सन्तोष का आभूषण

November 1969

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“मेरी महत्त्वाकाँक्षा के लिए क्षमा करें देव! मैं सुहागिन हूँ, किन्तु शरीर में एक भी आभूषण न होने से भद्र महिलायें मुझे असम्मान की दृष्टि से देखती है। लोक सेवा आपके जीवन का लक्ष्य है स्वामी। आपकी सहधर्मिणी होने के फलस्वरूप मेरा कर्तव्य है, मैं आपके आदर्शों का अनुगमन करूँ किन्तु सामाजिकता को भी तो सर्वथा ठुकराया नहीं जा सकता। यही एक छोटी सी बात है। एक दो मंगल आभूषणों की व्यवस्था हो जाती तो इस असम्मान से तो बच जाती।” लोपामुद्रा ने बड़े संयत और विनीत शब्दों में अपने मन की बात पति से कह दी।

महर्षि अगस्त्य कुछ गम्भीर होकर बोले-भद्र अपने मन की बात बड़ों से स्पष्ट कर देना उनका नैतिक अधिकार है। पति पत्नी अन्तरंग के सखा होते है, अपनी आकांक्षायें एक दूसरे से व्यक्त न करें तो फिर गृहस्थी का आनन्द ही क्या रहे। इसमें भूल या क्षमा जैसी कोई बात नहीं है। गृहस्थ होने के साथ मुझे उन आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना आवश्यक था, जिससे परिजनों को सुख कल्याण के लोकोत्तर साधनों पर तो चर्चा करते रह पर साँसारिक होकर भी साँसारिकता को सर्वथा व्याप्य समझते रहे। आगे कभी ऐसी भूल न होगी।”

किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में भार्या लोपामुद्रा के लिए आभूषणों की व्यवस्था कैसे हो इसकी, उन्हें स्वाभाविक चिन्ता उठ खड़ी हुई। महर्षि ने जप तप किया था, साधन, योगाभ्यास किया था, अष्टांग नियमों का पालन किया था, सो वे आत्मिक सम्पत्ति से तो परिपूर्ण थे पर लोकोपकार और आत्म तत्व की शोध में निरन्तर व्यस्त रहने के कारण वे लौकिक सम्पत्ति न जुटा पाये थे। इसलिए लोपामुद्रा की आकांक्षा को पूरा करना वस्तुतः चिन्ता का ही विषय था।

महर्षि ने हजारों शिष्यों को पढ़ाया लिखाया और योगाभ्यास कराया था। नीति, समास-शास्त्र अर्थ-शास्त्र तर्क-मीमांसा तत्व दर्शन आदि अनेक विद्याओं से सैकड़ों शिष्यों को दीक्षित प्रशिक्षित किया था पर ड़ड़ड़ड़ की भावना से आज तक उन्होंने किसी से भी कुछ स्वीकार नहीं किया था। यद्यपि पारिश्रमिक ले लेना उनका नैतिक अधिकार था, तथापि ब्राह्मणत्व के तेज और वर्चस्व को बनाये रखने के लिए उन्होंने धन को अपने से दूर ही रखा था। जीवन निर्वाह भी वह अपने दो हाथों की कमाई से ही करते थे। ऐसा न करते तो ऋषि जीवन की शान कहाँ रहती?

पर आज का प्रश्न उतना ही उलझनों के साथ आ खड़ा हुआ, जितनी उलझने साँसारिकता से ग्रस्त मनुष्य अपनी भूलों के द्वारा पैदा कर लिया करता है। ऋषि ने आज तक पढ़ा था-कामनाओं की बाढ़ से चिन्ताओं का बोझ बढ़ता है।” आज उसकी स्पष्ट अनुभूति हुई। अब वे इस बात पर विचार करने लगे आभूषणों की व्यवस्था कैसे हो कि अपने आदर्शों का परित्याग भी न हो और लोपामुद्रा की भावना का अनादर भी।

महर्षि अपने कुछ प्रमुख शिष्यों को लेकर राजा ड़ड़ड़ड़ के पास चल पड़े। श्रुतर्वा उनका शिष्य रह चुका था। गुरु के प्रति उसके हृदय में अपार आदर और निष्ठा थी। यह सोचकर ही महर्षि अगस्त उसके पास चले थे। तो भी उनका अन्तिम निश्चय यही था कि वे आभूषण या आभूषणों के लिए वही धन स्वीकार करेंगे जो शिष्यों द्वारा न्यायपूर्वक अर्जित किया गया हो। अनीति से उपार्जित धन ग्रहण करना ऋषि के लिए सम्भव न था।

गुरुदेव! को अपने द्वार आया देखकर वीर्यवान श्रुतर्वा के हर्ष का पारावार न रहा। उसने उनकी सब प्रकार आवभगत की। वर्षों से बिछुड़े गुरु-शिष्य माँ-बेटे की तरह मिले। कई दिन स्वागत सत्कार में ही निकल गये। तब श्रुतर्वा को ध्यान आया कि गुरुदेव का आगमन किसी उद्देश्य से तो नहीं हुआ। उसने शिष्यों से सब ड़ड़ड़ड़ जाना। उसके लिए यह सौभाग्य की बात थी, गुरु-माता की छोटी-सी इच्छा उसके द्वारा पूरी होने जा रही थी।

प्रातः काल उसने अनेक सुन्दर आभूषणों और स्वर्ण मुद्राओं से भरी मंजूषा गुरु-चरणों में समर्पित कर दी। उसे स्वीकार करने की प्रार्थना करते हुए श्रुतर्वा ने कहा-भगवन्! आज्ञा दे तो श्रृँगार के लिए स्वयं सामारजी को आश्रम भेजने का प्रबन्ध कर दें। श्रुतर्वा की गुरु-भक्ति से महर्षि अगत्स्य का हृदय भर आया, किन्तु आभूषण स्वीकार करने से पूर्व उन्होंने प्रश्न किया-वत्स! पहले बताओ इन आभूषणों में कही अधर्म और अन्याय की कमाई तो नहीं लगी।

श्रुतर्वा ने चिंतित स्वर में बताया-देव! यह आभूषण राज्य कोष से बने। कोष के लिए धन प्रजा देती है, कितने लोगों ने परिश्रम की कमाई दी है, कितनों ने अधर्म की, यह तो मुझे भी अविज्ञात है। लगता है इसमें शोषण और उत्पीड़न से प्राप्त धन भी है, भगवन् भूल हुई जो आपका शिष्य होकर भी यह ध्यान न रख सका और परिग्रह में पड़ा रहा।

निश्चय ही कर देने वालों में से कितनों ने ही बिना परिश्रम अनीतिपूर्वक धन कमाया होगा, इस आशंका के मन में आते ही महर्षि ने वह मंजूषा लौटा दी और उदास मन वापिस चल पड़े।

अब वे राजा धनस्व के पास पहुँचे। धनस्व प्रजापालक और धर्मज्ञ राजा के साथ ही साथ निष्ठावान् शिष्य था। किन्तु गुरु का सत्कार उसने बहुत सादगी से किया। उसका निवास भी श्रुतर्वा जैसा नहीं था। पूछने पर ज्ञात हुआ कि धनस्व राज्य संचालन और अपने निर्वाह के लिए इतना कर लेता है, जिससे राज्य की आवश्यकतायें तो पूरी हो जाती है पर बचता कुछ नहीं। महर्षि अगत्स्य ने शिष्य धनस्व की पीठ थपथपाकर आशीर्वाद दिया-वत्स जिस देश में तुम्हारे जैसे नीति निपुण और त्याग वृत्ति वाले शासक होंगे वहाँ प्रजा कभी दुःखी न रहेगी। धनस्व को अपने गुरु की आवश्यकता पूरी न कर सकने का दुःख अवश्य था पर उसे अपनी कर्तव्य परायणता के लिए सन्तोष भी था। उसी सन्तोष के साथ उसने गुरुदेव को सादर विदा दी।

इसके बाद महर्षि अपने कई शिष्यों के पास गये पर निराशा ही हाथ लगी। जहाँ शिष्य कर्तव्य परायण और परिश्रमी मिले वहाँ उपयोग से अधिक धन नहीं मिला जहाँ धन मिला वहाँ साधन दूषित थे, अतएव उनकी आशा सब जगह अधूरी ही रही।

अन्ततः वे अपने दैत्य शिष्य इल्वण के पास गये। गुरु को पाकर शिष्य की वर्षों से सोई श्रद्धा उमड़ पड़ी। महर्षि अगत्स्य का उसने भारी स्वागत किया। उसके पास धन सम्पत्ति और सवर्ण आभूषणों का किंचित् मात्र भी अभाव नहीं था। शिष्यों से उसने चुपचाप गुरु का आशय भी जान लिया। और इससे पूर्व कि वे कुछ कहें उसने अपने प्रमुख भृत्यों के साथ प्रचुर आभूषण भर कर आश्रम भिजवा दिये। महर्षि को जब तक बात मालूम पड़े आभूषण आश्रम में लोपामुद्रा के पास पहुँच गये।

आभूषण एक और रखवा कर विदुषी लोपामुद्रा ने भृत्यों को जल पिलाया और उनसे महर्षि की कुशल मंगल पूछी। नौकरों ने वह तब समाचार सुनाये, जिस तरह अगत्स्य श्रुतर्वा से लेकर इल्वण के दरबार तक दौड़े थे। लोपामुद्रा पति की इस अकारण भाग दौड़ के लिए बहुत दुःखी हुई। उन्हें अपनी महत्त्वाकाँक्षा रोक न सकने का बड़ा दुःख हुआ।

उन्होंने पूछा-इल्वण के पास इतना धन कहाँ से आता है, जो उसने ढेर सारे आभूषण यहाँ पर भेज दिये। भृत्य हंसे और बोले-भगवती वह शासक है, उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं। इतना धन तो वे एक क्षण में किसी से भी अधिकारपूर्वक ले सकते है।

लोपामुद्रा की आँखें खुल गई। उसके लिये अनीति की कमाई स्वीकार करना असम्भव हो गया। अस्तु उसने वे आभूषण वापिस कर दिये। तब तक महर्षि अगत्स्य भी वहाँ पहुँच गये। उन्हें अपनी असमर्थता नहीं प्रकट करनी पड़ी, लोपामुद्रा ने भरे हृदय से उनका स्वागत करते हुए क्षमा माँगी। महर्षि ने लोपामुद्रा को हृदय से लगाते हुए कहा-प्रिये आज तुमने सच्चा आभूषण पा लिया। सन्तोष ही वह आभूषण है, जिससे बढ़कर दूसरा आभूषण धरती पर नहीं है।


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