महानता का जनक शुद्ध अहंभाव

January 1970

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महत्त्वाकाँक्षायें जीवन का नैसर्गिक स्वभाव होती हैं। महान् बनने की इच्छा हर किसी को होती है, होना भी चाहिये क्योंकि उससे आत्म−तत्त्व की महत्ता अभिव्यक्त होती है। पर कुसंस्कारों और आत्म−हीनताओं के बोझ से दबा हुआ मनुष्य उसी प्रकार आगे नहीं बढ़ पाता, जिस प्रकार टेपवर्म वाला जानवर, टेपवर्म एक प्रकार का परजीवी कीड़ा होता है, वह जिस जानवर के शरीर में जन्म लेता है उसी में सारे जीवन भर बना रहकर उसी के रक्त−माँस पर पलता रहता है।

कुत्ते के शरीर पर लगी किलनी कुत्ते के खून पर पलती है। इस किलनी पर भी कुछ ऐसे जीवन होते हैं, जो एक कोष (सेल) के ही होते हैं और किलनी का खून पीते रहते हैं। कुसंस्कार और दुष्कर्म भी इसी तरह हमारे जीवन में जो थोड़े से गुण होते हैं, उन्हें खाकर बुराइयों पर बुराइयाँ बढ़ाते रहते हैं।

मनोविज्ञान के महापण्डित मैगडूगल ने लिखा है—मनुष्य आत्म-विकास (मास्टर सेन्टीमेन्ट्स) या अच्छे अर्थ (सेन्स) में अहंभाव रखकर अपने व्यक्तित्व को महान बना सकता है। आत्म-विश्वास घमण्ड की श्रेणी में नहीं आता यह आत्म-सम्मान या स्वाभिमान की रक्षा का भाव है, उससे मनुष्य के गुणों और कार्य क्षमताओं का विकास होता है। इन्हीं के आधार पर महत्त्वाकाँक्षी की सफलता के लिये द्वार भी खुलते रहते हैं।

इंग्लैंड का राजा मरा तब उत्तराधिकार की समस्या सामने आई। योग्य व्यक्ति का चुनाव कठिन बात थी। यों हर कोई राजा बनने का इच्छुक था, राजपुरोहित मेर्लीन को पता था कि जिस व्यक्ति में आत्म-विश्वास की भावना न होगी, वह एकाएक अर्जित सफलता को लाटरी में प्राप्त धन की तरह गँवायेगा ही नहीं, जीवन में अनेक अप्रत्याशित बुराइयाँ और लाद लेगा। इसलिये उसने उत्तराधिकारी के चुनाव का एक अनोखा ही उपाय निकाला।

लोहे की एक निहाई में उसने एक तलवार घुसेड़ दी और उसे एक सभा में मैदान में रखकर कहा—“यह तलवार जादू के द्वारा इस लोहे में गाड़ी गई है, जो उसे अपनी शक्ति से निकाल देगा, वही राजा बनेगा। सारे दरबार में सन्नाटा छा गया। एक से एक बढ़ कर बलिष्ठ और पहलवान लोग बैठे थे पर सब डर गये। आत्म-विश्वास के अभाव में कोई भी व्यक्ति इस परिस्थिति का लाभ न ले सका।

दरबार में आर्थर नामक एक सैनिक भी बैठा था। उसने सोचा—यह सबसे अच्छा अवसर है, जब अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को सफल किया जा सकता है। यदि सचमुच कुछ जादू हुआ भी तो संसार को यह पता चलेगा कि मनुष्य की शक्ति जादू की शक्ति से कमजोर है अन्यथा तलवार को तो उखाड़कर रख ही दूँगा।

आर्थर उठा और एक झटके में उसने तलवार निकाल दी। इस तरह वह इंग्लैण्ड का राजा बना। इंग्लैण्ड के इतिहास में वह न्याय, बुद्धिमानी और गुणों के प्रति आदर के लिये—विक्रमादित्य के समान विख्यात हुआ। आत्म-विश्वास हो तो मनुष्य क्या नहीं कर सकता। पर हमें उसे पढ़ना और समझना भी चाहिये। शुद्ध अहंभाव, आत्मशक्ति पर विश्वास करना, जिस व्यक्ति को आ गया, उसकी सफलता को कभी कोई रोक नहीं सकता।

अपने पास जो शक्तियाँ हैं, उन पर विश्वास करना और उन्हें अच्छे काम में प्रयुक्त होने का अवसर देना ही आत्म-विश्वास है। उसे इस घटना से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

डेनमार्क का राजा कैन्यूट 1018 में गद्दी पर बैठा। इस गद्दी पर कोई भी राजा बहुत दिन तक नहीं टिकता था। कैन्यूट ने देखा कि उसका कारण चापलूस दरबारी हैं, जो राजाओं की झूठ-मूठ प्रशंसा बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया करते हैं।

कैन्यूट के साथ भी यही हुआ। कुछ दरबारी तो उसे सर्वशक्तिमान् ईश्वर का अवतार तक कहने लगे। इस पर कैन्यूट को शंका हुई। वह उन दरबारियों को लेकर सागर तट पर आया और समुद्र की ओर देखकर बोला—“ओ इधर आने वाली लहर रुक और पीछे लौट जा।” लेकिन लहर न रुकी, न लौटी, यह जब तक किनारा नहीं मिल गया, तब तक आगे ही बढ़ती रही।

कैन्यूट ने दरबारियों को डाँटकर कहा—“तुम लोग आगे इस तरह बेवकूफ बनाने का प्रयत्न मत करना। मनुष्य किसी के कहने से सर्वशक्तिमान् नहीं हो जाता, उसे स्वाभाविक प्रवाह की तरह आगे बढ़ना और अपनी शक्तियों को खुले तौर पर किनारे तक पहुँचने का अवसर देना चाहिये।” यही आत्म-विश्वास की सबसे अच्छी परिभाषा है।

और राजा कैन्यूट पहला व्यक्ति था, जिसने न केवल डेनमार्क वरन् नार्वे और इंग्लैण्ड तीनों पर एक साथ सफलतापूर्वक शासन किया।

आत्म-विश्वास कोई परजीवी कीड़ा नहीं वरन् वह अपनी ही शक्तियों को बढ़ाने और उनसे काम निकालने की शक्ति का नाम है। जो इस सिद्धान्त का प्रयोग करते हैं, जीवन में सफलतायें उन्हीं के हाथ लगती हैं।


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