आत्मा की अमरता कल्पना मात्र नहीं

November 1969

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लेनिनग्राड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर एल॰ लोजिन लोजिनस्की की ड़ड़ड़ड़ विषय में गम्भीर रुचि है, उन्होंने अनेक प्रयोग करके यह जानने का प्रयत्न किया है कि मृत्यु और जीवन में मूलमंत्र क्या है मृत्यु के बाद भी चेतना का अस्तित्व बना रहता है।

1964 में उन्होंने एक प्रयोग किया। मक्के के कीटों की 269 अर्थात् शून्य से 4 डिग्री ऊपर हीलियम द्रव (लिबिम्बड) में जमा दिया। साड़े छः घण्टे इसी दशा में रखने के बाद उन्होंने ताप देकर उनमें क्रमिक रूप से चेतना लाने का प्रयत्न किया। निष्कर्ष यह निकला कि 20 में से 13 कीट तो फिर से जीवित हो गये, किन्तु शेष 7 में किसी प्रकार की चेतना लाना सम्भव न हुआ।

इसी प्रकार का एक और प्रयोग सोवियत के ही दूसरे वैज्ञानिक नेगोवस्की ने किया, इसका विवरण कुछ दिन पहले ‘डिस्कवरी’ पत्रिका में छपा था। बात यों हुई कि एक 23 वर्षीय युवक कृषक ड़ड़ड़ड़ खारिन एक दिन अपने खेतों पर ट्रैक्टर चला रहा था। एकाएक जोर का बर्फीला तूफान आ गया और ड़ड़ड़ड़ खारिन गिर पड़ा। उसके ऊपर बर्फ जमा हो गई। इसी अवस्था में वह 6 घण्टे तक पड़ा रहा। 6 घण्टे बाद उसका शरीर बाहर निकाल कर अस्पताल पहुँचाया गया। डाक्टरों ने घोषणा की युवक की मृत्यु हो गई है।

नेवोवस्की ने तब एक प्रयोग किया। उन्होंने मृतक के पाँवों को गर्म पानी में डाला और उसे एड्रेनेलीन का इञ्जेक्शन देकर कृत्रिम श्वाँस देना प्रारम्भ किया शरीर में बाहर से थोड़ा रक्त पहुँचाकर उसे बिस्तर पर लिटाया गया और गर्म बोतल से ड़ड़ड़ड़ गई। उष्णता का संचार होते ही धीरे धीरे साँस क्रिया भी चलने लगी। मृतक जीवित हो गया और पूर्ण स्वस्थ होकर काम-काज भी करने लगा।

इन दोनों घटनाओं के विश्लेषण से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है, मृत्यु है क्या साधारणतया हृदय और श्वाँस गति रुक जाने को मृत्यु कहते है। किन्तु अब वैज्ञानिक यह बात नहीं मानते। आपरेशन करते समय हृदय-गति रुक जाती है, डाक्टर मालिश करके उसे फिर प्रारम्भ कर लेते हैं, इन दिनों हृदय बदलने के अनेक प्रयोग हो रहे है, इस क्रिया में दूसरा हृदय-प्रतिरोपण करने से पहले, पहला हृदय निकालना आवश्यक होता है। 20 अगस्त 1968 में जालन्धर में हुई एक ताँगा दौड़ में रोशनलाल नामक ताँगे वाले का मोटर ऐक्सीडेन्ट हो गया। जब तक उसे अस्पताल पहुँचाया जाये उसकी हृदय गति रुक गई और 20 मिनट तक उसकी यह अवस्था रही। इसके बाद डाक्टरों ने कृत्रिम विधि से मालिश द्वारा पुनः हृदय में धड़कन पैदा की और रोशनलाल जीवित कर लिया गया। रुकी हुई साँस पुनः प्रारम्भ की जा सकती है, हृदय गति रुकना मृत्यु नहीं। इस तरह मृत्यु के रहस्य-वैज्ञानिकों के लिये और भी रहस्यपूर्ण हो गये है।

लोगों की यह कल्पना कि मनुष्य को आक्सीजन भोजन या पानी नहीं मिले तो उसकी मृत्यु हो जायेगी, भी निराधार सिद्ध हो चुकी है। शरीर को गर्म रखने के लिये यह वस्तुऐं केवल घड़ी की सुई की तरह काम करती है। यदि हवा, पानी और भोजन न मिले तो भी मनुष्य जिन्दा रह सकता है, भारतवर्ष में समाधि लगाने वाले योगी इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस सम्बन्ध में कभी विस्तृत प्रकाश डालेंगे पर आज यदि कोई योग की यह बात मानने को तैयार न होता उसे हम अन्तरिक्ष अभियान के वैज्ञानिकों के पास ले चलना चाहेंगे।

बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति आदि की दूरी के अनुपात से जो विवरण प्राप्त किये गये हैं, उनसे पता चलता है कि यदि कोई अन्तरिक्ष यात्री यूरेनस नेपच्यून जाना चाहे तो उसे 32 और 61 वर्ष तो केवल वहाँ जाने और आने में ही लग जायेंगे, इतनी आयु अन्तरिक्ष में गँवाना किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं। इस स्थित के लिये रसायनज्ञों ने एक उपाय यह निकाला है कि मनुष्य अपने शरीर से निकाले गये परमाणुओं का बार बार उपयोग कर सके और उसे प्रसूत अवस्था में लाया जा सके तो बिना कुछ खाये पिये, हवा लिये भी मनुष्य इतनी लम्बी अवधि तक जीवित बन रह सकता है। अर्थात् उसके मस्तिष्क के कोश भी अर्द्ध-मूर्छित अवस्था में स्वप्न की चेतना की तरह काम करते रहेंगे पर उन्हें बाह्य दृष्टि से कोई जानकारी न होगी। वैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष से पता चलता है कि जीवन के समान ‘सुषुप्ति’ भी एक अवस्था है। जीवन और मृत्यु के इस बीच की इस स्थिति के सम्बन्ध में व्यापक खोज की जा रही है और यह निकट भविष्य में ही सम्भव हो जायेगा, जब मृत्यु को भी प्राणी के जीवन की एक सामान्य अवस्था मान लिया जायेगा।

उदाहरण के लिये सोवियत वैज्ञानिक प्रोफेसर पी0 कोप्तरेव ने जल-कीट डाफनिया (जल में पाया जाने वाला एक विशेष कीड़ा) और शैवाल को उन क्षेत्रों से निकाला, जहाँ स्थायी रूप से बर्फ जमी रहती है। हिसाब लगाकर देखा गया कि इनमें से कुछ जीव 25 हजार वर्ष प्राचीन थे। बर्फ में यह गुण होता है कि उसमें शरीर के कोष मरते नहीं हिमालय के भालू 6-6 महीने बर्फ में दबे पड़े रहते है, फिर बर्फ के हटते ही सूर्य की धूप लगने से उनके शरीर में स्वतः श्वाँस प्रश्वास प्रारम्भ हो जाता है और वे इतने दिन बिना किसी आहार, आक्सीजन और पानी के भी जीवित हो उठते है। डा कोप्तरेव ने भी इसी तरह गर्मी देकर इन 25 हजार वर्ष पूर्व के जीवों को जीवित कर दिया। इतनी लम्बी अवधि तक सुषुप्ति अवस्था में रहना रह बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि चेतना का कभी अन्त नहीं होता। शरीर ही उसे स्वीकार न करे या उसके निवास योग्य न रहे, यह दूसरी बात है।

अब वैज्ञानिक इस बात का अध्ययन कर रहे है कि रासायनिक तत्वों का कार्बनिक (आर्गेनिक) पदार्थों से संश्लेषण किस प्रकार हो सकता है। सम्भवतः अन्तरिक्ष यानों में क्लोरेला (माइक्रोस्कोपिक एल्गी एक प्रकार का पौधा) की नर्सरी से संश्लेषण की क्रिया पूरी की जा सकती है, इससे अचेतन अवस्था में पड़े शरीर अपने शारीरिक अक्लिष्ट से ही उसी प्रकार जीवन बनाये रख सकते है, जैसे मनुष्यों और पशुओं द्वारा छोड़ी साँस और मल मूत्र से पौधे जीवनी शक्ति लेते रहते है। यदि यह प्रयोग सफल हो गया तो मनुष्य के शरीर को अचेतन अवस्था में कितने भी वर्ष तक रखकर उसे इच्छानुसार मारा और जगाया जा सकता है। इस बीच की अवधि में उसे बाहर से न तो भोजन की आवश्यकता होगी, न पानी की और न आक्सीजन की।

इन बातों से उपरोक्त प्रयोगों का विश्लेषण किया जा सकता है। पूर्ण मृत्यु तब होती है, जब मस्तिष्क के कोषों (सेल्स) को इतना आघात पहुँच जाये कि वे सदैव के लिये काम करना बन्द कर दें। हृदय और साँस की क्रियायें बन्द हो जाती है, तब भी मस्तिष्क काम करता रहता है। इससे निर्विवाद साबित होता है कि चेतना का प्रत्यक्ष सम्बन्ध शरीर से नहीं, मानसिक शक्तियों से है। मस्तिष्क एक ऐसी जटिल प्रणाली है, जिसके बारे में वैज्ञानिक भी हाथ पर हाथ धरे बैठे है, अभी तक बाह्य मस्तिष्क की अधिक से अधिक 17 प्रतिशत जानकारी उपलब्ध की जा सकी है। मध्य-मस्तिष्क (मिलि ब्रेन) की तो कुल 3 प्रतिशत ही जानकारी हो सकी है। इसीलिये वैज्ञानिकों के लिये मृत्यु अब भी रहस्य बनी हुई है।

हृदय-गति रुकने से मस्तिष्क को शुद्ध रक्त मिलना बन्द हो जाता है। इससे वह शकर-प्रज्वलित कर सकने में असमर्थ होता है। इसी क्रिया के द्वारा मस्तिष्क को शक्ति मिलती है। देखा गया है कि रक्त न मिलने पर भी वह 6 मिनट तक आपत्तिकालीन उपायों के सहारे जीवित बन रह सकता है। वैज्ञानिक इन आपत्तिकालीन सहायताओं का अध्ययन करके मस्तिष्क का सीधा सम्बन्ध अर्गानिक पदार्थ के संश्लेषण से जोड़ने के प्रयत्न में है। यदि ऐसा कोई उपाय निकल आया तो योगीजन की समाधि के समान वैज्ञानिक भी मनुष्य को अर्द्ध-जीवित (सुषुप्ति) अवस्था में सैकड़ों वर्ष तक बनाये रख सकते है।

विज्ञान के लिये जो सम्भावना है, योगियों के लिये वही इच्छा मृत्यु। चेतना की अमरता की परिपूर्ण जानकारी भारतीय तत्व-वेत्ताओं ने मानसिक एकाग्रता, ध्यान और समाधि के द्वारा प्राप्त करके ही यह बताया है कि-

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवन जरा।

तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीस्तत्र न मुह्मति॥

-गीता 2।13,

अर्थात्-जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार युवा और वृद्ध अवस्था होता है, वैसे ही वह अन्य शरीरों की भी प्राप्ति करता है। धीर पुरुष शरीर में मोहित नहीं होते।

न जायते भ्रियते वा कदाचि-त्रायं भूत्वा भविता वान भूपः।

टजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो,

न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

-गीता 2।20

हे अर्जुन! यह आत्मा व किसी काल में जन्म लेती है और न मरती है और न यह आत्मा ही करके फिर होने वाली है, यह अजन्मा, नित्य शाश्वत (अमर) और पुरातन है, शरीर के नाश हो जाने पर भी यह नाश नहीं होती।

शरीर के कोषों को सुरक्षित रखकर लम्बे समय तक चेतना को अमर बनाये रखा जा सकता है पर यह केवल तभी सम्भव है जब मस्तिष्क की आधी चेतना बनी रहे। ऐसा भी हुआ है कि जब मस्तिष्क के एक दो ‘सेल’ मात्र ही जीवित बन रहे हों और उनसे मृत शरीर को कई महीनों बाद भी पुनर्जीवन जाग गया हो। प्लूटो आदि की लम्बी यात्राओं में भी अन्तरिक्ष यात्री को ऐसे उपकरणों में घेरकर लिटाया जायेगा जो अचेतावस्था (एनेबायोसिस) निद्रा का नियन्त्रण और रक्षा करते रहेंगे क्योंकि वैज्ञानिक जान गये है कि चेतना को बाँधा नहीं जा सकता अधिक से अधिक अवस्था परिवर्तन किया जा सकता है, क्योंकि मृत्यु स्वयं भी एक अवस्था परिवर्तन है, अर्थात् चेतना शरीर से लुप्त होकर भी मानसिक जगत् में उसी तरह बनी रह सकती है, जिस तरह स्वप्न या सुषुप्ति की अवस्था में अनुभूतियाँ होती है पर बाह्य इन्द्रियों का सहयोग न मिलने से स्थूल जानकारियाँ नहीं मिल पातीं। आत्मा तब अपने ही प्रकाश में काम करती है।

शरीर की बनावट और जीवन का उससे सम्बन्ध इतना जानना ही जीवन की यथार्थ जानकारी नहीं दे सकता क्योंकि वह अवस्था भी है, और मनोविज्ञान भी। वैज्ञानिकों में से अनेक ऐसे है, जो अब यह स्वीकार मात्र का परिवर्तन होता है और वह भी नियम बद्ध होता है। हमें देखना होगा कि क्या हमारी मानसिक क्रियायें आत्मा को प्रभावित करती हैं। एक शरीर से, दूसरे शरीर में आने जाने में मनोमय जगत् का क्या हाथ है? यदि हम इन बातों को समझ पाये तो आध्यात्मिक स्तर पर जीवन को शुद्ध सात्विक बनाने और आत्मा की प्राप्ति अमरत्व या मुक्ति की आवश्यकता भी अनुभव करने लगेंगे।

वैज्ञानिकों ने जो प्रयोग किये है, वह चेतना के शारीरिक सम्बन्ध तक ही सीमित है, उसके आगे की लक्ष्य पूर्ति आध्यात्मिक उपादान द्वारा ही सम्भव होगी। हमारे लिये यह सबसे बड़े सौभाग्य की बात होगी, यदि हम जीवन की इस अनिवार्य आवश्यकता को समझ जायें और लक्ष्य प्राप्ति के प्रयत्नों में जुट जायें।


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