सम्राट जनमेजय प्रति माह कुछ समय राज्य में यह देखने के लिये भ्रमण किया करते थे कि उनकी प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं। विकास की जो योजनायें क्रियान्वित की जाती हैं, उनका परिपालन होता है या नहीं? उनका लाभ नागरिकों को मिलता है या नहीं?
वे एक गाँव से गुजर रहे थे। छिपे वेश में थे, इसलिये कोई पहचान नहीं सका। एक जगह लड़के खेल, खेल रहे थे। एक लड़का उनमें शासक बनकर बैठा था। सभासद बने लड़के सामने बैठे थे। शासक का अभिनय करने वाला लड़का जिसका नाम कुलेश था, खड़ा सभासदों को व्याख्यान दे रहा था—“सभासदों! जिस राज्य के कर्मचारीगण वैभव विलास में डूबे रहते हैं, उनका राजा कितना ही नेक और प्रजावत्सल क्यों न हो, उस राज्य की प्रजा सुखी नहीं रहती। मैं चाहता हूँ जो भूल जनमेजय के राज्याधिकारी कर रहे हैं, वह आप लोग न करें, ताकि मेरी प्रजा असन्तुष्ट न हो। तुम सबको वैभव−विलास का जीवन छोड़कर जीना चाहिये। जो ऐसा नहीं कर सकता वह अभी शासन सेवा से अलग हो जाये।”
सभासद तो अलग न हुये पर बालक की यह प्रतिभा उसे ही वहाँ से अवश्य खींच ले गई। जनमेजय उससे बहुत प्रभावित हुये और उसे ले जाकर महामन्त्री बना दिया। कुलेश युवक था तो भी वह बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से राज्य−कार्यों में सहयोग देने लगा। सामान्य प्रजा से उठकर अब वह महामंत्री बनने चला था, तब उसके पास एक कुदाली, लाठी और एक उत्तरीय वस्त्र (अंगोछा) के अतिरिक्त कुछ नहीं था, वह इन्हें अपने साथ ही लेता गया था।
उसके प्रधान मन्त्रित्व काल में अन्य मन्त्रियों, सामन्तों एवं राज्य कर्मचारियों के लिये एक आचार−संहिता बनाई गई, जिसके अनुसार प्रत्येक पदाधिकारी को दस घण्टे अनिवार्य रूप से कार्य करना पड़ता था। अतिरिक्त आय के स्रोत बन्द कर दिये गये। इससे बचा बहुत सा धन प्रजा की भलाई में लगने लगा। सारी प्रजा में खुशहाली छा गई। जनमेजय कुलेश के आदर्श व प्रबंध से बड़े प्रसन्न हुये।
पर शेष सभासद जिनकी आय व विलासितापूर्ण जीवन को बट्टा लगा था, महामंत्री कुलेश से जल उठे और उसे अपदस्थ करने का षड़यन्त्र रचने लगे।
उन्हें किसी तरह पता चल गया कि महामंत्री के निवास स्थान में एक कक्ष ऐसा भी है, जहाँ वह किसी भी व्यक्ति को जाने नहीं देता। जब वह दिन भर के काम से लौटता है, तब स्वयं ही कुछ देर उसमें एकान्तवास करता है।
सभासदों ने इस रहस्य को लेकर ही जनमेजय के कान भर दिये कि कुलेश ने बहुत सी सम्पत्ति अवैध एकत्रित कर ली है। महाराज उनके कहने में आ गये। अतएव जाँच का निश्चय कर एक दिन वे स्वयं सैनिकों सहित कुलेश के निवास पर जा पहुँचे। सब ओर घूमकर देखा पर महाराज को सम्पत्ति के नाम पर वहाँ कुछ भी तो नहीं दीखा। तभी उनकी दृष्टि उस कमरे में गई। वे समझे कुलेश निश्चय ही अपनी कमाई इसमें रखता है।
महाराज ने पूछा—“कुलेश! तुम इस कक्ष में एकान्त में क्या किया करते थे?” “इनकी पूजा महाराज!” उसने उत्तर दिया। कुदाली मुझे सदैव परिश्रम की प्रेरणा देती थी और लाठी स्वजनों की सुरक्षा की। उत्तरीय वस्त्र की पूजा मैं इसलिये करता हूँ कि घर हो या बाहर यही बिछौना मेरे लिये पर्याप्त है।” यह कहकर कुलेश ने तीनों वस्तुयें उठा लीं और वहाँ से फिर उसी ग्रामीण जीवन में चला आया।
महाराज! जनमेजय सभासदों के षड़यन्त्र से दुःखी होकर हाथ मलते रह गये। यही दुःख अब भी बना हुआ है। वह तब दूर हो जब कुलेश जैसे राज्य कर्मचारी देश में उत्पन्न हों।
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