मनुष्य शरीर जैसी मशीन नहीं

January 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एलिवेटर या लिफ्ट एक ऐसी मशीन बनाई गई है, जिस पर बैठकर कई मंजिल की ऊँची इमारतों में क्षण भर में चढ़ा जा सकता है और सीढ़ियाँ चढ़ने की थकान से बचा जा सकता है। तार से सन्देश भेजने और उन्हें लिखित रूप में प्राप्त करने के लिये ‘टेलीप्रिन्टर’ मशीनें बनाई गई हैं। फैक सिमली नामक मशीनों पर आज-कल तार से चित्र भेजना भी सम्भव हो गया है। अमेरिका में हो रहे अधिवेशन के चित्र दूसरे ही दिन भारतीय समाचार पत्रों में छप जाते हैं, यह सब इसी मशीन की कृपा का फल है।

इसी प्रकार कैमरे, घड़ी, प्रेस, जाइरोस्कोप, जनरेटर कन्सर्टिला बेसिमर कन्वर्टर, विलियर्ड, टैंक आदि सैकड़ों मशीनें और आयुध मनुष्य की बुद्धिमत्ता की दाद देते हैं। ‘टेलस्टार’ नामक राकेट को तो संसार का महानतम आश्चर्य कहना चाहिए। भारी पृथ्वी को एक संचार सूत्र में बाँधने वाले 170 पौण्ड भार और कुल 34 इंच व्यास के इस यन्त्र में 3600 सौर बैटरियाँ लगी हैं, इसी की सहायता से हम संसार के किसी भी कोने में बैठे हुए व्यक्ति से ऐसे बातचीत कर सकते हैं, मानो वह अपने सामने या बगल में बैठा हुआ हो। इन सबके बनाने में मनुष्य की विलक्षण बौद्धिक क्षमता चमत्कार रूप में प्रकट हुई है, उस पर हम चाहें तो गर्व भी कर सकते हैं।

किन्तु मनुष्य शरीर जैसी मशीन बनाना मनुष्य के लिये भी सम्भव नहीं हुआ। ऐसी परिपूर्ण मशीन जो शरीर के रूप में परमात्मा ने बनाकर आत्मा को विश्व-विहार के लिए दी है, आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं बना सका। भविष्य में बना सकने की भी कोई आशा मनुष्य से नहीं है। यह परमात्मा ही है, जो अपनी इच्छा से ऐसी प्राणयुक्त मशीन का निर्माण कर सका। संसार की विलक्षण से विलक्षण मशीन भी उसकी तुलना नहीं कर सकती।

भारतवर्ष में रक्त का ताप 100 डिग्री फारेनहाइट माना जाता है। त्वचा का ताप 98 डिग्री फारेनहाइट। मौसम का तापमान इससे घटता-बढ़ता रहता है। गर्मी के दिनों में तापमान इतना बढ़ जाता है कि बाहर धूप में नंगे बदन निकलना कठिन हो जाता है। उसी प्रकार सर्दी के दिनों में कहीं-कहीं तापमान शून्य से भी नीचे चला जाता है और तब बड़ी-बड़ी मशीनें भी ठप्प पड़ जाती हैं। उनका पेट्रोल, डीजल भी जम जाता है। यह तो मनुष्य शरीर ही है कि वह कठिन गर्मी और शीत को भी बर्दाश्त कर लेता है। त्वचा एक ऐसा ताप-रेगुलेटर है, जो गर्मी में शरीर को ठण्डा और ठण्डक में उसे गर्म बनाये रखता है। इतना अच्छा ताप-रेगुलेटर वैज्ञानिक भी नहीं बना पाये।

थोड़ा-सा गढ्ढा पड़ जाये तो साइकिल में ऐसा धक्का लगता है कि सवार एक तरफ जा गिरता है और साइकिल एक तरफ। कई बार मोटरें, हवाई जहाज, गाड़ियाँ ऊँची-नीची जमीन में उड़ते हुये किसी वस्तु से टकरा जाते हैं और टूट-फूटकर नष्ट हो जाते हैं, किन्तु त्वचा और रीढ़ की हड्डियाँ ऐसे ढंग से भगवान् ने शरीर में बनाये हैं कि वह मनुष्य को हर घड़ी चोट लगने की टूट-फूट से बचाते रहते हैं, रीढ़ की हड्डी में इंटर बर्टेबल डिस्क लगी होती है, जो हर दो रीढ़ की हड्डियों के बीच में ऐसी फिट रहती है कि मनुष्य कैसी भी छलाँग लगाये, उछले-कूदे पर चोट लगने का कोई भय नहीं रहता। यह सबसे अच्छे चोट-बचावक (शाक-आब्जर्बर) का काम करती है। शाक-आब्जर्बर वस्तुतः रीढ़ की हड्डी की ही नकल है। मनुष्य तो दरअसल अपनी सूझ-समझ से थोड़ी वस्तुएं ही बना सका अधिकांश शरीर की नकल या उन सीखी हुई बातों का विकास (मॉडिफिकेशन) मात्र होता है। मनुष्य, मशीनें बनाने में इतनी बुद्धिमत्ता समय और सूझ-बूझ का उपयोग करता है, तब क्या अपने शरीर जैसी कोई मशीन बनी होगी, तब बिना किसी ज्ञान या सूझ-समझ के बन गई होगी।

हम इस पर थोड़ा-सा भी विचार करें तो यह मानना पड़ेगा कि संसार में कोई ऐसी नियामक सत्ता है अवश्य जो बुद्धिशील मनुष्य से भी अधिक दूरदर्शी और सूक्ष्म ग्रहणशीलता से सम्पन्न एवं सर्वसमर्थ है। वह ऐसे उपकरण बना सकती है, जो मनुष्य करोड़ों वर्ष का समय लगाकर भी नहीं बना सकता।

कैमरे एक से एक अच्छे बने हैं। सूर्य के प्रकाश से लेकर विद्युत प्रकाश के माध्यम से भी फोटो खींच सकते हैं पर ऐसा कोई कैमरा अभी तक नहीं बना, जिससे लेन्स (कैमरे का सामने वाला शीशा) के नाभ्यान्तर (फोक लेन्थ) को बदला जा सकता हो। फोटो लेने के लिये अच्छे कैमरों के लेन्स भी पहले एक निश्चित नाभ्याँतर (नाभ्याँतर उस दूरी को कहते हैं, जो लेन्स से प्रारम्भ होती है और जहाँ, जिस वस्तु की फोटो ले रहे हैं, प्रतिबिम्ब पड़ता है में जाकर समाप्त होती है) पर फिट कर लेते हैं, तभी सही फोटो ले सकते हैं। फिल्मों तक में मशीनें पहले फिट करनी पड़ती हैं, किन्तु आँख के रूप में भगवान ने हमें ऐसा कैमरा दिया है, जिससे पास से पास और दूर से दूर वस्तु को भी हम आँखों को आगे-पीछे किये बिना मजे में देख सकते हैं।

प्रिज़्म या त्रिविमीय (थ्री डाईमेंशनल) कैमरे बड़े अच्छे माने जाते हैं पर आँख उससे भी अच्छी—किसी भी रंग को ज्यों के त्यों अन्तर से दिखा देने वाली होती है। इसकी सुरक्षा, सफाई का स्वयं प्रबन्ध (ऑटोमेटिक सेफ एण्ड क्लीनिक) रहता है। कैमरे के द्वारा ली गई फोटो पहले उल्टी (निगेटिव) आती है, फिर उसे दोबारा प्रिन्ट किया जाता है, जबकि आँख एक ही बार में दोनों आवश्यकतायें पूरी कर देता है।

कान से अच्छा ध्वनि साफ करने वाला (साउण्ड फिल्टर) यन्त्र नहीं। रेडियो, बेतार का तार (वायरलैस) की आवाजें एक निश्चित ऊँचाई (फ्रीक्वेंसी) पर ही सुन सकते हैं, किन्तु कानों से किसी भी तरफ की कोई भी ऊँची हलकी आवाज सुन सकते हैं। कई आवाजें एक साथ सुनने या कोलाहल के बीच अपने ही व्यक्ति की बात सुन लेने की क्षमता कान में ही है।

ध्वनि साफ करने के लिये ‘रेक्टीफायर’ यन्त्र का प्रयोग किया जाता है। कुछ यन्त्रों में बैकुअम सिस्टम काम करता हैं और अच्छे यन्त्रों में ‘गस सिस्टम’ से ध्वनि साफ करते है। उसमें धन प्लेट (एनोड) और ऋण प्लेट (कैथोड) के साथ ग्रिड को भी जोड़ना पड़ता है, तब ध्वनि साफ होती है। यह सिद्धान्त बाहरी कान (एक्सटरनल इयर) मध्य कान (मिडिल इयर) और अन्तश्रवण (इन्टरनल इयर) की नकल मात्रा है। कान की तीन हड्डियाँ — (1) स्टेपिस (2) मेलियम और (3) अकेस इन्हीं की आकृति से ध्वनि सम्बन्धी यन्त्रों का विकास हुआ है। आवाज सुनने के लिए हमें सीधे कष्ट नहीं उठाना पड़ता वरन् एक प्रणाली (आडिटरी सेन्टर आफ दि ब्रेन) काम करती है, वह आवश्यकतानुसार आवाज के शीघ्र या धीमे प्रभाव में भी हमें अवगत कराती रहती है और हम उसके फलितार्थ से तुरन्त परिचित हो जाते हैं। साँप फुसकारता है तो यह प्रणाली केवल उस फुंसकार का बोध ही नहीं कराती वरन् खतरे से सावधान करने के लिए शरीर के सारे रोंगटे खड़े कर देती है। ऐसी बढ़िया व्यवस्था संसार की किसी भी मशीन में नहीं हो पाई।

श्वास-प्रश्वास तथा सूँघने की तो कोई मशीनें बन भी नहीं पाई। मस्तिष्क जैसी विचार क्षमता तो कम्प्यूटर में भी नहीं। यह सारी बातें ही वैज्ञानिक के महत्त्व को घटाती और बताती हैं कि संसार में कोई अदृश्य किन्तु बुद्धिसम्पन्न शक्ति है अवश्य उसकी कलाकारी की बराबरी मनुष्य नहीं कर सकता। यह तुलनायें तो बाहरी और स्थूल हैं। यदि मनुष्य अपनी चेतना को जान पाये जैसा कि योगविज्ञान बताता है तो मनुष्य अपनी त्वचा के छिद्रों से सारे विश्व को, आँखों से दूर से दूर की वस्तु को, कानों से विश्वव्यापी हलचल को देख-सुन और समझ सकता है। चमत्कार जैसी दीखने वाली यह बातें योगियों के लिए ऐसे ही होती हैं, जैसी कि वैज्ञानिकों के लिए एलेवेटर, टेलेप्रिन्टर टेलस्टार और टेलीविजन।

=कोटेशन======================================================

प्रसन्नता बाह्य पदार्थों में नहीं, यह तो हृदय के अन्दर की वस्तु है। जो बाहरी आडम्बरों से प्रभावित नहीं होता, वह सदैव प्रसन्न रहता है

—शेख सादी

==========================================================

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118