विलासिता हमें अपंग करके छोड़ेगी

November 1969

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मानव का आदि वंश पाश्चात्य वैज्ञानिक पिथेकेण्ट्रोपस, सिनैण्ट्रोपस और निएन्टर पाल मानते है। इनकी आकृति से आज के मानव से तुलना करने से बड़ा अन्तर दिखाई देता है। क्रोमग्नन की तुलना में तो अब का मनुष्य पहचाना भी नहीं जा सकता। पाश्चात्यों की बात पाश्चात्य जानें पर हम अपने आपको जिस अपौरुषेय पूर्ण विकसित मनुष्य से वंश उत्पत्ति की बात मानते है, उनकी शक्ति शारीरिक रचना और सामर्थ्य की दृष्टि से आज के मनुष्य को तौलने है तो वह बिलकुल भिन्न और दीन-दुर्बल दिखाई देता है। इसका कारण उसकी अपनी भूलें है, जो उसने बिना बेचारे ही है, कर रहा है।

जीव वैज्ञानिक के अनुसार इस प्रक्रिया सृष्टि से सब जीव प्रभावित होते है। उदाहरणार्थ आज का जो आरंभ में लोमड़ी की शकल का था। तब सम्भवतः उसकी प्रकृति भी माँसाहारी थी। वह जंगलों में छिपा पड़ा रहता था। धीरे-धीरे उसने स्वभाव बदला घास खाने लगा। हिंसक प्रकृति के कारण पहले उसमें स्वाभाविक भय रहता था उसे छोड़ कर निर्भय मैदानों में रहने लगा। चिन्तायें छोड़ देने से जिस प्रकार दुर्बल लोगों के स्वास्थ्य भी बुलन्द हो जाते है, उसी प्रकार वह भी अपने डील–डौल को सुडौल बनाता चला आया। धीरे-धीरे मनुष्य उसे प्यार करने लगा और उससे अस्तबल की शोभा बढ़ने लगी। आज उसी लोमड़ी जैसे घोड़े की सुन्दरता साधारण व्यक्तियों से लेकर राजाओं महाराजाओं को भी आकर्षित करती है, उसकी शक्ति की तुलना मशीनों से की जाती है।

इसके विपरीत लुप्त जन्तु-शास्त्र (मिसिंग लिंक) के अध्ययन से पता चलता है कि पहले किसी समय पृथ्वी पर कई सुडौल और चरम सीमा तक विकसित जीव पाये जाते थे। किन्तु इन जन्तुओं ने अपने रहने सहने में हद दर्जे की कृत्रिमता उत्पन्न की और अद्यावधि ही नष्ट हो गये। आज मनुष्य जो उत्तरोत्तर विलासी जीवन की ओर अग्रसर होता जा रहा है तथा जनसंख्या अनियन्त्रित रूप से बढ़ता जा रहा है, उसे देखकर कुछ जीव-शास्त्रियों का यह भी मत है कि मनुष्य को सम्भवतः कार्टून युग तक पहुँचने का अवसर ही न मिले अर्थात् वह बीच में ही समाप्त हो जाय।

एक ओर जहाँ परिश्रम के अभाव और प्राकृतिक दबाव के कारण मनुष्य बिलकुल क्षीणकाय हो जायेगा, यहाँ मानवीय शरीर और स्वभाव के विपरीत माँसाहार, मद्यपान आदि के कारण कुछ लोग ऐसा दैत्याकार भी हो सकते है, जिस तरह एक समय भूमध्य सागर टापू और चीन में भीमकाय मानव पैदा हो चुके है। यह लोग बड़े स्वेच्छाचारी और निर्द्वन्द्व विचरण करने वाले थे। पशु-पक्षियों को मार कर कच्चा ही खा जाते थे। कालान्तर में इन दैत्यों की चर्बी और मोटापे की बीमारी अनियन्त्रित हो गई और वे कुछ ही दिनों में अपने आप नष्ट हो गये। इस प्रकार की दैत्याकृतियाँ भी सामने आ सकती है।

1924 में प्रोफेसर इलियट स्मिथ ने मिश्र की 30000 ममी (मिश्र में एक विशेष प्रकार के मशाल में शवों को सुरक्षित रखने की परम्परा है, इन शवों को ही ममी कहते है) का परीक्षण किया। उच्च वर्ग वाले शवों को छोड़कर अन्य लोगों के दाँत का क्षय बहुत कम मिला। कुछ अर्थराइटिस, किडनी के स्टोन के तीन और एक गाल के स्टोन का रोगी मिला। रिकेट्स और कैन्सर रोम के एक भी लक्षण किसी भी ममी में नहीं मिले। उस समय मिश्र के लोग भी अकृत्रिम और प्राकृतिक भोजन करते थे, वे लगभग पूर्ण शाकाहारी थे, तब ऐसी स्थिति थी, किन्तु स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है पर अकेले कैंसर में ही हजारों रोगी है, इससे रोगों की बढ़ोत्तरी और स्वास्थ्य में अवांछित परिवर्तन का पता चलता है। कुछ हजार वर्ष बाद तो सम्भवतः एक ही बच्चा शुद्ध जन्म नहीं लेगा, उनमें से अधिकाँश कोई न कोई रोग लेकर जन्मेंगे कई तो ऐसे भी होंगे, जो आज के वीर्य रोगों से रोगी मनुष्य की क्रमागत संतान होने के कारण नपुंसक और लिंगहीन भी होंगे। आज की बीमारियों के सारे लक्षण संस्कार रूप में पहुँचने की बात विज्ञान पुष्ट ही कर चुका है, इसलिये कोई सन्देह नहीं, जो आने वाली कार्टून पीढ़ी अपने अनेक अंग ही खो दे। पैर की उँगलियों और बालों के बारे में तो जीवन-शास्त्री आशंका व्यक्त ही करते है कि हाथों में केवल एक-एक उँगली होगी और सारे के सारे बालों से पुरुषों को ही नहीं, स्त्रियों को भी मुक्ति मिल जायेगी।

इसका कारण हे, मानवीय मस्तिष्क के धन क्षेत्र का निरन्तर विस्तार। अब मनुष्य चलता बहुत अधिक है पर बैठे-बैठे चलता है। रेलें, मोटरें, ताँगे और रिक्शे चलाते है, अब मनुष्य खाता बहुत है पर भूख नहीं, जीभ खिलाती है, अब मनुष्य सुनता बहुत है पर स्वाभाविक इच्छा के अनुरूप नहीं मोटरें, रेल-गाड़ियाँ जहाज, मिलों-कारखानों के भौंपू, मशीनों की गड़गड़ाहट सुननी पड़ती है, अब मनुष्य देखता बहुत है पर आत्मा को बलवान और सौंदर्यवान बनाने वाले प्राकृतिक दृश्य, हरियाली और पुष्प, पौधों को शोभा नहीं, सिनेमा के दृश्य कृत्रिम पेन्सिलों से रंगे हुये चित्र वह भी दूषित भाव पैदा करने वाले। पहले लोग पदयात्रायें करते थे।, एकान्तवास रखा करते थे, प्राकृतिक दृश्यों के बीच रहा करते थे, संगीत और लोक गीतों का आनन्द लिया करते थे, इससे सूक्ष्म मनोजगत को प्रफुल्लित और आत्मा को शाँति देने वाले ‘हारमोन्स’ का स्राव होता रहता था और मनुष्य स्वस्थ और सुडौल बना रहता था। स्वाभाविक प्रक्रियायें बेकार मस्तिष्क की भूख बन गई है। सोचने-विचारने की प्रक्रिया के सम्बन्ध रखने वाले केन्द्रों, स्नायु-कोषों और नस-तंतुओं में निवास होता जा रहा है बढ़ी हुई जनसंख्या को तो भोजन चाहिये चाहे वह भीख माँग कर अमेरिका से मिले या समुद्र की मछलियों और अन्य जीवों को मारकर मिले। मस्तिष्क के अवयव बढ़ेंगे तो उन्हें भी चारा चाहिये। उन्हें प्रकृति ने जितना नियत किया है, उससे अधिक मिल नहीं सकता, फलस्वरूप वे हिंसा करते है, अर्थात् आँख की, नाक, कान और पेट की शक्ति चूसते है, इससे होगा यह कि और अंग कमजोर होते चले जायेंगे। विचार शक्ति प्रौढ़ होती चली जायेगी और इन्द्रियों की क्षमता गिरती चली जायेगी। अर्थात् यह कार्टून की आकृति वाले लोगों में शरीर ही क्षीण न होगा वरन् बहरे भी हो सकते है, गूँगे भी, आँखों से कम दीखने और एक फर्लांग चलकर थक जाने की बीमारियाँ जोर पकड़ लेंगी। इनसे बचने के लिए तब श्रवण यन्त्रों, अणुवीक्षण, दूरवीक्षण यन्त्रों को लोग उसी तरह शरीर से लटकाये घूमा करेंगे, जैसे स्त्रियाँ तरह-तरह के जेवरों से जकड़ी रहती है। मनुष्य और कम्प्यूटर में तब कोई विशेष अन्तर न रह जायेगा।

मनुष्य को प्रकृति ने जो दाँत दिये है, वह शाकाहार के लिये उपयुक्त है, माँसाहारी जन्तुओं के दाँत बड़े और नुकीले (कैनाइन टीथ) होते है। उनके पंजों के नाखून भी मुड़े हुए और तीखे होते है, क्योंकि माँस नोंचने में उनसे सहायता मिलती है, मनुष्य का पिछला इतिहास बताता है कि उनका मुख आगे निकला हुआ और जबड़े लम्बे होते थे, क्योंकि तब उसे अधिकाधिक कच्चा खाना पड़ता था, यदि मनुष्य माँस भक्षी हुआ तो उसके दाँत और उँगलियों के नाखून भालुओं, चीतों जैसे हो सकते है या फिर कच्चे और दाँतों से चबाकर खाने वाले खाने के कम उपयोग से उसका मुखर भीतर ही धँसता चला जायेगा। मुख ऐसा लगेगा, जैसे किसी गुफा में घुसने के लिए ‘होल’ (छेद) बनाया गया हो।

जीव वैज्ञानिकों का यह भी मत है, आगे आने वाले लोगों के पंजे और पीठें छोटी हो जायेंगी। पीठ की माँसपेशियों का सम्बन्ध हाथ से है, हाथ से बोझा उठाने इनको ऊपर नीचे, दायें-बायें मोड़ते रहने से पीठ में हलचल होती रहती है, इसलिये वह बढ़ती और स्वस्थ भी बनी रहती है पर हाथों से परिश्रम का काम न लेने पर पैरों को पूरे तरह धरती से टिका कर चलने के कारण पीठ और पाँव की उँगलियों में अस्वाभाविकता आ जायेगी। अधिकतर बैठे रहने के फलस्वरूप मनुष्य कमर से झुका हुआ भी हो सकता है। उसके जोड़ों में प्रायः दर्द बना रह सकता है यह बुराइयाँ तो अभी दिखाई देने लगी है, परिश्रम और सारे शरीर को हलचल में रखने के अभाव के कारण मनुष्य दुर्बल ही न होगा, टेढ़ा-मेढ़ा भी होगा, उससे वह और भी विचित्र लगा करेगा। यद्यपि होगा यह सब आज से ड़ड़ड़ड़ पीढ़ियों बाद पर यह लक्षण धीरे-धीरे हर अगली आने वाली पीढ़ी में उभरते चले जायेंगे, इस पाप के लिये ड़ड़ड़ड़ तौर पर दोषी आज की पीढ़ी होगी, जो कृत्रिमता और यंत्रीकरण को आभूषण समझाकर गले लगाती चली जा रही है।

अस्वाभाविक जीवन आर सम्भावित विकृतियों के लिये हमारा आचरण दोषी होगा पर आचरण चूँकि विचारों से पोषण पाते हे, इसलिये हम यह मानते है कि सारा दोष हमारे सोचने की पद्धति का है। गलत निर्णय हमें पतन के गड्ढे में गिराते है, गलत इच्छाएँ हमारे जीवन के प्राकृतिक आनन्द को नष्ट करती है। इच्छाओं की विकृति ही शारीरिक विकृति बनकर परिलक्षित होगी।

उदाहरण के लिये प्राचीनकाल में अफ्रीका में पाये जाने वाले जिराफ़ की गर्दन और पैर छोटे ही थे। उनको ऊँचे पेड़ों की पत्तियाँ खाने की आवश्यकता नहीं थी, जमीन की घास से काम चल जाता था, एक समय ऐसा (ग्लशियल पीरियड) आया कि सारी पृथ्वी बर्फ से ढक गई। तब पृथ्वी में घास न रही इसलिये जिराफ़ झाड़ियों के पत्तों को लपकने लगे। इसके लिये उन्हें गर्दन खींचने पड़ती थी। आगे पैरों को ऊँचा उठाना पड़ता था। फिर जब झाड़ियों की पत्तियाँ न रही तो और बड़े पेड़ों की पत्तियाँ प्राप्त करने के लिये उन्होंने अपने शरीर को और खींचा। परिणामतः उनकी गर्दन और आगे के पैर ऊँचे हो गये और वही जिराफ़ आज के भिन्न आकृति वाले जिराफ़ में बदल गया।

न चाहते हुए भी वातावरण के परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करते है। सबको आवश्यकतानुसार परिवर्तन की तीव्र इच्छा होगी, क्योंकि तब मनुष्य परिस्थितियों पर नहीं, परिस्थितियाँ मनुष्य पर हावी होंगी। तीव्र इच्छा के कारण बनावट में अन्तर आने से नये शरीरों के विकास की बात प्रत्येक जीव-शास्त्रों मानते है, इसलिये अब इसमें कोई सन्देह नहीं रह गया कि यदि मनुष्य ने अपनी इच्छाएँ अपने वर्तमान भौतिकता की ओर बढ़ रहे कदमों में परिवर्तन न किया तो उसके शरीरों का एकदम बदलकर विलक्षण आकृति धारण कर लेने में कोई सन्देह नहीं है।

आज की बुद्धिमत्ता से यह आग्रह है कि उसे भावी पीढ़ी को इस उपहासास्पद स्थिति से बचाने के लिये अपने आपको इतना निर्बल नहीं बना लेना चाहिये कि परिस्थितियों की सम्भालना कठिन हो जाये। हमें बढ़ती हुई भौतिकता को रोककर जीवन के जो अंश अधूरे और अनियमित पड़े है, उन्हें ठीक करके आने वाली सन्तानों को अधूरा और अनियमित बनाने का पाप नहीं ही करना चाहिये।


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