−घरों में इन जन्तुओं को देखते हैं, जो इनके समीप से गुजरे होंगे उन्हें मालूम होगा कि उनके पास पहुँचने के काफी दूर से कितनी भयंकर दुर्गन्ध आने लगती है, उनके पास तो अधिक देर खड़ा भी नहीं हुआ जाता। यह दुर्गन्ध दरअसल और कुछ नहीं माँसाहार से रक्त में बढ़े मूत्र (यूरिआ) और सार्कोलैक्टिक एसिड के कारण होती है। यह तत्त्व मनुष्य के रक्त में मिलकर मस्तिष्क में दुर्गन्ध भर देते हैं, उससे कई बार लोग अच्छी स्थिति में अशाँति, असन्तोष, उद्विग्नता और मानसिक कष्ट अनुभव करते हैं, यह तो स्थूल बुराइयाँ हैं, आत्मा पर पड़ने वाली मलिनता तो इससे अतिरिक्त और अधिक निम्नगामी स्थिति में पटकने वाली होती है।

माँस के प्रोटीन उपापचय (मेटाबॉलिज्म) पर बुरा प्रभाव डालते हैं। शरीर में आहार पहुँचने से लेकर उसके द्वारा शक्ति बनने तक की क्रिया को उपापचय (मेटाबॉलिज्म) कहते हैं, यह कार्य निःस्रोत ग्रन्थियां (डक्टलेस ग्लैंड्स) पूरा करती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा ही मनुष्य की मनःस्थिति एवं संपर्क में आने वाले लोगों के साथ व्यवहार (रिएक्शन या विक्टैवियर) निर्धारित होता है। प्रोटीन्स की यह जटिलता (काम्प्लेक्सिटी) इन ग्रन्थियों को उत्तेजित करती रहती है, इसलिये ऐसा व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी कुछ भी बुरा कार्य चोरी, छल, अपमान, लूटपाट, उच्छृंखलता और बलात्कार कर सकता है। पाश्चात्य देशों में यह बुराइयां इतनी सामान्य (कॉमन) हो गई हैं कि लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं रहा कि क्या यह आहार की गड़बड़ी का परिणाम तो नहीं। जिस दिन वहाँ के लोग यह अनुभव कर लेंगे कि मन, आहार की ही एक सूक्ष्म शक्ति है और उनकी मानसिक अशाँति का कारण मानसिक विकृति है, उस दिन सारे पाश्चात्य देश तेजी से इस दुष्प्रवृत्ति हो छोड़ेंगे।

इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जार्ज बर्नार्ड शा को जब माँसाहार की अनैतिकता मालूम पड़ गई थी, उसी दिन से उन्होंने माँसाहार बन्द कर दिया था। जहाँ इस तरह के पाश्चात्य विचारक माँसाहार से घृणा कर रहे हैं, दुर्भाग्य ही है कि यहाँ हमारे देश के शाकाहारी लोग भी भ्रम में पड़कर माँसाहार को बढ़ावा देते चले जा रहे हैं। उसी का परिणाम है कि पूर्व भी धीरे-धीरे पश्चिम बनता जा रहा है। अपने देश को इससे बचाने के लिये एक व्यापक विचार क्राँति लानी पड़ेगी। माँसाहार करने वालों को इन बुराइयों से अवगत और सचेत किए बिना हमारी आने वाली पीढ़ियों की सुख-शाँति एवं व्यवस्था सुरक्षित न रह पायेगी।

ऊपर बता आये हैं कि माँस में कुछ अत्यन्त क्लिष्ट (कांप्लेक्स) प्रोटीन होते हैं, प्रारम्भ में जब कोई नया-नया माँस खाना प्रारम्भ करता है, तब उसके पाचन संस्थान की पूर्व संचित शक्ति काम देती रहती है पर वह शीघ्र ही समाप्त हो जाती है, तब क्लिष्ट प्रोटीन (काम्प्लेक्स प्रोटीन) को सरल प्रोटीन (नार्मल प्रोटीन्स) बनाने के लिये किन्हीं विशेष द्रवों के लेने की आवश्यकता पड़ने लगती है, जो यह कार्य कर सकें। यह द्रव अल्कोहल या शराब होते हैं। शराब क्लिष्ट प्रोटीनों को रासायनिक क्रिया के द्वारा (बाई केमिकल रिएक्शन) प्रोटीन अम्ल रस में बदल देता है, इस प्रकार एक बुराई से दूसरी बुराई, दूसरी से तीसरी बुराई का जन्म होता चला जाता है।

इंग्लैंड और अमेरिका आदि प्रधान आमिषाहारी देशों में प्रायः 7 वर्ष की आयु से ही बच्चों को इसी कारण शराब देनी प्रारम्भ कर दी जाती है। अन्य माँसाहारी जातियों में भी शराब इसीलिये बहुतायत से पी जाती है। पाश्चात्य देशों में शराब (बीयर) जल की तरह एक आवश्यक पेय हो गया है। आहार की यह दोहरी दूषित प्रक्रिया वहाँ के जीवन को और भी दुःखद बनाती चली जा रही है।

माँसाहार से स्वास्थ्य की विकृति उतनी कष्टदायक नहीं है, जितना उसके द्वारा भावनाओं का अधःपतन और उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुये दुष्परिणाम। मनुष्य परस्पर दया, करुणा और उदारता के सहारे जीवित और व्यवस्थित है। इन्हीं गुणों पर हमारी व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक और सम्पूर्ण विश्व की सुख-शाँति एवं सुरक्षा बनी हुई है। भले ही जानवरों पर सही जब मनुष्य माँसाहार के लिये वध और उत्पीड़न की नृशंसता बरतेगा तो उसकी भावनाओं में कठोरता, अनुदारता और नृशंसता के बीज पड़ेंगे और फलेंगे-फूलेंगे ही। कठोरता फिर पशु-पक्षियों तक थोड़े ही सीमित रहेगी, मनुष्य-मनुष्य के बीच भी उसका आदान-प्रदान होगा।

मानवीय भावना का यह अन्त ही आज पश्चिम को दुःख−ग्रस्त, पीड़ा और अशाँति−ग्रस्त कर रहा है, यही लहर पूर्व में भी दौड़ी चली आ रही है। वहाँ की तरह यहाँ भी हत्या, लूटमार, बेईमानी, छल−कपट, दुराव, दुष्टता, व्यभिचार आदि बढ़ रहे हैं और परिस्थितियाँ दोषी होंगी, यह हमें नहीं मालूम पर माँसाहार का पाप तो स्पष्ट है, जो हमारी कोमल भावनाओं को नष्ट करता और हमारे जीवन को दुःखान्त बनाता चला जा रहा है। समय रहते यदि हम सावधान हो जाते हैं तो धन्यवाद अपने आपको, अन्यथा सर्वनाश की विभीषिका के लिये हम सबको तैयार रहना चाहिये। माँस के लिये जीवात्माओं के वध का अपराध मनुष्य जाति को दण्ड दिये बिना छोड़ दे, ऐसा संभव नहीं, कदापि सम्भव नहीं।


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