अपना ही नहीं कुछ समाज का भी हित, साधन करें

November 1969

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(पं श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित

‘व्यक्तिवाद नहीं समूहवाद पुस्तिका का एक अंश)

अन्य जीव अपने आप में पूर्ण है। अपनी आवश्यकतायें, अपने बलबूते स्वयं पूरी कर लेते हैं। आहर, निवास आदि के लिए वे किसी दूसरे पर निर्भर नहीं। पर मनुष्य की स्थिति ऐसी नहीं उसका निर्वाह, विकास एवं स्थायित्व दूसरों की सहायता पर पूर्णतया आश्रित है। अन्य जीवों के बच्चे जन्म के कुछ ही समय बाद अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं पर पर मनुष्य का बालक, दूध पीने, करवट लेने तक में समर्थ नहीं होता। उसकी विभिन्न व्यवस्थायें माता न जुटायें तो जीवित रह सकना सम्भव नहीं अपने पैरों पर खड़ा होने लायक ता वह कहीं, बीस-पच्चीस वर्ष की आयु में बनता है। तब तक उसे अभिभावकों की कृपा पर अवलम्बित रहना पड़ता है। भोजन, वस्त्र, चिकित्सा शिक्षा, विवाह आदि का प्रबन्ध वे ही करते हैं। बोलना बात करना वह दूसरों का उच्चारण सुनकर करता है। शिक्षा दूसरों के संग्रहित ज्ञान के आधार पर होती है। किसी की लड़का जाकर अपना घर बसाती है। चिकित्सा के लिये दूसरों के ज्ञान पर अवलम्बित रहना पड़ता है। कला-कौशल दूसरे सिखाते हैं। लाखों वर्षों द्वारा उपार्जित एवं संग्रहित ज्ञान हमें मिलता है ओर तब कहीं कुछ सीख-समझकर किसी योग्य बन पाते हैं।

रेल, तार,डाक, प्रेस आदि आविष्कारों के आधार पर हमारी सुविधायें टिकी हुई हैं। व्यापार जन साधनों से चलता है, वे अगणित मनुष्यों की सूझबूझ, मेहनत के परिणाम हैं-छोटी-सी दियासलाई बनाने में जितने यन्त्र, श्रम, साधन एवं ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, उनकी एक-एक प्रक्रिया का विकास लाखों-करोड़ों के सहयोग से ही सम्भव हुआ होता है। जंगलों और गुफाओं में रहने वाले साधु-महात्माओं को भी वस्त्र, माला, कमण्डल, कुल्हाड़ी, दियासलाई कम्बल खड़ाऊँ आदि की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना उनका भी निर्वाह नहीं होता। यह वस्तुऐं भी समाज के असंख्य व्यक्तियों के सहयोग, श्रम, ज्ञान से ही उपलब्ध होती हैं। कहने का तात्पर्य इतना भर है कि मनुष्य ने जो कुछ पाया, कमाया, बढ़ाया है, वह सब कुछ दूसरों के सहयोग एवं अनुग्रह का फल है। मनुष्य पूर्णतया सामाजिक प्राणी है। उसकी स्थिति एवं प्रगति सब कुछ सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर है, इसलिये उसका स्वार्थ इस बात में समाया हुआ है कि सामाजिक वातावरण उत्तम बना रहे। यदि समाज में किसी तरह विपन्नता उत्पन्न होगी तो उसका प्रभाव अपने ऊपर पड़े बिना भी न रहेगा। मुहल्ले में दुष्ट, दुराचारी भरे पड़े हों तो अपनी इज्जत आबरू तथा सुरक्षा खतरे में है। गाँव में हैजा फैले तो उसका प्रभाव अपने घर में भी जान जोखिम खड़ी करेगा। पड़ोसी के छप्पर में आग लगे तो अपना छप्पर भी सुरक्षित न रहेगा इसलिये हमें अपने-अपने बच्चों के स्वार्थों की रक्षा सामाजिक जीवन के वातावरण को उत्कृष्ट बनाये रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। ऐसे प्रयत्न इसलिए भी आवश्यक हैं, जिस समाज की सहायता से हमने अनेक सुविधायें प्राप्त की हैं। स्थिरता एवं प्रगति के उपहार पायें हैं, उसके प्रत्युपकार में प्रवृत्त होकर अपनी मानवोचित कृतज्ञता प्रकट करें। जिससे कुछ पाया है, उसे देना भी चाहिये, तभी ऋण से मुक्ति मिलती है। समाज सेवा के लिये कुछ निरन्तर करते रहने का व्रत लेकर हमें समाज ऋण से किसी कदर उऋण होने का प्रयत्न करते रहना चाहिये।

पेट पालने क प्रयत्नों में जीवन की बहुमूल्य विभूति समाप्त नहीं कर दी जानी चाहिये। स्त्री, बच्चों की आवश्यकतायें पूरी करते रहने में हमारी सारी क्षमता खर्च नहीं हो जानी चाहिये। पेट ओर परिवार से बाहर भी अपनत्व का विस्तार होना चाहिये आत्म-विकास का यही रास्ता है कि हम अपनी आत्मीयता को व्यापक क्षेत्र में विस्तृत करें। दूसरे के सुख को अपना सुख और दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानकर कुछ ऐसा भी सोचें, कुछ ऐसा भी करें। जिससे दूसरों का दुःख घटे और सुख बड़े। निश्चय ही किसी की इतनी सामर्थ्य नहीं कि लोगों के अभाव अपनी सारी सम्पत्ति देकर भी पूरे कर सके। इसी प्रकार चौबीसों घण्टे का समय लोगों की सेवा करने में लगा दिया जाय तो भी बहुत थोड़े लोगों की तनिक सी आवश्यकतायें पूरी हो सकेंगी। इसलिये अन्न वस्त्र, जल, दवा आदि बाँटकर समाज का पिछड़ापन, कष्ट अभाव एवं अवसाद दूर होने की कल्पना की नहीं जा सकती है। संसार में सारे कष्ट दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रभावों कारण हैं। इसलिये रोग के मूल कारण को समझकर जड़ पर ही कुठाराघात करना चाहिये। समाज सेवा का सर्वोत्तम तरीका यह है कि लोगों की विचारणा एवं प्रवृत्तियों को निकृष्टता की स्थिति से उबार कर उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ा जाये लोग अपना रवैया और ढर्रा बदल दे तो अपने भीतर भरी हुई प्रचण्ड सामर्थ्य के आधार पर वे स्वयं ही अपने पिछड़ेपन एवं कष्टों का निवारण कर सकते है। हमें अपना सहयोग उनकी प्रवृत्तियों को इस ओर मोड़ने के लिए देना चाहिए। उनका ऐसे नेतृत्व करना चाहिए कि विघातक प्रवृत्तियों को छोड़कर वे रचनात्मक प्रवृत्तियों में रस लेने लगें और उनके अभ्यस्त बनकर अपना तथा असंख्य दूसरों का भला कर सकें।

आज संसार ने उत्कृष्टता के आभूषण उतार दिये हैं और निकृष्टता का चोला धारण कर लिया है। विचार पद्धति और कार्य प्रणाली में निकृष्टता घुस पड़ने के कारण प्रेत-पिशाचों जैसे जीवन बन गये हैं ओर मरघट जैसा वीभत्स वातावरण बन गया है। धीरे-धीरे हम अन्तर्द्वन्द्वों में-गृह-कलह में-परस्पर उत्पीड़न में निरत होकर सामूहिक आत्म-हत्या की ओर बढ़ते चले जा रहें हैं। इन परिस्थितियों में मानव जाति की एक ही सेवा हो सकती है कि उसे बुद्धि, भ्रम, अविवेक एवं अशुभ चिन्तन से बचाकर नीर-क्षीर विवेचना ऋतम्भरा प्रज्ञा का आश्रय लेने के लिए तत्पर किया जाय। आज की स्थिति में समाज की यही सबसे बड़ी सेवा है। विचार-क्राँति ही वर्तमान दुर्दशा को पलट कर धरती पर स्वर्ग का अवतरण सम्भव कर सकेगी।

विचार-क्राँति के लिए आदर्शवादी विचार-धारा का प्रतिपादन करने वाले पुस्तकालयों की सबसे बड़ी आवश्यकता है। देव-मन्दिरों की तरह आज ज्ञान-मन्दिरों की-पुस्तकालयों की स्थापना नितान्त आवश्यक है। जिनसे जीवन को आदर्शमय बनाने और सामयिक उलझनों को सुलझाने वाला प्रकाश मिल सके ऐसी पुस्तकें पत्र-पत्रिकाएँ जहाँ आती है, लोगों के पास तक उस साहित्य को पहुँचाने और लाने का प्रबन्ध सम्भव हो, ऐसे पुस्तकालयों की हर जगह भारी आवश्यकता है। धनीमानी इस कार्य में अपना दान देकर अपनी कमाई को धन्य बना सकते हैं। पूर्वजों की स्मृति किसी को बनानी हो तो उनके नाम पर पुस्तकालय ही स्थापित करना चाहिये। परस्पर मिलजुल कर चन्दे से भी ऐसी संस्था स्थापित की जा सकती है।कोई प्रबन्ध न हो सके तो व्यक्ति रूप से भी झोला पुस्तकालय बनाकर घर-घर ऐसा प्रेरक साहित्य पहुँचाने का पुण्य परमार्थ किया जा सकता है।

अपने देश में शिक्षा की बड़ी कमी है। लोग अभी भी शिक्षा की उपयोगिता समझ नहीं पाये हैं। देहातों में बहुत लोग अपने लड़कों की पढ़ने नहीं भेजते। लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज तो बहुत कम है। हमें टोलियाँ बनाकर घरों में जाना चाहिये और शिक्षा योग्य लड़के-लड़कियों को स्कूल भिजवाने की प्रेरणा देनी चाहिये। सरकारी और गैर-सरकारी स्कूल खुलवाने चाहिये। वयस्क पुरुषों के लिए तथा महिलाओं के लिए तीसरे पहर अथवा रात्रि को चलने वाली प्रौढ़ पाठशालाएँ स्थापित करनी चाहिये, पैसा या श्रम देकर ऐसी शिक्षा संस्थाएँ लोग हर जगह चला सकते हैं। इन कार्यों के लिए सार्वजनिक धन संग्रह भी किया जा सकता हैं। काम से लगे हुए व्यक्ति आगे पढ़ने के लिए जिनमें सुविधा प्राप्त कर सके, ऐसे रात्रि विद्यालय तथा छात्रों की सहायता करने वाले कोचिंग स्कूल हर जगह चलने चाहिये। छोटे बच्चों के लिए मुहल्ले-मुहल्ले में शिशु-मन्दिर होने चाहिये। शिक्षा का जितना विकास सम्भव हो सके सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर इसके लिए पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए। अपने 80 प्रतिशत अशिक्षित देशवासियों को साक्षर बनाकर ही हम उन्हें अविवेक रूढ़िवादिता के चंगुल से निकाल सकते हैं

आज की ज्वलन्त समस्याओं का स्वरूप समझने ओर उनका हम प्राप्त करने के लिए समय-समय पर-स्थान-स्थान पर विचार-गोष्ठियों के आयोजन होते रहने चाहिये जिनमें प्रश्न और उत्तर के रूप में आज की वैयक्तिक और सामाजिक समस्याओं का निराकरण समझने की सुविधा सर्वसाधारण की मिल सकें। समाज सेवा का सबसे पहला कार्य जनमानस में विवेकशीलता जगानी है, ताकि लोग अपनी अवांछनीय आदत और अवांछनीय रूढ़ियों को छोड़कर औचित्य अपनाने और सन्मार्ग पर चलने के लिए तत्पर हो सकें यह काष् जिन प्रयत्नों से हे सकता है उन्हें सर्वोत्तम समाज-सेवा माना जायेगा। हममें से हर भावनाशील व्यक्ति को मन में इसी प्रकार के कार्यों की व्यवस्था करने में संलग्न होकर अपना परम पवित्र सामाजिक कर्तव्य पालन करना चाहिये।


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