प्यास मन पनघट ढूंढ़ रही अन्यत्र कहाँ। तेरे प्रानों का पनघट तेरे आस−पास ॥
तेरी रग−रग में लहराता है वह सागर। बुझ सकती जिससे भव भर की उद्दाम प्यास॥
तन तेरा केवल रक्त चर्म का पिण्ड नहीं। इसमें गुम्फित हैं कोटि कोटि रवि शशि तारे॥
है अनल, अवनि अप्य, अनिल व्योम द्युति, दिग्मंडल। मधु मास अनगिनत छुपे अमित प्यारे-प्यारे।।
ले नव प्रभात की नवल किरण। चलती तेरी हर साँस−साँस। प्यासे मन पनघट ढूंढ़ रहा अन्यत्र कहां। तेरे प्रानों का पनघट तेरे आस पास॥
मत देख चर्म दृग से जग को आकुल-व्याकुल जीवन रथ को। पग−पग पर तेरे लगी पनघटों की कतार॥
मत दृग विस्फारित कर दर्शन कर, संसृति का, सम्प्रति का। अपनी जीवन गतिका, कर छिन्न−छिन्न संकीर्ण साध बनकर उदार।।
क्यों व्यथा युक्त हो भटक रहा खोया-खोया। तेरे हाथों में भाग्य तेरा कर रहा वास॥ प्यासे मन पनघट ढूंढ़ रहा अन्यत्र कहाँ। तेरे प्रानों का पनघट तेरे आस पास॥
हो सजग श्रवन कर आगन्तुक की पद्ध्वनि को।
जाने वाले को रोक रहा क्यों जाने—दे।।
रोने वाले को रोक निडर बाधक बनकर—।
गाने वाले को मुक्त कण्ठ से गाने दे।।
छाने वाला यदि बादल है तो छाने दो।
हर बादल में तु, तुझ में बादल का निवास।।
प्यासे मन पनघट ढूंढ़ रहा अन्यत्र कहाँ।
तेरे प्रानों का पनघट तेरे आस पास।।
-दिवाकर
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*समाप्त*