जल (वरुण देवता) की अनुपम अद्भुत और अन्यतम सत्ता

January 1970

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महर्षि मेधातिथि और काण्व ने जल की प्रशस्ति में लिखा है—

—ऋग्वेद 1। 5। 23

यज्ञ की इच्छा करने वाले के लिए जल एक ही माँ से पैदा हुए बन्धु के समान है, वह दूध को पुष्ट करता हुआ, यज्ञ मार्ग से चलता है, जो जल सूर्य के पास स्थित है अथवा सूर्य जिनके साथ हैं, वे हमारे यज्ञ को सींचें हम जलों को चाहते हैं, क्योंकि उन्हें गाये पीती हैं। बहते हुये जल को हवि देंगे। जलों में अमृत है, जलों में औषध है, जलों की प्रशंसा से उत्साह प्राप्त करो।

उपरोक्त वैदिक कथन में जहाँ जल के भौतिक लाभों का वर्णन किया है, वहाँ उसकी अत्यंत सूक्ष्म चेतन क्रिया शीलता पर भी प्रभाव डाला है, अब विज्ञान उसकी पुष्टि भी करता है। जल का बन्धु होना कुछ अटपटा सा लगता है पर आज के वैज्ञानिक को वही बात सच मालूम पड़ गई। उन्होंने देखा कि जल में जड़ के ही गुण विद्यमान् नहीं वरन् वह विश्व चेतना का एक अत्यन्त आवश्यक चेतन अंश है उसके बिना जीव जीवन धारण किये रहने में समर्थ नहीं। जीवों की कोशिका जैसे अत्यंत सूक्ष्म एवं कोमल भाग में जल की मात्रा ही सर्वाधिक है, कोश (सेल) शरीर का यह सबसे छोटे से छोटा परमाणु है, जिनसे सारे शरीर का निर्माण होता है। वह एक प्रकार के प्रोटोप्लाज्मा नामक तत्त्व से बना है। भीतर नाभिक (न्यूक्लियस) और उसको घेरने वाले भाग को साइटोप्लाज्मा कहते हैं। साइटोप्लाज्मा का अधिकाँश भाग जल है। भाई उसे कहते हैं, जो अपनी ही माँ के पेट में जन्मा हो और दुःख, कष्ट, असुरक्षा की स्थिति में काम आता हो। जो हमें मैत्री−प्रेम, दया का पाठ पढ़ाता है और आत्मकल्याण के लिये उत्पन्न संकटों से बचाता है। जल भी आत्म−चेतना का वैसा ही भाई है। कोश के नाभिक (न्यूक्लियस) को जिस प्रोटीन झिल्ली ने सुरक्षित किया है, उसमें जितने भी खनिज होते हैं, उन्हें जल ही पचाकर शक्ति देता है स्वयं दबकर नाभिक की सुरक्षा करता है। आश्चर्यजनक बात है कि जल लोहे, सोने जैसी कठोर धातुओं को भी जला डालता है। जीव कोशिका में वह सृष्टि के आदि आविर्भाव से ही विद्यमान होने और शरीर में सूर्य (अग्नि) की सहायता से प्राण संचार करने की क्रिया संपन्न करने के कारण वह सहोदर भाई ही तो हुआ। शरीर में तेजस्विता का आधार जल तत्व ही है। इसलिये हम जन्म लेने से लेकर मृत्यु होने तक और उसके पश्चात् पारलौकिक गति में भी जल−तत्व से विलग होकर नहीं रह सकते।

स्थूल पदार्थों में सामान्य नियम यह होता है कि वे अपने गुणों के अनुसार ही आचरण करते हैं। मनुष्य उसका अपवाद है, वह प्रत्येक स्थिति के अनुरूप अपने आप को ढालने की क्षमता से परिपूर्ण है, ऐसा इसलिये होता है कि उसमें स्थूल अवयवों की अपेक्षा चेतन अंश अधिक सक्रिय और समर्थ होता है। अन्तरिक्ष यान एक होता है पर उसमें लगी हुई बैटरियाँ सूर्य से विद्युत शक्ति खींचती रहती हैं, कैमरे फोटो लेते रहते हैं, एक्सीलेटर गति पर नियन्त्रण रखते हैं।

धातुओं के विशेष सम्मिश्रण से बनी चादरें कालिक किरणों से यान के भीतरी भाग की रक्षा करती हैं। देखने में एक यान सक्रिय रहता है, किन्तु उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व इन छोटी−छोटी सक्रिय इकाइयों से बना है। वह न हो तो यान का अस्तित्व ही कुछ न रह जाये। इसी प्रकार मनुष्य की अन्तर्चेतना स्वतन्त्र अस्तित्व होकर भी चेतना की इकाइयों से विनिर्मित है। जल भी उनमें से एक है और वह चेतना के किसी भी स्वरूप की तरह समग्र व्यक्तित्व है, अर्थात् वह पदार्थों की तरह केवल जड़ गुणों वाला ही नहीं। मानवीय चेतना की तरह वह अपने आप को किसी भी परिस्थिति में ढालने की क्षमता से परिपूर्ण है इसीलिये वरुण (जल) देवता है और उसके साथ आत्मसंबंध के द्वारा वह लाभ मिलने भी सम्भव हैं, जिनका वर्णन वेदों में किया गया है।

ऐसा करने की आवश्यकता तब न होती, यदि जल एक जड़ तत्त्व होता तो उसे अधिक गर्म अवस्था से ठण्डी अवस्था में लाते समय तो उसका घनत्व अवश्य बढ़ता, किन्तु ठण्डी अवस्था से 4 डिग्री सेन्टीग्रेड की अधिक गर्म अवस्था में लाते समय उसका घनत्व घटना चाहिये। अपने इस मनोनीत गुण के द्वारा वरुण देव सम्पूर्ण जलचरों और मनुष्यों की जीवन रक्षा करते हैं। हिमाच्छादित प्रदेशों के जब झोलों तथा सागरों के जल के ऊपरी भाग हिम में बदल जाते हैं, तब भी उसके नीचे 4 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान वाला तरल जल विद्यमान् रहता है तथा जल के ऊपरी धरातल से समस्त जलचर हटकर नीचे आकर अपनी प्राण रक्षा कर लेते हैं। इस अवस्था में भी वे अपने साथ पर्याप्त ओषजन (ऑक्सीजन) घोलकर रखते हैं, जो जलचरों को हिमाच्छादित अवधि तक पर्याप्त होती है। सूखे में रहने वाले लोग भी बर्फ भी ऊपरी सतह तोड़कर जल लेते और जीवन की रक्षा करते रहते हैं।

जल देवता ने अपने इस गुण का परित्याग कर दिया होता तो समुद्र में वाष्प बनने से लेकर ध्रुव प्रदेशों तक की स्थिति कुछ ऐसी हो गई होती कि प्राणियों का जीवित रहना असम्भव हो गया होता। इन नियमों के परिपालन में न्यूनाधिक कमी भी संकटकारक हो सकती थी पर उन्होंने प्राणियों के हित में अपने नियमों का उल्लंघन कभी नहीं किया। यह तो मनुष्य ही है, जिसे भगवान् ने अपनी सभी शक्तियाँ दीं, अपने जैसा सामर्थ्यवान् बनाया पर वही मनुष्य संसार के तो क्या अपने भी काम नहीं आया। संसार का ऐसा कोई भी जीव नहीं है, जो किसी भी स्थिति में मनुष्य के समान इच्छित परिवर्तन कर सकता है। जाड़े गर्मी बरसात के अनुरूप वस्त्र बदल लेने की क्षमता उसे दी गई।

किसी भी देश, प्रान्त और भाषा वाले क्षेत्र में आकर वह कुछ ही समय में वहाँ के कायदे−कानून में ढल जाता है। अद्भुत कार्य न सही पर मानव−मात्र के कल्याण के लिये वह किसी भी समय में अपनी स्थिति में परिवर्तन ला सकता है। मनुष्य ने भी जल देवता की तरह सेवा और सदाशयता का मार्ग अपनाया होता तो संसार में आज जो कोलाहल और कलह मची हुई है, वह तब शाँति और मैत्री में परिणत हो गई होती। जल देवता हमें मानवता की सेवा में निरन्तर रत रहने की, अपने आपको दबाकर कष्ट सहकर भी दूसरों के हित में काम आने की प्रेरणा देते रहते हैं।

उपरोक्त ऋचाओं में कहा गया है। जल सूर्य के पास स्थित है, स्थूल दृष्टि से यह अनहोनी बात है। सूर्य के पास कोई गैसें ही रह सकती हैं। उसका तापमान इतना अधिक है कि वहाँ स्थूलता ठहर ही नहीं सकती। लोहा, सोना, चाँदी, अभ्रक आदि सभी धातुयें वहाँ गैस स्थिति में ही रह सकती हैं, जल चूँकि तरल है या ठोस, इसलिये वह सूर्य के पास ठहर ही नहीं सकता पर वैज्ञानिकों ने इस आश्चर्य को भी पढ़ा। उन्होंने देखा कि जल 2 भाग, हाइड्रोजन और 1 भाग ऑक्सीजन के (टू वाल्यूम्स आफ हाइड्रोजन वन वाल्यूम ऑक्सीजन टू वाल्यूम्स आफ वाटर) सम्मिश्रण से बना है। यह दोनों ही गैसें हैं, विज्ञान के विद्यार्थी यह भी जानते हैं कि परमाणुओं के पीरियाडिक अन्तर के कारण एक ही तत्त्व अनेक तत्त्वों में प्रतिभासित होता है। पीरियाडिक तालिका में ऑक्सीजन से पहले वाला तत्त्व नाइट्रोजन और आगे वाला फ्लोरीन कहलाता है। इन दोनों के मिलने से तो हाइड्रोजन बना, जोकि सबसे हलका तत्त्व है और सूर्य के आस−पास वही छाया हुआ है। जब ऑक्सीजन इस हाइड्रोजन के साथ संयोग करता है तो जल दिखाई देने लगता है, यदि वह इस अवस्था में न आता तो सम्भवतः लोग उसके अस्तित्व को न मानते पर अब यह जानना सम्भव हो गया कि यह तत्त्व सूर्य की ही देन है, इसलिये जल सूर्य (चेतना) की ही एक शक्ति है, उसे होना चाहिये गैस किन्तु प्राणि मात्र या सृष्टि के संचालन के लिये उसने स्वेच्छा से दृश्य तरल होना स्वीकार किया।

हम राजा हैं या सचिव, श्रमिक हैं या उद्योगपति, अध्यापक हैं या विद्यार्थी सन्त हैं अथवा साधक सब एक ही परमात्मा के पुत्र भाई−भाई की तरह हैं। विचित्र श्रेणियों में प्रतिभासित होकर भी हम एक मूल सत्ता से जुड़े हुये उसी के अंश हैं। यह भाव तभी सार्थक हो सकता है, जब हम किसी भी स्थिति में अपने से कम योग्यता वाले, कम साधनों और पीड़ित दलित स्थिति में पड़े लोगों की सेवा, सहायता में संलग्न रहते हैं। समाज के किसी भी वर्ग का दीन और दलित होना, सबके लिये अपमान और पाप है, इसलिये हमें जल के समान ही भाई−चारे का व्यवहार कर संसार की भलाई में जुटे रहना चाहिये।

तरल होते हुये भी उसमें स्थूलता कुछ भी नहीं है, स्थूलता पृथ्वी का अंश है और जहाँ पृथ्वी (मिट्टी) का अंश होगा, वहाँ रंग, गंध और स्वाद भी होगा पर जल में न तो गंध है, न स्वाद और न रंग इसलिये वह विशुद्ध चेतनता है, यदि यह माना जाये तो उसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

दृश्य में स्थूलता और अदृश्य में चेतनता ही मनुष्य की विलक्षणता है। सच कहें तो धन और आत्मा के सभी भाव चेतनता के ही विशेषण हैं वही जीवन और विश्व को प्रभावित करते हैं, इसलिये भावनाओं का महत्त्व सर्वाधिक है। मनुष्य की भूल कि वह स्थूल द्रव्यों को तो महत्व देता है, किन्तु उस शाश्वत चेतना के विकास में किंचित भी ध्यान नहीं देता, जिससे उसका मूलभूत अस्तित्व बँधा हुआ है।

भारतीय आचार्यों ने मानवीय गुणों को सर्वाधिक महत्त्व दिया, क्योंकि वह जानते थे, चेतनता ही प्रधान है। वह प्रेम के लिये दया स्नेह, आत्मीयता मानवता की रक्षा के लिये अपनी सुख−सम्पत्ति तक को न्यौछावर कर देते थे। गुणों की इस प्रतिष्ठा का कारण उनकी आत्मानुभूति ही थी, जल का यह गुण बताता है कि मनुष्य भी दृश्य बना रहे पर वह अपने चेतनात्मक गुणों का अभाव न होने दे। आत्म शक्तियों को वह निरन्तर लोक−कल्याण के लिये जागरुक रखे ताकि चेतना जड़ता में न भटकने पाये।

यही नहीं जल सूर्यदेव की शक्ति के द्वारा अपना मंथन करके वाष्प पैदा करते हैं और फिर वर्षा के द्वारा सारी पृथ्वी को तृप्त करते हैं। पानी की विशिष्ट ऊष्मा संसार के सब पदार्थों से विलक्षण होती है। अपनी इस विलक्षणता के कारण ही वह शेष वातावरण में ताप का नियन्त्रण करते हैं। जल के द्वारा ही जीव एवं वनस्पतियाँ गर्मी एवं सर्दी के अन्तर को, उतार−चढ़ाव को झेलते रहते हैं। जन्म से ही नहीं तमाम जीवन भर मनुष्य वरुण देव की कृपा पर ही आश्रित रहता है। ऐसे उपकारी देवता को स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि से आत्मसात करने वाला मनुष्य कभी अस्वस्थ, अप्रसन्न एवं असंतुष्ट क्यों रहेगा।

वरुण देवता की चेतना से सूक्ष्म संबंध स्थापित करने के ऋषियों के विज्ञान में कितनी सत्यता है, उसका रहस्य अब लोगों की समझ में आया है, जब जल के अणुओं की संरचना का अध्ययन किया गया। शुतः शेप आजीगर्ति ने उसकी कृपा से ही ईश्वरत्व का बोध किया था। ऋग्वेद अ. 1, अ. 2 व 14 म. 1, अ. 6 के 24 वें सूक्त में उन्होंने वरुण विद्या का उद्घाटन करते हुये बताया—

नहिते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आयुः। ने मां आयो अनिमिषं चरन्तीनं ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम् ॥6॥

अम्बुध राजा वरुणो वनस्योध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः नीचीनाः स्थुरूपरि बध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥ 7॥

अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाक— शच्चन्द्रमा नक्तमेति ॥ 10।14॥

इन मन्त्रों के अधिष्ठाता शुतः शेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः ने कहा—“तुम्हारे अखण्ड राज्य बल और क्रोध को यह उड़ते हुए पक्षी नहीं पहुँच सकते। निरन्तर चलते हुये वायु का प्रबल वेग भी तुम्हारी गति रोकने में समर्थ नहीं। पवित्र पराक्रमयुक्त वरुण आकाश के ऊपर की ओर तेज समूह को स्थापित करते हैं, इस तेज समूह का मुख नीचे और जड़ ऊपर है। यह हमारे भीतर स्थित होकर बुद्धि रूप से वास करते हैं, वरुण ने सूर्य गमन के लिये विस्तृत मार्ग बनाया है तथा निराश्रय आकाश में सूर्य के पाँव रखने की व्यवस्था की है। वे धृत नियम वरुण प्रजाओं के उपयोगी बारह महीनों को तथा तेरहवें अधिक मास को भी जानते हैं। सोने के कवच में उन्होंने अपना मर्म भाग ढँक लिया है। उनके चारों और समाचार वाहक उपस्थित हैं। (इसी मंडल में 25 वें सूक्त के मन्त्र)।

इन मंत्रों में शक्ति का विलक्षण विज्ञान भरा पड़ा है। उसका जो अंश वैज्ञानिक जान पाये हैं, वह इससे बिलकुल मिलता−जुलता है, जबकि वे अभी अरबवें हिस्से का शताँश ही जान सके हैं। पानी के विलक्षण गुण कर्म और स्वभाव का अध्ययन करते समय वैज्ञानिकों ने आश्चर्यपूर्वक देखा कि उसका अणु दो छोटी−छोटी भुजाओं वाला है, वह एक गुच्छे सा लगता है और दोनों भुजायें बाहर की ओर निकली हुई हैं, इन भुजाओं के मध्य में सिर की तरह ऑक्सीजन का एक परमाणु है, जिसमें दो इकाई, धन विद्युत आवेश है तथा हाइड्रोजन परमाणुओं में 2-2 इकाई ऋण विद्युत आवेश रहता है। ध्रुव विद्युतीय होने के कारण विपरीत दिशाओं वाली इन भुजाओं में प्रबल आकर्षण शक्ति है, उस आकर्षण शक्ति के मध्य में ही उसका नाभिक सुरक्षित है, यह सूर्य का अंश है। अर्थात् उसके नाभिक में सूर्य के जैसी प्रचण्ड क्षमता विद्यमान् है, जिसे वैज्ञानिक अभी जान नहीं पाये। यह वह सर्वान्तर्व्यापी शक्ति है, जिसे जानकर विश्व के किसी भी भाग में हो रही हलचल का पता लगाया जा सकता है, यही नहीं उस शक्ति का नियन्त्रण करना मनुष्य सीख जाये तो वस्तुतः वह करोड़ों मील दूर के आँधी−तूफान को भी घर में बैठा उसी तरह रोक सकता है, जैसे कोई किवाड़ अपनी इच्छा से खोल−बन्द कर सकते हैं, मस्तिष्क में भी जो शून्य स्थान (वेस्ट्रिकिल्स) है, उनमें अधिकाँश जल ही भरा है।

वरुण ईश्वर की विगुणात्मक शक्ति का पुञ्ज है, इसे वैज्ञानिकों ने देख तो लिया है पर अभी उनकी जानकारी प्रारंभिक है। पानी के अणु ध्रुव−विद्युतीय आकर्षण के कारण कई अणु गुच्छकों के सिरे एक स्थान पर चिपक जाते हैं, इससे त्रिविमीय (थ्री डाईमेंशनल) समुदाय का निर्माण होता है, इसे हाइड्रोजन बौडिंग कहते हैं, यह ‘बौडिंग’ ही जल के अनेक ज्ञात−अज्ञात असाधारण गुणों का आधार है। तरल स्थिति में आना ही इस हाइड्रोजन बौन्डिग का फल है। अन्यथा जल तो सूक्ष्म गैसीय स्थिति का तत्त्व है, इसी कारण से सभी हाइड्रोजन वाले पदार्थों की अपेक्षा वह 100 डिग्री सेन्टीग्रेड के सर्वाधिक तापक्रम पर उबलता और शून्य डिग्री में जम जाता है। इस तापक्रम के बीच का कोई भी पदार्थ तरल अवस्था में नहीं रह सकता पर प्रोटोप्लाज्म के अन्दर भी इसी गुण के कारण तरल स्थिति में विद्यमान है। ऐसा न होता तो आज जो सृष्टि दिखाई देती है, वह अस्तित्व में न आती।

यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन के डॉ. ह्वाइट ने पानी में पोलीइथेलीन ऑक्साइड नामक पदार्थ घोलकर दिखाया कि वह एक सर्वशक्तिमान तत्व है। ऐसा करने पर उसने गुरुत्वाकर्षण के नियम का भी पालन नहीं किया, बिना किसी यन्त्र के वह ऊपर की ओर चढ़ने लगा, जब लोगों ने पूछा कि इसका कारण क्या है। तो डॉ. ह्वाइट को चुप्पी ही साधते बना, क्योंकि स्वयं उन्हें भी उसकी जानकारी नहीं थी। समग्र व्यक्तित्व सम्पन्न जल की इन विशिष्टताओं की जानकारी भारतीय अध्यात्म के तरीके पर शोध करके ही सम्भव है।

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