गुरु−भक्ति की परीक्षा

January 1970

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गृहस्थाश्रम का अन्त निकट आ चला किन्तु महाराज दिलीप को कोई सन्तान नहीं हुई। वानप्रस्थ ग्रहण करने से पूर्व राज्य के लिये योग्य उत्तराधिकारी की उन्हें चिन्ता थी और सुलक्षणा को निःसन्तान होने का दुःख। अन्ततः दोनों ने मन्त्रणा की और समुचित समाधान के लिये गुरु वशिष्ठ की शरण जाने का निश्चय कर लिया।

दिलीप और सुलक्षणा समित्पाणि महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे और गुरु को प्रणिपात कर अपना दुःख निवेदन किया। एक क्षण मौन रहकर त्रिकालज्ञ महर्षि ने देखा पूर्वजन्म में दिलीप ने एक गाय के बच्चे की बहुत कष्ट दिया था। गाय बहुत दुःखी हुई थी। आत्मा अबूझ रहे तो भी उसकी सर्वशक्तिमत्ता नष्ट तो नहीं होती। भरे हृदय से उसने श्राप दिया था और उसी कारण महाराज दिलीप को इस जन्म में सन्तान सुख से वंचित होना पड़ा था।

अपनी महत्ता छिपाये रखने का ऋषियों में स्वभाव होता है, इसलिये उन्होंने पूर्वजन्म का तो कोई उल्लेख नहीं किया पर उन्होंने कहा—“दिलीप! यदि तुम तप करने के लिए तैयार हो तो ही सन्तान का सौभाग्य मिल सकता है, तुम्हें ज्ञात हो परमात्मा भी निरन्तर तप करता है, तभी वह संसार का स्वामी बन सका।

महर्षि का सीधा उद्देश्य दिलीप से पूर्व−कृत−पापों का प्रायश्चित कराना था। तत्त्वदर्शी आचार्य आश्रमों में आये आगन्तुकों की इच्छायें उनके मनोरथ सब कुछ जानते हैं, उन्हें पूरी करने की सामर्थ्य भी उनमें होती है पर ईश्वरीय नियमों की अवहेलना वे भी नहीं कर सकते। देते हैं वे भी पर तब जब प्रायश्चित द्वारा उनकी मलिनताओं और कुसंस्कारों को दूर कर लेते हैं। दुष्ट−दुराचारी पाप और वासनाओं में डूबे हुए को कोई वरदान देकर उस अलौकिक आत्म−शक्ति के दुरुपयोग का अपराध वे कभी नहीं करते, भले ही सारा संसार एक ओर हो जाये और अपने सिद्धान्तों पर उन्हें अकेले ही तटस्थ होकर खड़ा रहना पड़े।

दिलीप! और सुलक्षणा ! तुम दोनों ही मुझे मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। राज वंश की रक्षा हमारा धर्म भी है—वशिष्ठ बोले—किन्तु ईश्वरीय न्याय के सिद्धान्त प्राणिमात्र के लिए एक से हैं, जिस तरह तुम अपनी प्रजा का न्याय करते समय छोटे−बड़े, अपने−पराये का भेद नहीं करते, क्या उसी प्रकार ईश्वर की सत्ता पर यह विश्वास न करोगे कि वह प्राणिमात्र के प्रति समान न्याय भाव रखता है।

यह तो हमारा धर्म है गुरुदेव! दिलीप ने दोनों हाथ जोड़कर कहा—“आप जो कुछ कहेंगे उसमें हमारा हित ही होगा।” इससे आगे की बात सुलक्षणा ने पूरी की—“देव! आपकी कोई भी आज्ञा हमें शिरोधार्य है, हम तप करने के लिए राजी हैं।”

वशिष्ठ ने राज दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया। आश्रम के प्रबंधकों ने उनके निवास का प्रबंध किया। जिस तरह आश्रम में विद्याध्ययन और साधनायें करने वाले स्नातक और वानप्रस्थ वर्ण−कुटीरों में रहते थे, उन्हें भी एक पर्ण कुटीर रहने के लिये दे दिया गया। बिलकुल सामान्य, राज−वंश की शान के अनुकूल विशेषता का एक भी अंश उसमें नहीं था।

एक दिन सायंकाल उनके द्वार आये दो बटुकों—उनके साथ महर्षि की ‘नन्दिनी’ गाय थी—ने उन्हें बताया—कल से आपको इस गाय को चराने जाना होगा। इस गाय की संपूर्ण व्यवस्था का उत्तरदायित्व आगे आप लोगों पर ही होगा, ऐसा महर्षि का आदेश है।

सुलक्षणा ओर दिलीप दोनों ने नन्दिनी के चरण स्पर्श किये और उसे पर्ण कुटीर के सम्मुख एक अन्य पर्ण−कुटीर में रख दिया।

प्रातःकाल नन्दिनी वन के लिए चली। कटि में परिकर और पीठ पर तूणीर, जिन में बाण भरे हुए थे, धारण कर दिलीप गाय के पीछे चले। दक्षिण स्कन्ध पर प्रत्यंचा चढ़ा हुआ धनुष—दिलीप का वीर देश देखते ही बनता था। उनके पीछे पदत्राण रहित सुलक्षणा। जिसने कभी एक योजन भी पैदल न चला था, जिसकी देह पर वर्षों से सूर्य का भरपूर प्रकाश भी न पड़ा था, वही सुकुमारी सुलक्षणा कंटकाकीर्ण वन में पति दिलीप के साथ नन्दिनी चराने जाने लगी।

नन्दिनी जब चरती उसकी सुरक्षा के लिये धनुर्धारी दिलीप सन्नद्ध खड़े रहते। नन्दिनी जब चलती दिलीप उसके पीछे-पीछे चलते नन्दिनी बैठ जाती, तभी उन्हें बैठने को मिलता। नन्दिनी कभी अस्वस्थ दीखती तो दिलीप और सुलक्षणा रात-रात जागकर उसका उपचार करते। जप, तप, हवन, ब्रह्म-भोज सब कुछ उनके लिये नन्दिनी की सेवा ही थी। गुरुदेव की गाय को वे अपने प्राणों से भी अधिक बचाकर रखते थे। गुरु वशिष्ठ का इसमें कोई स्वार्थ नहीं था। महाराज दिलीप से सेवा लेकर किसी बड़प्पन की भी उन्हें आकाँक्षा नहीं थी। इस बहाने वे दिलीप के पापों का प्रच्छालन करना चाहते थे। वही सब हो रहा था।

शीत, बरसात, ग्रीष्म—ऋतुएं बदलती गईं पर दिलीप की साधना में कोई अन्तर नहीं पड़ा। एक शरद गई दूसरी ने प्रवेश किया। कार्तिक के सुहावने दिन प्रकृति की हरीतिमा और नव्य-कुसुमों की शोभा वन-श्री को नई आभा प्रदान कर रही थी। नन्दिनी चरते-चरते कैलाश शिखर तक जा पहुँची। दिलीप प्रकृति के अजस्र सौन्दर्य का पान करते उसके पीछे-पीछे चलते चले गये।

सन्ध्या हो चली पर नन्दिनी ने पीछे मुड़ने का नाम भी न लिया। भगवान सूर्यदेव थककर अस्त होने चल पड़े। ज्योति-पूर-विधु आकाश में हलकी आभा से उदय हो चला। विलक्षण शाँति थी उस समय। सघन क्षेत्रों का कोलाहल भी मिट चुका था, आर्यावर्त भगवती सन्ध्या की वन्दना में लीन हो रहा था। महाराज दिलीप का ध्यान इस शाँतिपूर्ण वेला में एकाग्र हो गया। प्रकृति के सौंदर्य में वे एक क्षण के लिये खो गये। नन्दिनी थोड़ा आगे निकल गई।

तभी एक सिंह की गरज ने उनका ध्यान भंग किया। वह अभी नन्दिनी पर टूट पड़ने वाला था कि दिलीप का धनुष गति कर उठा। तीखा बाण तूणीर से काढ़कर उन्होंने प्रत्यंचा चढ़ाई। श्रवण तक खींचकर अभी वे बाण को छोड़ना ही चाहते थे कि हाथ धनुष से चिपक गये और वे अपने को सर्वथा असह्य, असमर्थ अनुभव करने लगे। सिंह हँस पड़ा और बोला—“दिलीप तुम जिसे सिंह समझते हो, वह नहीं हूँ—मैं भगवान आशुतोष का गण हूँ मुझे नन्दिनी को भक्षण करने के लिये भेजा गया है। तुम उसे बचा नहीं सकते।

दिलीप आर्तनाद कर दौड़े और नन्दिनी को अपने पीछे कर बोले—“जब तक मेरा शरीर है—वनराज! तब तक तुम नन्दिनी पर प्रहार नहीं कर सकते।” अब तक सुलक्षणा भी आगे पहुँच चुकी थी, उसने हाथ जोड़कर याचना की—“मृगेन्द्र आप पहले मुझे भक्षण करें, तब मेरे पतिदेव पर हाथ उठाएं।”

एक निमिष में सब कुछ हो गया। सिंह वहाँ था कहाँ? महर्षि वशिष्ठ शिला पर खड़े मुस्करा रहे थे। उन्होंने आशीर्वाद दिया—“अब तुम आश्रम लौट आओ दिलीप! तुम्हारी तपश्चर्या पूरी हो गई।”

इसी साधना के प्रताप से दिलीप और सुलक्षणा ने रघु को जन्म दिया। जिनके नाम पर दिलीप के वंश का नाम ‘रघुवंश’ पड़ा।


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