नवयुवक सज्जनता और शालीनता सीखें

November 1969

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(पं श्रीराम आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित

‘सज्जनता की राह’ पुस्तिका का एक अंश)

जीवन निर्माण का महत्वपूर्ण समय 12 से लेकर 20 वर्ष तक की आयु तक रहने वाली किशोर अवस्था है। इस अवधि में मनुष्य गीली मिट्टी और हरी लकड़ी की तरह रहता है, जिसे चाहे जिधर ढाला और मोड़ा जा सकता है। पीछे तो वह पक्की मिट्टी और सूखी लकड़ी की तरह जैसा उठती उम्र में बन गया प्रायः वैसा ही अन्त तक बना रहता है। जो बूढ़े हो चले उन ढलती आयु के लोगों के दिन करीब हैं, उनके दोष दुर्गुणों को सहन भी किया जा सकता है और उपेक्षा भी की जा सकती है पर नई पीढ़ी के विकासमान् बालकों की उपेक्षा नहीं हो सकती। अगले दिनों महत्वपूर्ण भूमिकाएँ उन्हें ही सम्पादित करनी है।नेतृत्व उन्हीं के कन्धों पर आने वाला है। वे जैसे भी कुछ भले-बुरे होंगे उसी के अनुरूप समाज की भावी सम्भावनायें बनेंगी। यदि हम निकट भविष्य में अपने समाज को समुचित सुसंस्कृत देखना चाहते है। तो सारा ध्यान अपनी होनहार उदीयमान पीढ़ी पर केन्द्रित करना पड़ेगा।

कहना न होगा कि समस्त श्री, समृद्धि प्रगति और शान्ति का उद्भव मनुष्य के सद्गुणों पर अवलम्बित है। दुर्गुणी व्यक्ति हाथ में आई हुई, उत्तराधिकार में मिली हुई समृद्धियों को गँवा बैठते हैं और सगुणता गई-गुजरी परिस्थितियों में रहते हुए भी प्रगति के हजार मार्ग प्राप्त कर लेते हैं। सद्गुणों की विभूतियाँ ही व्यक्तित्व की प्रतिभावान बनाती है और प्रखर व्यक्तित्व ही रह क्षेत्र में सफलतायें वरण करते चले जाते हैं। विद्या, धन और स्वास्थ्य के आधार पर उन्नति करने की बात कही जाती है पर उनसे भी बढ़कर प्रगति के आधार सद् गुण हैं, उन्हीं के आधार पर विद्या, धन और स्वास्थ्य की शोभा है और उन्हीं के द्वारा प्रयत्नों के सत्परिणाम प्राप्त होते हैं।दुर्गुणी व्यक्ति अपने कौशल के आधार पर कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त कर भी ले तो उन्हें सुरक्षित नहीं रख सकता। इतना ही नहीं उनके घमण्ड में उद्धत आचरण करके अपनी तथा दूसरों की शान्ति नष्ट करता है। अपने को तथा अपने समीपवर्ती समाज को संकट में डालता है।

उठती आयु में सबसे अधिक उपार्जन सद् गुणों का ही किया जाना चाहिये। विद्या पढ़ी जाय सो ठीक है, खेल-कूद व्यायाम आदि के द्वारा स्वास्थ्य बढ़ाया जाय, सों भी अच्छी बात है, विभिन्न कला-कौशल और चातुर्य सीखें जायें यह भी सन्तोष की बात है पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि इस आयु में जितनी अधिक सतर्कता और तत्परतापूर्वक सद्गुणों का अभ्यास किया जा सके, कना चाहिये। एक तराजू में एक ओर विद्या, बल, बुद्धि, धन आदि की सम्पत्तियाँ रखी जायें और दूसरे पलड़े में सद्गुण तो निश्चय ही यह दूसरा पलड़ा अधिक भारी और अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होगा। दुर्गुणी व्यक्ति साक्षात संकट स्वरूप है। वह अपने लिये पग-पग पर काँटे खड़े करेगा, अपने परिवार को त्रास देगा और समाज में अगणित उलझनें पैदा करेगा। उसका उपार्जन चाहे कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो कुकर्म बढ़ाने और विक्षोभ उत्पन्न करने वाले मार्ग में ही खर्च होगा। ऐसे मनुष्य अपयश, घृणा, द्वेष निन्दा और भर्त्सना से तिरस्कृत होते हुए अन्ततः नारकीय यन्त्रणाएँ सहते है।

अभिभावकों को केवल इतना ही नहीं सोचना चाहिये की उनके बच्चे कमाऊ,चतुर और कोई पदाधिकारी बन जाय वरन अधिक ध्यान इस बात का रखना चाहिये कि बच्चे सच्चरित्र, सद्गुणी सज्जन एवं संस्कारवान बने। यही उपलब्धि उनके जीवन की सबसे बड़ी लाभदायक सम्पदा सिद्ध होगी। इसी के आधार पर वे अपना जीवन सुखी एवं समुन्नत बना सकेंगे। सच्चा प्यार इसी को कहते है। वे अभिभावक ही अपने कर्तव्य पालन में सफल कहे जाएँगे, जिन्होंने अपने बच्चों को सद्गुणी बनाने में कुछ उठा नहीं रखा सच्चे अध्यापक वे हैं, जो खेल, गणित,भूगोल, इतिहास आदि किताबी ज्ञान देकर निवृत्त नहीं हो जाते वरन छात्रों की गतिविधियों में निरन्तर सद्गुणों की मात्रा बढ़ाने में संलग्न रहते हैं।

आज कुछ ऐसी गन्दी हवा चली है, जिसने नई पीढ़ी में उद्धत एवं उच्छृंखल बनाने की विभीषिका खड़ी कर दी है। हमारे होनहार बच्चों में से अधिकाँश में ड़ड़ड़ अवज्ञा उद्दण्डता, अनुशासन-हीनता को मात्रा बहुत चली जाती है, यह चिन्ता की बात है। इसमें देश के दुर्भाग्य का खतरा छिपा हुआ है। परस्पर छुरे-बाजी अध्यापकों की अवज्ञा, परीक्षा में नकल, बिना टिकट यात्रा लड़कियों को छेड़ना सिनेमा की शौकीनी श्रृंगार सजावट की फिजूल खर्ची, उद्धत आचरण एवं वार्तालाप में विनय एवं शिष्टता का अभाव आदि कितने ही दुर्गुण अपने होनहार बालकों में देखते है तो भारी चिन्ता होती है कि इतने उथले व्यक्तित्व को लेकर वे कि प्रकार अपने भविष्य को उज्ज्वल और प्रकाशवान बना सकेंगे और अगले दिनों जो जिम्मेदारी उनके कन्धों पर आने वाली है, उसका निर्वाह किस प्रकार कर पायेंगे।

जो नवयुवक अपना भला-बुरा समझने की स्थिति में है।, उन्हें गिरह बाँध लेनी चाहिये कि सभ्य समाज के जिम्मेदार नागरिक हमेशा अपने व्यक्तित्व को तेजस्वी बनाने के लिये सद्गुणों को अपने स्वभाव में निरन्तर सम्मिलित करते रहते हैं। शिष्टता ही लोक-प्रिय बनाती है। अनुशासन प्रिय व्यक्ति के अनुशासन में ही दूसरे लोग रहते है। सज्जनों को ही श्रद्धा मिलती है। सद्गुणों दूसरों का हृदय जीतते हैं और दसों-दिशाओं में उन पर स्नेह, सहयोग बरसता है। इस राज-मार्ग को जिसने अपनाया उसे ही मनस्वी तेजस्वी और यशस्वी बनने का अवसर मिला है और दुष्टता के दुर्गुणों में ग्रस्त हो गये, वे घोड़े समय औरों को आतंकित करके क्षणिक रौब-दौब जमा सकते हैं और डरा-धमका कर कुछ उल्लू सीधा भी किया जा सकता है पर यह तनिक-सी सफलता अन्ततः बहुत महँगी और भारी पड़ी है। लोगों की निगाह में जब व्यक्तित्व गिर गया ओर गुंडा उपद्रवी मना जाने लगा तो समझना चाहिये कि सम्मान और सहयोग की स्थिति समाप्त हो गई। जीवन में प्रगति और शान्ति के लिए दूसरों की सद्भावना और सहायता की जरूरत पड़ती है। पर यह दोनों ही अनुदान केवल सज्जनों को मिलते है। आतंकवादी और उद्धत व्यक्ति किसी हृदय में अपने लिये स्थान न बना सकेंगे, उनके लिए सबके भीतर घृणा और अविश्वास भरा रहता है। ऐसे व्यक्ति अपने जीवन में कोई ऊँचा स्थान प्राप्त नहीं कर सकते और न उन्हें कोई बड़ी सफलता ही मिलती है।

हमारे नवयुवकों को समझना चाहिये कि ध्वंसात्मक दुष्प्रवृत्तियों को-अशिष्टता एवं ड़ड़ड़ को अपना लेना अति सरल हे। छिछोरे साथियों अथवा उद्धत अगुआ लोग उठती आये के बालकों को आसानी से गुमराह कर सकते है। पर शालीनता और सज्जनता का अभ्यास बनाना उनके बस की बात नहीं। इसलिये हेय व्यक्तित्व के -जोशीले और डड़ड़ड़ लोगों को अपने ऊपर हावी ही नहीं होने देना चाहिये। उनके प्रभाव और सान्निध्य से दूर रहना चाहिये। अन्यथा उनकी मैत्री अपने को भी ड़ड़ बना देगी और वह स्थिति पैदा कर देगी, जिसमें अपनी निज की और दूसरों की आँखों में अपना व्यक्तित्व गया-गुजरा ओछा, कमीना और निकृष्ट स्तर का बन जाय। इस स्थिति में पड़ा उसके सौभाग्य का सूर्य एवं उज्ज्वल भविष्य अस्त हो गया ही समझना चाहिये।

सभ्य समुन्नत देशों के नवयुवक अपने राष्ट्र की स्थिरता एवं प्रगति में भारी योगदान दे रहे है। उनकी प्रवृत्तियाँ रचनात्मक दिशा में लगी है। अध्ययन में गम्भीर रुचि लेकर वे अपनी योग्यता बढ़ाते हैं। ताकि अवसर आने पर अपनी प्रतिभा को किसी भी कसौटी पर खरी सिद्ध कर सकें।

एक हम हैं कि जिनके बच्चे हर कहीं सिर दर्द सिद्ध होते हैं। अभिभावक रुष्ट, अध्यापक दुःखी, साथी क्षुब्ध, स्वयं उद्विग्न। इस सब का एक ही कारण है-दुर्गुणों की मात्रा का बढ़ जाना। बुखार चढ़ने की तरह मर्यादाओं का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति का बढ़ना भी खतरनाक है। अपने बालकों के उद्धत आचरण देखकर हमें दुःख पश्चाताप और दुर्भाग्य की कल्पना करें यह स्थिति हम सब के लिये लज्जाप्रद है।

जो भी हो हमें बच्चों को समझाने और सिखाने का हर मीठा-कडुआ उपाय करना चाहिये कि वे सज्जन, शालीन, परिश्रमी और सत्पथगामी बनें, इसी में उनका और हम सबका कल्याण हैं।


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