वासना स्वभाव नहीं विकार मात्र

January 1970

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राजकुमार युयुत्स सहित राजदरबार के अनेक श्री सामन्तों ने भी श्रावणी पर्व में भाग लिया। महर्षि आँगिरस उस दिन प्रजा से हेमाद्रि संकल्प कराया करते थे। पिछले वर्ष भर किसी ने पाप और बुराइयाँ की होतीं, जब तक उसका प्रायश्चित नहीं करा लेते थे, वे नया यज्ञोपवीत किसी को भी नहीं प्रदान करते थे।

आज अनहोनी हो गई। एक वर्ष तक लगातार उच्चस्तरीय साधना और तपश्चर्या करने के कारण निषाद कुल में जन्मे बटुक काँदीवर को उन्होंने क्षत्रियत्व प्रदान कर राज्य की सेना में प्रवेश का अधिकार दे दिया, जबकि राजकुमार युयुत्स को उन्होंने असंयमी ठहराकर एक वर्ष के लिये क्षत्रियत्व का अधिकार छीन लिया। उन्होंने बताया—“राजकुमार ने अनेक महिलाओं का शील भंग कर उन्हें व्यभिचारिणी बनाया है, उन्हें 1 वर्ष तक नंगे पाँव, उघारे बदन राज्य की गौयें चरानी चाहियें और दुग्ध कल्प करके शरीर शुद्ध करना चाहिये। जब तक वे वह प्रायश्चित नहीं कर लेते, उन्हें राजकुमार के सम्मानित संबोधन से भी वंचित रखा जायेगा। उन्हें केवल युयुत्स कहकर पुकारा जायेगा।

काँदीवर को क्षत्रियत्व और अपने आपको पदच्युत होते देखकर युयुत्स का दम्भ उग्र हो उठा। उसने याचना की गुरुवर! वासना मनुष्य का स्वभाव है। स्वाभाविक बातें अपराध नहीं गिनी जानी चाहियें। इस पर मनुष्य का अपना वश नहीं, इसलिए वासना व्यक्ति के लिये क्षम्य है।

आंगिरस तत्त्वदर्शी थे और दूरदर्शी भी। उन्होंने कहा—“युयुत्स! समाज और जातिगत स्वाभिमान से गिराने वाला कोई भी कर्म पाप ही गिना जाता है, फिर चाहे वह किसी की सहमति से ही क्यों न हो। जिन कुमारियों को तुमने भ्रष्ट किया है, वे एक दिन सुहागिनें बनेंगी। क्या उनके पतियों के साथ यह अपराध न होगा? तुम्हारी यह स्वाभाविकता क्या समाज के असंयम और पथ भ्रष्टता का कारण नहीं बनी?”

महर्षि आंगिरस अंत तक दृढ़ रहे। युयुत्स पराजित होकर लौटे। उनके कंधे पर पड़ा यज्ञोपवीत व्यभिचार के अपराध में छीन लिया गया।

चोट खाया सर्प जिस तरह फुँकार मारकर आक्रमण करता है, युयुत्स का हृदय भी ऐसे ही प्रतिशोध से जलने लगा। वह महर्षि को नीचा दिखाने के उपक्रम खोजने लगा।

राजधानी में संस्कृति समारोह आयोजित किया गया। उसका संचालन किसकी इच्छा से हो रहा है, यह किसी ने नहीं जाना। अच्छे−अच्छे संभ्रांत व्यक्ति आमन्त्रित किये गये। महर्षि आंगिरस प्रधान अतिथि के रूप में आमन्त्रित किये गये थे।

मरकत−मणियों से जगमगाते राजमहल की आभा उस समय और भी द्विगुणित हो गई, जब श्रीसामन्तों के मध्य प्रवेश किया नृत्याँगना काँचीबाला ने। झीने रेशमी वस्त्रों पर षोडश शृंगार देखते ही बनता था। काम−रूप थी काँचीबाला उसे देखते ही राजाओं के मन स्खलित हो−हो जाते थे।

नृत्य प्रारम्भ हुआ, पाँव थिरकने लगे, साज गति देने लगा। ताल के साथ नृत्य करती काँचीबाला ने अपनी चूनर उतार फेंकी। दर्शकों की साँसें गर्म हुईं पर फिर नृत्य में अटक गईं। अन्ततः उसने अपने संपूर्ण वस्त्राभूषण उतार फेंके। साज बन्द हो गया, दर्शक न जाने कहाँ चले गये। अकेले, आंगिरस और काँचीबाला। एक कामुक दृष्टि डाली नृत्याँगना ने महर्षि पर और प्रश्न किया—“नारी अभिसार क्यों करती है ऋषिवर!?” महर्षि बोले—“पुरुष की आत्म−दर्शन की जिज्ञासा को उद्दीप्त करने के लिये भद्रे! आज तुम्हारे सौन्दर्य में सचमुच अलौकिक बाल रूप है।” काँचीवाला आई थी, भ्रष्ट करने, पर आप गलकर पानी हो गई। यह सब युयुत्स का प्रबंध था। पर उससे महर्षि का क्या बिगड़ता। युयुत्स को अन्ततः तप और प्रायश्चित के लिये जाना ही पड़ा।

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