मेजर कार्लडिक को एक साधु का श्राप

January 1970

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सूर्य भगवान की किरणें नई-नई फूटी थीं। मेजर कार्लडिक अपने नित्य के नियम के अनुसार बरामदे में कुर्सी पर बैठे हलकी धूप में शरीर सेंक रहे थे। नौकर चाय बनाकर लाया। चाय पी और विचारों की मस्ती में खो गये।

घटना प्रारम्भ होने से पूर्व यह बता देना आवश्यक है कि यह जो कुछ लिखा जा रहा है, वह न तो कोई गल्प कथा है, न कहानी वरन् सियालकोट छावनी के इतिहास का एक सच्चा प्रसंग है। बात उन दिनों की है, जब पाकिस्तान नहीं बना था। रायल आर्मी मेडिकल कोर उन दिनों सियालकोट में थी। तब अंग्रेज अफसरों के लिये भारतीय अफसरों व जवानों को सबसे अलग निवास के लिये बँगले दिये जाते थे। मेजर कार्ल डिक इसी कोर से सम्बन्धित थे पर अब वे रिटायर्ड हो चुके थे। उनके निवास का प्रबन्ध अब तक भी स्थायी अफसरों की लाइन में ही था।

अभी वे चाय पीकर चुके ही थे कि गेरुए वस्त्र में एक साधु कहीं से आ पहुँचे। साधु की मुख मुद्रा देखने से ही लगता था या तो इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया है या फिर योग की उच्च-स्तरीय भूमिकाएं पार कर सिद्धावस्था प्राप्त है उन्हें। मस्तक पर अपूर्व तेज। भिखारियों की तरह विद्रूप मलिनता और आत्म-हीनता का भाव नहीं वरन् हाव-भाव, चाल-ढाल सबसे विलक्षण स्वाभिमान और राम बादशाह की सी मस्ती। कमण्डल के अतिरिक्त और कोई वस्तु साथ में नहीं, मुख चिर-प्रसन्नता से उद्दोत न कोई दीनता का भाव, न थकावट और परेशानी का।

“कई दिन की भूख और प्यास तंग कर रही है, साहब!” साधु ने विनम्र शब्दों में पूछा—“यदि एक- दो रोटी, टोस्ट, चाय या थोड़े से पैसे मिल जाते तो आपकी बड़ी कृपा होती?”

मेजर डिक ने चिलचिलाती गर्मियों में जैसी धूप होती है, आँखों से ऐसी ही ताप बिखेरते हुये, साधु की ओर देखा और उपेक्षा से बोले—“जाओ-जाओ और किसी घर में माँग लो, मेरे पास खिलाने का ठेका नहीं।”

भारतीय तब परतन्त्र थे, इसलिये अंग्रेज वैसे ही—भारतीयों को बहुत रौब-दाब दिखाया करते थे, साधुओं के बारे में तो उनकी मान्यतायें और भी खराब थीं। इसका कुछ कारण तो साधु आप भी हैं। संन्यास के मर्म को समझे बिना साधना की कठिनाइयों को झेल सकने की क्षमता न होने पर भी वैराग्य का ढोंग करने वाले पलायनवादी श्रेणी के लोगों ने घुसकर साधुओं की संख्या न बढ़ाई होती, भीख माँगना, नशेबाजी करना आलस्य और प्रमोद में पड़े रहने जैसी अनेक तरह की धूर्ततायें ने की होतीं तो यों उपेक्षा और अपमान के दिन देखने को न मिलते। इस तरह तो उन्होंने अपनी कम, अपने धर्म और संस्कृति की मिट्टी कहीं अधिक कुटाई।

साधु ने इस उपेक्षा का बुरा नहीं माना। योगी का लक्षण ही है कि वह सुख-दुख, मान-अपमान में सदैव एक समान रहता है। उन्होंने हंसकर कहा—“साहब ! नाराज न हों, क्या हिन्दू,क्या ईसाई, सृष्टि तो सभी एक परमात्मा की ही बनाई है। आप भेद क्यों करते हैं, आपसे थोड़े से भोजन की याचना की है। सम्भव हो तो पूरा कर दें। कटु शब्द तो अपने बच्चों में भी नहीं कहना चाहिये।

साहब की सहनशीलता कागज की नाव पानी में डालते ही गल गई। बड़े क्रोध से बोले—जाता है यहाँ से या अभी नौकर को बुलाकर धक्के मारकर बाहर निकलवा दूँ।

साधु की मुख-मुद्रा में अभी भी न तो किसी प्रकार का क्रोध का भाव था, न प्रतिशोध का। लोग समझें न समझें पर इतनी गम्भीरता, पत्थर की तरह दृढ़ता और किसी भी कठिन से कठिन परिस्थिति में इतना धैर्य धारण की क्षमता किसी भारतीय में ही रही है। संसार की किसी भी संस्कृति ने ऐसी सहिष्णुता का पाठ अपने अनुयाइयों को नहीं पढ़ाया होगा। हमारी यह उपलब्धि भी किसी चमत्कार से कम नहीं। हलके व्यक्ति उसे धारण करने में न कभी सफल हुये, न कभी होंगे। साधु ने धीमे से मुस्कराते हुये कहा—महाशय! जहाँ तक मेरे शरीर को अपमानित करने का प्रश्न है, वह कोई महत्त्व नहीं रखता पर चूँकि आपका सीधा कटाक्ष यह है कि भारतीय योग, तत्त्व-दर्शन और हम साधुओं का कोई आदर्श अथवा सिद्धान्त नहीं, हमारे धर्म में कोई प्राण नहीं—यह असह्य है, इसलिये अब आप अपने नौकर को बुलाइये, आप देखेंगे कि वह मेरे पास आते आते पत्थर की तरह अचल हो जायेगा।

मेजर डिक का क्रोध, सीमा पार कर गया। चिल्लाकर नौकर को बुलाया और कहा—“इस मूरख को धक्के मार कर निकाल दो।” नौकर भागा-भागा आया और मेजर की आज्ञा पालन करने के लिये जैसे ही आगे बढ़ा कि उसके पाँव काठ की तरह निश्चेष्ट पड़ गये। आंखें निकल आईं, एकटक भयभीत-सा देख रहा था, पर वह एक इंच भी आगे नहीं बढ़ रहा था। साहब ने बहुतेरा डाँटा पर नौकर ऐसी अनसुनी कर गया जैसे हम किसी पत्थर के आगे कुछ बकते रहते हैं और उस पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता।

साधु ने हँसकर कहा—“साहब ! नौकर पर नाराज क्यों होते हो, वह तो अब मेरी इच्छाओं का वशवर्ती है, कहें तो आपको बाहर निकलवा दें। आप समझते हैं, हमारी योग-साधनायें और तपश्चर्यायें मूर्खता हैं, आज आप अनुभव करें कि योग में साधारण मनुष्यों को ही नहीं, पर्वत और नदियों को भी इच्छानुवर्ती बना लेने की शक्ति है हमारा अहंकार न बढ़े इसलिये सामान्य मनुष्य की तरह हम भीख माँग कर खाना खाते और जीते हैं पर आप न भूलें योग की शक्ति वह सब कर सकती है, जो आपकी मशीनें, आपका विज्ञान भी नहीं कर सकता?”

मेजर साहब पर तो भौतिकता का भूत सवार था, अंग्रेजियत की शान चढ़ी हुई थी। एक हिन्दू साधु से एकाएक कैसे हार मान लेते। उन्होंने अपने पालतू कुत्तों को आवाज देकर पुकारा और साधु की ओर संकेत करके उन्हें बढ़ावा दिया कि वे साधु पर झपट पड़ें और उसे काट खायें पर जैसे उन्हें लकवा मार गया हो, दोनों खूँखार कुत्तों ने एक बार मेजर की ओर देखा दूसरी बार साधु की ओर और सिर झुकाकर ऐसे खड़े हो गये, जैसे कोई द्वारपाल किसी सम्राट के अभिवादन के लिये खड़े हों। पदार्थ की शक्ति पर चेतना की बड़ी भारी विजय थी। कुत्तों के शरीर तो क्या चेतना तक जवाब दे गई। काटना तो दूर वे भौंक तक नहीं सके।

मेजर के सारे शरीर से पसीना छूट गया। बुद्धि फेल गई। साधु ने कमण्डल से थोड़ा जल लिया और कहा—“साहब! मुझे आपसे कोई द्वेष नहीं पर अब चूँकि यह हमारे धर्म को अपमानित करने की बात थी, इसलिये यदि आपको कुछ दण्ड दिया जाये तो यह कोई दोष न होगा। मैं तुम्हें श्राप देता हूँ, आज से ठीक एक महीने पीछे तुम मेरी तरह भूख से तड़पोगे, इस सारे शहर में माँगने पर भी तुम्हें रोटी न मिलेगी। तुम इस शहर में रह भी नहीं सकोगे।” यह कर उसने जल एक ओर छिड़क दिया। और वहाँ से चुपचाप चल दिया। मेजर साहब का अभिमान अभी भी दूर नहीं हुआ था तो भी उनके मुख पर भय के भाव निश्चित रूप से दिखाई दे रहे थे।

साधु वहाँ से चलकर लगभग एक फर्लांग दूर उसी लाइन के एक अन्य बँगले में प्रविष्ट हुये। यह बँगला कर्नल जार्ज का था। उनकी पुत्री इला बरामदे में बैठी अंग्रेजी का समाचार−पत्र पढ़ रही थी। साधु उधर ही मुड़ गये।

बेटो! मुझे भूख लग रही है, कुछ खाने को मिलेगा क्या? साधु ने उसी विनयपूर्ण भाव और भाषा में पूछा, जिनका प्रयोग उन्होंने मेजर डिक के साथ किया था। इला को उन पर दया आ गई। भले ही उसने यह न समझा हो कि यह साधु कोई सिद्ध महापुरुष हैं पर उसे मानवता की सिद्धि का मूल्याँकन करना आता था। उसने सोचा यह किसी न किसी तरह धर्म और आस्तिकता का भाव तो जागृत करते ही हैं। समाज को इस तरह प्रकाश देने वाले को यदि थोड़ा भी दान दे दिया जाये तो बुरा क्या। केवल मात्र भिक्षा ही जिनका व्यवसाय है, भावना और फटकारना तो उन्हें चाहिये।

इला ने कहा—बाबा जी! बैठिये अभी आती हूँ। यह कहकर वह अन्दर गई। थोड़ा दूध, टोस्ट और कुछ फल लाकर साधु को दिये। साधु ने उन्हें खाया और पानी पिया। भूख शाँत हुई।

कृतज्ञता संसार का सबसे पहला पुण्य है। कोई हमारे साथ उपकार करे, हम उसका मूल्य न चुकाएं तो यह सबसे बड़ा पाप ही होगा। लड़की की यह दया यों एक कर्त्तव्य मात्र थी तो भी साधु और महान् व्यक्ति किसी का ऋण अपने ऊपर नहीं रखते। यदि वे कुछ भौतिक वस्तु नहीं भी दे सकते तो भी अपनी आत्म−शक्ति से औरों का भला करने से वे चुकते नहीं।

उन्होंने अपनी पोटली से एक फल निकाला। फिर कर्नल जार्ज की पुत्री की ओर देखकर कहा—“बेटी! तू नहीं जानती हम योगी यह बात आगे से आगे देख और जान लेते हैं, जो किन्हीं व्यक्तियों के साथ बाद में घटित होने को होती है। तुम्हारे घर में ठीक तीन सप्ताह बाद कोई बीमार पड़ेगा। डॉक्टर और हकीम भी उसका इलाज नहीं कर सकेंगे। हमारे आयुर्वेद पर आपको विश्वास तो न होगा पर मैं तुम्हें एक दुर्लभ औषधि देता हूँ, यह फल हिमालय में मिलता है। जब सारा उत्तराखण्ड बर्फ से ढँक जाता है, तब यह बड़ी कठिनाई से मिलता है। यह फल ही तुम्हें चमत्कार दिखायेगा।

जब तुम्हारे घर में कोई बीमार हो, डॉक्टर हार जायें तब तुम एक अंगीठी के कोयले फूँकना जब कोयले दहकने लगें, तब उसमें यह फल रख देना। थोड़ा धुआँ छूटेगा और पटाखे की आवाज की तरह वह फूट जायेगा। उसके तुरन्त बाद तुम देखोगी कि बीमार की हालत में आश्चर्यजनक सुधार होगा और वह थोड़ी देर में ही अच्छा हो जायेगा।

लड़की को थोड़ा विस्मय हुआ, थोड़ा कौतुहल। फल उसने यों ले लिया कि उसने कई भारतीय सहेलियों से सुना था—भारतीय योगी−साधु सचमुच चमत्कारी होते हैं। वैसे उसका इस पर कोई विश्वास न था। फल लेकर उसने अपनी पुस्तकों के बीच कहीं छुपाकर रख दिया।

तीन सप्ताह बीते कोई अनहोनी बात नहीं हुई। पर उसके अगले ही दिन कर्नल जार्ज आफिस में काम करते हुए एकाएक गम्भीर रूप से बीमार हो गये। काम छोड़कर उन्हें बीच में ही कार से घर पहुँचाया गया। इला बहुत हैरान थी, कुछ अपने पिता की बीमारी पर कुछ उस साधु की बात का स्मरण करके।

कई सुयोग्य मिलिटरी डाक्टरों ने उपचार किया पर कोई लाभ न हुआ। बंबई से भी एक डॉक्टर बुलाये गये वह भी बीमारी ठीक न कर सके। कर्नल जार्ज की स्थिति मरणासन्न हो चली।

उसी दिन अपराह्न वह साधु एकाएक फिर कर्नल साहब के बँगले पर दिखाई दिये। उस समय इला अपनी सहेली मेजर डिक की पुत्री के साथ अपनी रसोई में थी। साधु को देखते ही इला बाहर आ गई। साधु ने कहा—“बेटी! मुझे पता था तुम मुझ पर विश्वास नहीं करोगी तो भी तुम्हारे किये हुये उपहार का फल चुकाना मेरा कर्त्तव्य था, इसलिये दुबारा फिर आना पड़ा।”

आगे की बात प्रारम्भ रखते हुये उन्होंने कहा—“तुम्हारे पिताजी अस्वस्थ हैं, अब अन्तिम समय है, तुम उस फल का प्रयोग करो तभी कर्नल साहब अच्छे हो सकेंगे।

इला अपने पढ़ाई के कमरे में गई। वह फल निकाला अँगीठी जलाई। जब कोयला अंगार हो गये तो वह फल उस पर रख दिया। थोड़ा धुआं छूटा और फिर पटाखे की आवाज हुई। डॉक्टर ने आगे बढ़ना चाहा पर देखा सब कुछ ठीक है, इसलिये वहाँ से वापिस लौट पड़ा।

इधर बंबई से आये हुए डॉक्टर कर्नल साहब की नब्ज़ टटोल रहे थे। जो शरीर कुछ क्षण पहले शव हुआ चाहता था, एकाएक उसमें गर्मी और स्फूर्ति दिखाई दी। डाक्टरों ने निश्चय किया, यह मृत्यु के पूर्व की अन्तिम और तीव्र ज्योति है पर वे यह देखकर हैरान रह गये कि कर्नल साहब ने धीरे−धीरे आँखें खोल दीं। हलके−हलके मुस्कराने लगे। थोड़ी ही देर में स्थिति सामान्य हो चली। भयंकर स्थिति से देखते−देखते सामान्य स्वस्थ मनुष्य की सी स्थिति में आ जाना सचमुच बड़े आश्चर्य की बात थी। डॉक्टर हक्के−बक्के रह गये पर उस स्थिति का विश्लेषण कर सकना उनके लिये सम्भव कहाँ था। तो भी उन्होंने स्वीकार किया सचमुच अध्यात्म में कोई शक्ति है अवश्य जो पदार्थ की और भौतिक विज्ञान के नियमों का भी उल्लंघन कर सकती है। उन्होंने भारतीयों के योग की महत्ता भी समझी कि व्यक्ति ही अपनी आत्मा का उपकार कर सकता है और स्वीकार की—तब, जब इला ने और उसकी सहेली ने सारी घटना आद्योपान्त विस्तार से डाक्टरों को बताई।

मेजर डिक को दिया हुआ श्राप किस तरह फलित हुआ यह अगले अंक में दिया जा रहा है।

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