वृक्ष ने पथिक से कहा—“तुम जितनी बार पत्थर मारोगे, उतनी ही बार उपहार में मैं फल दूँगा। यह तो मेरा व्रत है। पत्थर का उत्तर पत्थर से देना मुझे नहीं आता, भले ही मुझे क्षत−विक्षत होना पड़े।” पथिक ने कुढ़कर कहा—“तुम यों फूलो−फलो और मैं भूखा फिरूं, क्या यह तुम्हारा और तुम्हारे भगवान् का अन्याय नहीं।”
वृक्ष ने हँसकर कहा—“ईर्ष्या क्यों करते हो पथिक! मेरे पतझड़ के कष्टों को देखते तो पता चलता कि यह फल मैंने कितनी तपश्चर्या से प्राप्त किये हैं। तुम भी वैसा पुरुषार्थ कर देखो।”
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