संस्कृति के लिए त्याग

January 1970

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राजसूय—यज्ञ के समापन पर एक वृहत सांस्कृतिक समारोह मनाया गया। महाराज तुर्वस् के आग्रह पर इस आयोजन में महर्षि जैमिनि भी सम्मिलित हुए थे।

ऋषि के स्वागत में राजकुमारी अर्णिका ने नृत्य प्रस्तुत किया। संगीताचार्य बोहित ने साज दिया था। राजकुमारी ने देवपूजन की अद्भुत नृत्य−नाटिकायें, इस समारोह में प्रस्तुत कीं। दर्शक समाज को आत्म−विभोर कर दिया था उन्होंने।

जब उनके नृत्य−रास में सारा दर्शक समाज आत्मविस्मृत हो रहा था, त्रिकालज्ञ जैमिनि की आँखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। अर्णिका ने देखा महर्षि रुदन कर रहे हैं—“मैंने ऐसा तो कोई दृश्य प्रस्तुत नहीं किया, जो उत्तेजक या अश्लील हो फिर महर्षि दुःखी क्यों हो गये।” यह सोचते ही गति मध्य में ही भंग हो गई। पाँव रुक गये, हाथ नीचे, साज बन्द हो गया। सभा में इस अप्रत्याशित घटना के लिये सन्नाटा छा गया।

महाराज तुर्वस् की दृष्टि महर्षि के गीले मुख−मण्डल पर पड़ी। किसी अनहोनी के भय से उन्होंने समारोह तत्काल विसर्जित कर दिया। उत्सव−भवन में राजकुमारी अर्णिका, आचार्य बोहित महाराज तुर्वस् और स्वयं जैमिनि के अतिरिक्त कोई शेष न रहा। सब लोग अपने−अपने निवास स्थानों को चले गये।

जैमिनि ने पूछा—“तुर्वस् यों ही समापन होने से पूर्व सभा क्यों विसर्जित कर दी गई? कोई बात हो गई, अर्णिका को कुछ हो गया क्या?”

नहीं देव! ऐसा कुछ नहीं, हम तो कारण आपसे ही जानना चाहते हैं। अर्णिका ने कोई भूल की, लगता है, जिससे आपको कष्ट हुआ। गुरुदेव! यह आपकी ही बालिका है, रंगमंच पर आने का इसका प्रथम अवसर था। कोई भूल हुई हो तो क्षमा करें देव!

महर्षि को वस्तुस्थिति का अब पता चला। रुके हुये अश्रु बिन्दु उत्तरीय वस्त्र से पोंछते हुये उन्होंने कहा—“नहीं—तुर्वस्! ऐसी कोई बात नहीं, अर्णिका तो संगीत की साक्षात् देवी है, मेरी आँखों के आँसू तो विवशता के आँसू थे। मुझे वह भविष्य दिखाई दे रहा है, जब आर्यवर्त का संगीत−शास्त्र विदेशी आक्रमणकारियों के प्रभाव से अश्लील हो उठेगा। जो विद्या आज भारतीय जीवन में सरसता और संस्कार जागृत कर रही है, वही एक दिन कामुकता और अश्लीलता भड़काने का माध्यम बनेगी, बस यही एक दुःख है, जो हृदय को छलनी किये दे रहा है।” इतना कहते−कहते महर्षि की आँखें पुनः भर आईं।

गुरुदेव! अर्णिका ने आगे बढ़कर कहा—“कोई उपाय जिससे हम अपनी संगीत संस्कृति को दूषित होने से बचा सकें—हो तो स्पष्ट आदेश दें भगवन्! अपने धर्म, अपनी संस्कृति के लिए हम सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये तैयार हैं।”

महर्षि जैमिनि ने अर्णिका की पीठ पर स्नेह का हाथ फेरते हुये कहा—“अर्णिके! तुमसे यही आशा थी मुझे। एक उपाय है, यदि तुम आजीवन अविवाहित रहकर संगीत कला का जन−सामान्य में प्रसार कर सको तो उस समय भी राष्ट्र के किसी भी कोने में वह सुरक्षित रह सकती है। जड़ बनी रहेगी तो उसे हरे−भरे वृक्ष के रूप में कभी भी पुष्पित और पल्लवित कर लिया जा सकेगा।”

अर्णिका तथा आचार्य बोहित उस दिन से संगीत−कला का प्रसार करने लगे। मृत्युपर्यन्त अविवाहित रहकर उन्होंने इस कला को घर−घर पहुँचाया पर आज जिनके पास साधन हैं, वह भी कामुक संगीत के विकास में लगे हैं, देश में महर्षि जैमिनी की आशंका ही सत्य सिद्ध हो रही है।

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