श्रम का पुरस्कार

January 1970

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बहरूपियों ने राजा के दरबार में पाँच रुपये का प्रश्न किया, तो राजा ने कहा कि —“वह कलाकार को पुरस्कार तो दे सकते हैं, दान कदापि नहीं।” बहरूपिये ने स्वाँग प्रदर्शन के लिए तीन दिन का समय माँगा।

अगले दिन राजधानी के बाहर टीले पर एक जटाधारी तपस्वी समाधि मुद्रा में शाँत बैठा दिखाई दिया। उत्सुकतावश चरवाहे वहाँ जुट गये। और पूछने लगे—“महात्मन्! आप कहाँ से पधारे हैं? बाबा, कुछ भिक्षा ग्रहण करेंगे !”

पर उत्तर में दिव्य मौन। नगर लौटे चरवाहों से उस महान् तपस्वी का वर्णन सुनकर सभी नागरिकों, सेठों ओर दरबारियों की सवारियाँ नगर के बाहर की ओर महात्मा के दर्शनार्थ दौड़ पड़ीं। फल-फूल, मेवा-मिठाई के अम्बार लग गये, किन्तु साधु ने आंखें न खोलीं। तीसरे दिन महाराज का आगमन हुआ। लाख अशर्फियाँ चरणों पर रख वह साधु से आशीर्वाद की प्रार्थना करते रहे, किन्तु तपस्वी अचल रहा। चौथे दिन बहरूपिये ने दरबार में उपस्थित होकर अपने सफल स्वाँग के लिए पाँच रुपये के पुरस्कार की माँग की।

“छिः छिः मूर्ख ! सारे राज्य का वैभव तेरे चरणों में उमड़ पड़ा। पर तब तूने आँख खोलकर देखा भी नहीं। अब केवल पाँच रुपये के लिये...।”

“उस समय सारे वैभव तुच्छ थे राजन् !” बहरूपिये ने राजा की बात काटते हुए उत्तर दिया—“तब मुझे वेश की लाज रखनी थी, पर अब पेट की आग अपने श्रम का पुरस्कार चाहती है।”

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