आध्यात्मिक जीवन इस तरह जिये

November 1969

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इस जीवन के बाद मनुष्य का एक और भी जीवन है, जो कि इस जीवन से लाखों करोड़ों गुना लम्बा है। कितने वर्षा, युगों और कल्पों तक यह जीवन चलता है, इसका अनुमान सम्भव नहीं है। यह एक प्रकार से अपनी अपरिमित अवधि के कारण अनन्त और अमर भी कहा जा सकता है। उसे पारलौकिक जीवन कहा गया है।

पारलौकिक जीवन के विश्वास में सन्देह की गुँजाइश अब नहीं रह गई। आज का विज्ञान भी मनुष्य के रहस्यों को खोजता हुआ, कुछ ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच रहा है, जिसमें पारलौकिक जीवन के प्रमाण मिले है। किन्तु भारतीय ऋषि-मुनियों ने तो अपनी साधना, अपने ज्ञान और अपनी तपस्या के आधार पर इसका बहुत पहले पता लगाकर घोषणा कर दी थी और इसीलिए सारा भारतीय जीवन उसको ही लक्ष्य मानकर, उसको ही दृष्टि में रखकर निर्धारित किया गया है। पारलौकिक जीवन को अदृष्टिगोचर रखकर लौकिक जीवन नहीं जिया जा सकता और जो ऐसा करते है, अनियोजित तथा अबूझ जीवन जीते है, वे धोखा खाते है और अपने उस अनन्तकाल जीवन के लिये काँटे बो लेते है।

लौकिक जीवन पारलौकिक जीवन की तैयारी का अवसर है। इसको ही यथार्थ अन्तिम जीवन मान लेना भारी भूल है। मनुष्य यहाँ इस जीवन में जो कुछ पाप-पुण्य दुख-सुख भलाई-बुराई स्वार्थ-परमार्थ संचय करता है, वही उसके साथ जाकर उस पारलौकिक जीवन में फलित तथा प्रस्फुटित होता और उसी के अनुरूप जीव अनन्तकाल तक सुख दुख अथवा स्वर्ग नरक भोगा करता है। वर्तमान जीवन अनागत जीवन की तैयारी का एक अवसर है। इस तथ्य को कभी न भूलना चाहिये और उसको सुखद तथा सन्तोषप्रद बनाने के लिए, यहीं अभी से तैयारी कर लेनी चाहिये।

जीव का जागरूक जीवन अविश्वनीय तथा नश्वर है। इसे नष्ट तो होना ही है, पर साथ ही यह भी पता नहीं कि यह सौ वर्ष तक जायेगा या इसी क्षण अथवा अगले क्षण छुट जायेगा। इस नश्वरता और क्षणिकता के प्रमाण बनकर न जाने कितने ही आकस्मिक मरने वाले आँखों और कानों के सामने से गुजरते रहते है। सोते हुये, खाते और पीते हुए, हँसते और बोलते हुये, खेलते और काम करते हुये, न जाने कितने जीव नित्य ही इह लीला समाप्त कर अपने दीर्घकालीन पारलौकिक जीवन में प्रवेश करने और यहाँ का लेखा जोखा भोगने के लिये चल देते है। बेटा बैठा रहता है, पत्नी खड़ी रहती है, सम्बन्धी देखते रहते हे, सम्पत्ति और संचय पड़ा रहता है पर आवाज सुनते ही पंछी पूरी अधूरी योजनाएँ, कार्यक्रम, बात-चीत और व्यवहार बर्ताव सब कुछ छोड़कर उड़ जाता है।

अस्तु इस जीवन का कुछ पता नहीं कि यह किस समय अपनी गति को मति में बदल दे। इसलिये बुद्धिमानी इसी में है कि इसकी क्षणभंगुरता को स्वीकार कर तुरन्त इसी क्षण से अपने पारलौकिक जीवन की तैयारी में संलग्न जो जाया जाये। जो बिना संबल, संचय किये अनन्त प्रवास में चला जायेगा, उसे अनन्त कष्ट होंगे, यह निश्चय है। वहाँ यहाँ जैसी स्वाधीनता और सुविधा नहीं है, जो यहाँ से न भी ने जायें, वहाँ बना लेंगे, संचय कर लेंगे। वहाँ तो यहाँ साथ लिये पाथेय के बल पर ही अवधि यापन करनी होगी। वहाँ न सत्कर्म का अवसर मिलेगा और न अपकर्म का। वहाँ तो केवल यहीं के कर्मों के अनुसार आपको आपका संचय दे दिया जायेगा, जिसके ड़ड़ड़ड़ पर फिर चाहे आपको आनन्द भोगना पड़े और चाहें यातनाएँ।

यहाँ का संचय किया हुआ वह सम्बल क्या है, जो वहाँ काम आना है? वह सम्बल है पुण्य-परमार्थ निर्मोह और निर्लिप्तता पुण्य परमार्थ का अर्जन सत्कर्म और उसके साथ लगी हुई, सद्भावना से होता है। यदि सत्कर्म के साथ सद्भावना का संयोग नहीं है तो उस सत्कर्म का पुण्य परास्त हो जायेगा। एक मनुष्य किसी दुःखी की सहायता करता है पर भावना यह रखता कि ऐसा करने से यह मनुष्य मुझे अमीर और उदार समझेगा, मेरा आभारी होगा और यथासम्भव मेरी पूजा-प्रतिष्ठा करेगा। समाज में जो देखे, सुनेगा, वह मुझे सम्मान देगा, मेरा आदर करेगा, जिससे समाज में मेरा स्थान बनेगा। बस उसका सत्कर्म दूषित हो गया, उसका पुण्य ऋणी हो गया, ऐसा सत्कर्म पारलौकिक जीवन में सम्बल बन कर काम न आ सकेगा।

यह पुण्य बन कर सम्बल तब बनेगा, जब सहायता करने के पीछे कोई भाव ही न रहे और यदि रहे तो यह भाव रहे कि अमुक व्यक्ति हमारी तरह ही मनुष्य है। हमारा भाई है। उसकी आवश्यकता, उसकी तकलीफ और उसका कष्ट हमारा कष्ट है। हमारी सहायता पाना उसका नैसर्गिक अधिकार है और सहायता करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। मेरे पास जो कुछ है, वह सब प्राणी मात्र की धरोहर है, जो सबको उचित प्रकार से मिलनी ही है। मेरा इस पर कोई आभार नहीं, बल्कि इसका ही आभार मुझ पर है, जो यह मेरी सेवा, मेरी सहायता स्वीकार करने की कृपा कर रहा है। इस प्रकार के अहंकार रहित सत्कर्म ही पारलौकिक जीवन के सम्बल बना करते है।

किन्तु यह निरहंकार भावना प्राप्त कैसे हो? इसके लिये भी उपाय करना होगा। और वह उपाय है उपासना ईश्वर पुनीति। सम्पूर्ण आत्म-समर्पण के साथ परमात्मा की उपासना करते करते जब व्यक्ति के हृदय में उसका प्रकाश आ विराजेंगे, तब उसे सारा जड़-चेतन संसार परमात्मा रूप ही दीखने और अनुभव होने लगेगा। उसका ‘स्व’ सार्वभौम हो जायेगा। ऐसी स्थिति में उसे किसी से पृथकता का अनुभव ही न होगा। स्वयं सहायक, समानार्थी, सहायता और परिणाम सबका सब ईश्वर रूप ही दिखाई देगा। ऐसी दशा में उसे न तो यह पता चलेगा कि वह किसी की सहायता कर रहा है या कोई उससे सहायता पा रहा है।

पारलौकिक जीवन की तैयारी में निर्मोह, निर्लिप्तता अथवा अनासक्ति की साधना भी परमावश्यक है। इस असार संसार के माया मोह लेकर जाने वाले उस पार के अपार जीवन में बड़ी सघन यातना के भागीदार बनते है को माया मोह के कारण रो-रोकर प्राण छोड़ते और तड़प तड़प कर संसार से विदा होते है, वे वहाँ भी अपनी अस अन्तिम स्थिति के अनुसार वैसे ही रो रो और तड़प तड़प कर जीवन बितायेगा। मनुष्य की अतिमानसिक स्थिति इस बात का स्पष्ट विज्ञापन है कि उसे उस पारलौकिक जीवन में किस भोग का भागी बनना होगा। यदि वह निर्लिप्तावस्था में हँसता खेलता हुआ गया, तब तो समझना चाहिये कि वहाँ भी हँसता खेलता ही रहेगा और यदि रोता सिसकता हुआ, विदा हुआ तो वहाँ भी रोता सिसकता ही रहेगा। इसमें दो सम्भावनायें नहीं हो सकती।

इह जीवन के दुःख अन्त का सबसे बड़ा और अगाध कारण आसक्ति ही है, आसक्ति के कारण ही सम्बन्धियों के बिछुड़ने पर ड़ड़ड़ड़ का घेरा पड़ता है। आसक्ति के कारण ही थोड़ी सी असफलता निराशा की घटाये घेर लेती है। आसक्ति के कारण ही जरा सी उपेक्षा प्रतिहिंसा की आग जला देती है और आसक्ति के कारण ही धन वैभव के लिए पाप कर्मों में संलग्न हो जाते है। अस्तु आसक्ति ही को सारे दुःखों का मूल कारण मानना और उससे छूटने का उपाय करना चाहिये।

आसक्ति बड़ा भयंकर रोग है, फिर चाहे वह पुत्र-पत्नी के प्रति हो, धन-दौलत के प्रति हो, सुहृद सहचरों के प्रति हो देह अथवा अभिरुचियों के प्रति हो। इस रोग से बच कर ही मनुष्य एक निरामय एवं निर्भय जिन्दगी जी सकता है और निश्शंक अनत अपना सकता है।

जिस भय के कारण लोग कायर-कुचाल और कापुरुष बन जाते है, उसकी जननी आसक्ति ही है देहासक्ति के कारण ही लोग इस भय से उसके रंजन, भंजन में लगे रहते है कि कहीं यह बूढ़ी न हो जाये, कहीं इसकी शक्ति न चली जाये, कहीं भोग वासना के अयोग्य न हो जाये। इसी भय के कारण ही उसे विधि और पट-परिधानों की पूजा पगार चढ़ाते रहते है। वे पता नहीं, यह क्यों नहीं सोच पाते कि यह नश्वर मिट्टी एक दिन मिट ही जानी है। इस पर कितना ही चन्दन बदन क्यों न चढ़ाया जाये, कितनी ही मनौती और भिन्न क्यों न की जाये समय पाकर यह बूढ़ी तथा कुरूप हो ही जायेगी। आवश्यकता से अधिक शरीर को मान्यता देने का कारण यह देहासक्ति ही है। इस निःसार देहासक्ति के कारण मनुष्य न तो दृढ़ता पूर्वक साधन कर पाता है और न नियम, संयम का निर्वाह। अधिक साधने अथवा बाल खींचने से कहीं यह निर्बल न हो जाये-अधिक संयम, नियमों से इसको कष्ट होगा। परमार्थ पथ पर डाल देने से इसके भोग विलास के अधिकार छिन जायेंगे आदि आदि न जाने कितनी कल्पनायें मनुष्य को देहारोधक बना देती है।

इस ड़ड़ड़ड़ देहासक्ति से मनुष्य की बड़ी गहरी हानि होती है। देह को प्रधानता मिलते ही आत्मा पीछे रह जाती है। आत्मा के गौण होते ही अज्ञान का घना अंधकार घेर लेता है और तब उस अंधकार में इस मान जीव की जो दुर्दशा होती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उसे भय, संशय, सन्देह तथा आशंकाओं की डायन हर समय सताया करती है। एष्णा और तृष्णायें उसे एक क्षण भी विश्राम नहीं लेने देतीं। आस्तिकता, आस्था और अञनागत भविष्य के सारे दीप बुझ जाते है और मनुष्य एक अँधेरा अन्त पाकर अनन्त अंधकार में जाकर तुम कल्पों के लिए डूब जाता है।

शरीर और कुछ नहीं एक साधन मात्र है, आत्मा के उद्धार का साधन। इसकी खोज खबर रखनी तो चाहिये, पर उसी सीमा तक जहाँ तक यह साधन रूप में आत्मोद्धार में सहायक हो सके। इसे स्वस्थ तथा सशक्त बनाये रखने के लिये जो भी जरूरी हो करिये पर इसकी इन्द्रिय लिप्सा की जिज्ञासा का कभी भी रंजन न करिये। विषय भोग और आराम, विश्राम जिन्हें यह माँगा करता है, इसके लिये घातक तथा अनावश्यक है। इनकी सुविधा पाकर यह शरीर आलसी, प्रमादी और ढीठ बन जाता है और तब हर उस साधना में आनाकानी करने लगता है, जो आत्मा के उद्धार में आवश्यक होते है। अस्तु देहाभिमान अथवा आशक्ति से सदा सावधान रहकर दूर रहना चाहिये।

देहासक्ति छूटते ही बाकी सारी आसक्तियाँ आपसे आप छूट जाती है। इसका पोषण करते हुए, इसको ठीक वैसे ही भूले रहिये, जैसे जीव इसका विसर्जन हो जान के बाद भूल जाता है। ममता मोह और माया के सारे सम्बन्ध भी टूट जाते है, ठीक उसी प्रकार इसका विस्मरण किए रहने से सारी आसक्तियाँ छूट जावेंगी और तब अन्तिम समय में उनको अनुभूति भी साथ लगी हुई न जायेगी। जीवनिर्लित और निर्मोहपूर्वक जाकर अनन्त जीवन को ग्रहण कर लेगा।

मनुष्य का जीवन ही अन्तिम नहीं है, इसके बाद एक दीर्घकालीन जीव भी है, जिसके यापन में आवश्यक पुष्य का सम्बल इस जीवन में संचय करने के लिए अनासक्ति भाव से कर्म करते हुए, जीवन चलाइये और बाद में माया-मोह तथा आसक्ति से निवृत्त होकर संसार से यात्रा कीजिए। तभी वहाँ जाकर दीर्घकालीन सुख, सन्तोष की प्राप्ति होगी।


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