निर्भय, निष्काम, निःशेष

November 1969

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“आत्म जागृति के लिये अन्तःकरण को निर्भय निष्काम और सम्पूर्ण समर्पण की साधना करनी पड़ती है तात! जिस दिन तू इस तत्व ज्ञान को समझ लेगा, उस दिन तेरी अवरुद्ध आत्म प्रगति के द्वार अपने आप खुल जायेंगे।”

बहुत दिन तक आत्म शोध करते रहने के बाद भी जब सफलता के दर्शन न हुए, तब साधक को गुरुदेव के यह शब्द स्मरण आये। उन्होंने कहा था-वत्स! जब तुम्हें ऐसा लगे कि इन शब्दों का मर्म समझ से परे है, तब तुम प्रकृति की शरण में चले जाना। वह तुम्हें आत्म जागृति के लिये प्रकाश मिल जायेगा।

वर्षों तक आश्रम के जीवन में बँधे रहने वाले साधक ने उन वचनों का मर्म जानने का निश्चय किया। आश्रम का परित्याग कर वह प्रकृति की गोद में विचरण करने वाला पथिक बन गया। पथिक साधक।

वर्षा के दिन थे, मेघ आसमान में धरे थे। बूँदें अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उत्तुंग शिखर को बहा देने में लगी थीं। प्रत्येक आघात के साथ मिट्टी का एक कण टूट जाता और ढाल में बहता बहता नीचे जा गिरता। पर्वत की देह छिन्न विच्छिन्न हो चली थी। पत्थर और वृक्ष नरकंकाल की नसों और हड्डियों की तरह लगते थे। इतने कुटिल आघात झेलने वाले शिखर के प्रति बूँदों के मन में किंचित् मात्र करुणा भी नहीं झलक रही थी।

पथिक ने पूछा-पर्वतराज! छोटी छोटी बूँदें तुम्हें चुकाये दे रही है, सारा बदन गलता जा रहा है, फिर भी तुम इतने निर्भय खड़े हो। अपने आपको इन बूँदों से बचा लो तात्! अन्यथा तुम्हारा तो अस्तित्व ही कुछ दिन में समाप्त हो सकता है।”

बादलों की हँसी में अपनी हँसी मिलाते हुए अडिग शैल ने उत्तर दिया-साधक! तुम इतना भी न जान पाये कि परिस्थितियों के आघात मनुष्य को चुकाते नहीं, ऊँचे उठाते है। तुम देखते नहीं मेरा शरीर छिला जा रहा है पर बूँदों के आघात जितने तीव्र होते है मेरे अन्तर की शक्ति और उल्लास उतना ही उद्दीप्त होता चला जाता है, तुम्हें लगता है मैं घट रहा हूँ पर मैं प्रति वर्ष कुछ न कुछ बढ़ ही जाता हूँ।”

पथिक ने कहा - हिमधर! तुम्हारी निर्भयता धन्य है। सचमुच निर्भय हुये बिना, आघातों से टकराये बिना कोई ऊँचा नहीं उठ सकता।

पथिक आगे बढ़ा-दिन भर चला, पाँव थक गये। सरिता का शीतल किनारा देखकर वह चुपचाप बैठ गया। पैर पानी में डाल दिये, बड़ी शीतलता मिली उसे पर साथ ही आत्म-ग्लानि भी हुई कि मैंने क्यों इन्हें पाद-प्रहार किया। अपने इस दुर्व्यवहार पर साधक को दुःख भी हुआ साथ की कौतूहल भी कि इतने पर भी नदी ने उसे न तो कुछ बुरा कहा और नहीं पाँव को ठोकर मारी, उल्टे उन्होंने शीतलता ही दी, जीवन ही दिया।

इतनी सरल क्यों हो सरिते? पथिक ने प्रश्न किया-इस पर नदी बोली “तात्! क्षुद्र जनों को भी हीन न समझें -इसलिये तुम नहीं जानते जो जैसा देखता है उसका अन्तरंग भी वैसा ही बनता है, यदि मैं औरों को छोटा मानूँ तो हर किसी से लड़ने झगड़ने वाली जीवन की क्षुद्रता में बदल जाऊँ। मैंने नियम लिया कोई कुछ भी करे, मुझे तो उसे उपकार की भावना से ही देखना चाहिये।”

लेकिन देवी! ठहरती तो तुम कहीं, एक पल भी नहीं सा क्यों? नदी उसी शान्त भाव से बाली - “इसलिये कि बल के चरणों में मेरा शीश न झेले, बुराइयों के आगे मेरा मस्तक नत न हो। शक्ति और शुद्धता के लिये निष्काम होना आवश्यक था, उसी व्रत का पालन मैं कर रही हूँ।”

साधक वहाँ से चलकर समुद्र के तट पर पहुँचा। साँझ हो गई थी तो भी आतप उसे जलाये ही जा रहे थे। पथिक ने पूछा-सिन्धुराज! इस तरह तो तुम्हारा सारा ही जल भाप बनकर उड़ जायेगा, तुम बड़वाग्नि का प्रतिरोध क्यों नहीं करते। निरन्तर जलते रहने में भी कुछ आनन्द है क्या।”

समुद्र ने हँसकर कहा-तात्! मैं खो रहा हूँ, तुम्हें ऐसा भ्रम हो गया है। मैं जला नहीं तो भाप कहाँ से बने, भाप न हो तो जल कहाँ से बरसे, जल न गिरे तो वृक्ष, वनस्पतियों और संसार को जीवन कहाँ से मिले? पथिक! मुझे जो जल मिलता है, यह भी तो मेरे उत्सर्ग का ही प्रतिफल है, मेरी तो इच्छा है कि और वेग से जलूँ, ताकि संसार को और भी तीव्रता से पोषण मिले। तुम नहीं जानते साधक, तब नदियाँ भी मुझे अब की अपेक्षा अधिक जल देने लगेंगी।”

पथिक को प्रत्यक्ष ज्ञान मिल गया। आत्म जागृति के लिये निर्भयता अनिवार्य है, निष्कामता होना ही चाहिये। अपने पास जो कुछ है, उस सम्पूर्ण को विश्व हित में जला देने वाले ही पूर्णता का आनन्द ले सकते है। यह मर्म समझ में आ गया, तो साधक अन्तिम साधना के लिये पुनः गुरु चरणों में वापिस लौट आया।


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