मनोविज्ञान हमारे सबसे बड़े शत्रु

November 1969

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निराशा, चिन्ता, असन्तोष अथवा उद्वेग किसी भी, आपत्ति अथवा विषमताओं का उपचार नहीं है। यह विकास स्वयं ही रोग और विपत्ति माने गये है। संसार में जो भी व्यक्ति सफल हुये हैं, उन्होंने अपने जीवन में निराशा, चिन्ता अथवा असन्तोष की कभी अवसर नहीं दिया। उन्होंने विकट से विकट परिस्थितियों में अपने को इन विकारों से बचाया है। संसार में जो भी असफल होते हैं, उनकी असफलता का कारण अभाव अथवा प्रतिकूल परिस्थितियाँ नहीं होती। उनका एक मात्र कारण निराशा, चिन्ता अथवा असन्तोष ही होता है। असफलता का निवास बाह्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता में नहीं मनुष्य की प्रति गामिनी भावनाओं में होता है।

निराशा एक मानसिक रोग है। यह मनुष्य की गतिशीलता को अस्वस्थ बना देता है। निराशावादी व्यक्ति प्रगति की भावना और उन्नति की जिज्ञासा से उदासीन हो जाता है। प्रगति अथवा उन्नति की बात मन में आते ही उसे ऐसा आभास होने लगता है, मानो वह अपने ऊपर कोई विपत्ति लाने की बात सोच रहा हे। काम में प्रवृत्ति लाने से पूर्व ही उसे आपत्तियाँ, कठिनाईयाँ और असफलता दिखलाई देने लगती है। उसका साहस मर जाता है, उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। आपने को जहाँ का तहाँ पड़ा सुरक्षित अनुभव करता है। एक निराशावादी और मृत व्यक्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। एक स्थित शव की तरह होता है, एक चलती-फिरती लाश की तरह।

चिन्ता की चिंता तक कहा गया है। किन्तु चिन्ता रूपी चिता श्मशान की चिता से अधिक भयंकर होती है। क्योंकि वह चिंता मेरे मनुष्य को जलाया करती है और यह जीवित मनुष्य को। चिंता-ग्रस्त मनुष्य अन्दर गीली लकड़ी की तरह सुलगता करता है। इस जलन में सबसे पहले उसकी प्रसन्नता जलती है, फिर जीवन की आशाएँ, अनन्त क्षमताएँ और अन्ततः शरीर। चिन्ता की आग इस प्रकार क्रम-क्रम से जलाकर मनुष्य का सारा जीवन खाक कर डालती है।

चिन्ता की चिंता में बैठा मनुष्य अपनी यातना पूर्ण मृत्यु की प्रतीक्षा करने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। जिस वृक्ष में आग लग गई हो अथवा जिसे दावाग्नि ने झुलस डाला हो उससे हरियाली की आशा करना दुराशा मात्र है। ऐसे दाव-दुग्ध वृक्ष में न नये पत्ते उग सकते हैं, न फूल खिल सकते हैं और न फल आ सकते है। उसका ठूँठ होकर निरुपयोगी हो जाना निश्चित है।

प्रगति और उन्नति का उत्साह मन में उत्पन्न होता है। बुद्धि उसकी योजना बनाती है और शरीर उसकी कार्यान्वित करता हैं जिसका मन और मस्तिष्क चिन्ता से तप रहा हो, शारीरिक स्वास्थ्य उसकी आग में आहुति वन रहा हो, ऐसे व्यक्ति के हृदय में उत्साह का जन्म होना असम्भव है। बुद्धि का कुण्ठित तथा कलुषित हो जाना स्वाभाविक है। और अस्वस्थ शरीर तो किसी योग्य रह ही नहीं सकता। इस प्रकार जिस मनुष्य की यह तीनों शक्तियों बेकार हो जाएँ, उसे प्रगति और उन्नति के शब्द अपने शब्द-कोष से निकाल ही देने चाहिये।

असन्तोष भी एक प्रकार की मानसिक व्याधि ही होती हैं। यह मनुष्य की सुख-शान्ति की हरण कर लेता है। संतोषी सदा सुखी-की तरह करना होगा-असन्तोषी सदा दुःखी’। यह गलत भी नहीं है। असन्तोष का जन्म अभाव से बतलाया गया है। जिसके पास काम न हो, भोजन-वस्त्र का अभाव हो, जीवन यापन के सामान्य साधनों की कमी हो। उसे असन्तोष होना स्वाभाविक है। किन्तु यह असन्तोष वह असन्तोष नहीं होता, जिसको मानसिक व्याधि कहकर निन्दा की जाती है। इस प्रकार का अभाव जन्य असन्तोष वास्तव में असन्तोष न होकर आवश्यक का दबाव होता है। यह बुरा नहीं। यदि आवश्यकताओं का दबाव अकारण सह लेने का अभ्यास बना लिया जाये तो मनुष्य सामान्य स्थिति से भी नीचे गिरकर दीन और दरिद्री ही बन जाए। कहीं से कुछ मिल गया खा लिया, नहीं तो भूखे पड़े तरह रहे हैं। कपड़ों के स्थान पर चीथड़ों को ही लपेटे है। इस प्रकार की विवशतापूर्वक जीवन मनुष्य के योग्य नहीं। वह तो बुद्धि एवं पुरुषार्थ से वंचित पशुओं का जीवन हैं। आवश्यकतायें मनुष्य को पुरुषार्थ एवं परिश्रम को प्रेरणा देती हैं। उनकी माँग का उचित उत्तर दिया ही जाना चाहिये।

मानसिक व्याधि वाला असंतोष दूसरी चीज है। उसका जन्म अभाव अथवा आवश्यकता से नहीं, बल्कि लोभ और तृष्णा से होता हैं यह एक असात्विक स्वभाव और आसुरी वृत्ति होती है। जो अकारण ही यातना दिया करती है। इस वृत्ति का व्यक्ति सब कुछ होने पर भी उसके सुख से वंचित ही रहता है। असंतोष की पीड़ा उसे घेरे ही रहती है। लोभ के कारण असंतोषी व्यक्ति सम्पत्ति एवं सम्पन्नता की दशा में भी अपने को अभावग्रस्त अनुभव किया करता है। लक्ष्मी का भंडार, पृथ्वी की वसुधा और कुबेर का कोष क्यों न दे दिया जाए। किन्तु असंतोष का रोगी तब भी संतुष्ट न होगा। तब भी उसे अभाव और आवश्यकता अनुभव होती रहेगी। ऐसा वितृष्णा व्यक्ति सम्पन्नता में भी विपन्नता का दुःख भोगने पर मजबूर रहता है।

उद्वेग एक तरह का पागलपन होता है। उत्तेजना, आवेग और आवेश आदि के सारे उन्माद इसी के अंतर्गत आते है। उद्वेग दूषित व्यक्ति अकारण ही आने भीतर तना-तना-सा रहता है। वह किसी बात अथवा काम के विषय में पहले तो मौन रहता है, किन्तु जब खुलता है तो विस्फोट की तरह। इससे उसकी बात अथवा काम बिगड़ जाती है। उद्वेग मानसिक न्यूनता का लक्षण है। जो अन्दर से गम्भीर और सम्पन्न होते है। वे सब कुछ शाँति पूर्वक सोचते और सरलतापूर्वक करते है, इसलिये उनके सारे काम बनते चले जाते है, किसी अभाव अथवा आवश्यकता से दुःखी होकर उद्वेग व्यक्ति या तो अपने आप पर खीजते रहते है अथवा दूसरों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से लड़ते-झगड़ते रहते है। जिस काम में हाथ डालते है, उसको सुचारु रूप से करने के बजाय उससे झगड़ते से रहते है। जो काम करेंगे बेगार की तरह। उनका चंचल तथा क्षुब्ध मन काम में तन्मयता आने ही नहीं देता। किन्हीं अभावों अथवा कमियों को दूर करने की उत्सुकता में उद्वेग का प्रयोग करने से अपकृत्यता के सिवाय कृतकृत्वता प्राप्त नहीं होती।

जीवन की पूर्णता और सफलता के लिए मनुष्य को सबसे पहले निराशा, असंतोष, चिन्ता अथवा उद्वेग आदि के दोषों का परिमार्जन करके उनके स्थान पर आशा, निश्चिन्तता, संतोष तथा गम्भीरता के गुण विकसित करने होंगे। यह गुण सृजनात्मक प्रकृति के होते है। इनके द्वारा मनुष्य की शक्तियों का क्षय नहीं अभिवर्धन होता है। उनकी कार्य क्षमता बढ़ती, दक्षता तथा उत्साह की प्राप्ति होती है।

आशा का विकास सद्विचारों द्वारा आसानी से क्रिया जा सकता है। मनुष्य को सोचना चाहिये कि उसकी जीवन इसलिये नहीं मिला कि उसे निराशा के अन्धकार में इस प्रकार बिता दिया जाये। वह संसार में आनन्द खोजने पर और पाने के लिए भेजा गया है। उसका लक्ष्य प्रकाश है अन्धकार नहीं। वह एक आत्मवान् प्राणी है। उसकी आत्मा में ईश्वरीय प्रकाश की किरणें भरी हैं। उसे संसार की जरा-जरा-सी प्रतिकूलताओं से निराश होकर इस प्रकार बैठे न रहना चाहिये। उसे जीवन की सफलता और प्रगति के उद्देश्य से परिस्थितियों से संघर्ष करना चाहिये। लोहा लेना चाहिये। निराश हो जाने का अर्थ है जीवन-समर में हथियार डाल देना। हार मानकर पीछे हट जाना।

इस प्रकार हथियार डाल कर पीछे हट जाने से भी प्रयोजन पूरा नहीं होता। निराश होने से आज तक किसी का दुःख दूर नहीं हुआ है। दुःख-कष्टों से उन्हीं को छुटकारा मिलता है, जो वीर पुरुष की तरह हजार बार हारने पर भी साहस नहीं हारते। हर बार एक नई तैयारी के साथ खड़े होकर अपने कर्तव्य में लग जाते हैं और अन्ततः परिस्थितियों, प्रतिकूलताओं तथा विषमताओं पर विजय प्राप्त ही कर लेते है। असफलताओं से निराश होकर बैठे रहने के बजाय, आँख खोलकर संसार में देखना चाहिये। देखने में आएगा कि अपने जैसे न जाने कितने मनुष्य नित्य ही असफलताओं और विषमताओं में फँसते है। किन्तु वे हार मानकर बैठे नहीं रहते और न निराश होकर संघर्ष से मुख मोड़ लेते हैं। वे नये उत्साह, नये साहस और नये उपाय के साथ फिर मैदान में जाते हैं, और अन्त में विजय प्राप्त ही कर लेते है। संसार में सफलताओं के जो भी उन्नत स्तम्भ खड़े दीखते हैं, वे सब योंही एक साथ उठते नहीं चले गये हैं। पूरा होने तक उन पर हजारों बार पड़े हैं, अनेक बार गिरे हैं, टूटे और मिटे हैं, किन्तु उनको उठाने वाले इन सब विपरीतताओं से निराश अथवा हतोत्साह नहीं हुए। वे सारे आघात सहते हुए अपने निर्माण कार्य में लगे रहे और अंत में इन उन्नत स्तम्भों को स्थित करने में सफल हो ही गये। संसार में ऐसे उदाहरण होते हुये आपको निराश हो जाने का कोई कारण नहीं दीखता। उन्हीं की तरह आपमें भी शक्ति तथा क्षमता है। निराशा छोड़िये और आशावाद के साथ पुनः मैदान में आइये आपके सारे दुःख दूर होंगे, आप एक सफल व्यक्ति बन जायेंगे।

यह सुरदुर्लभ मानव-जीवन बहुत मूल्यवान उपलब्धि है। यह कल्प-वृक्ष ओर कामधेनु की तरह फलदायी हैं। आप इससे जो चाहें प्राप्त कर सकते है। किंतु यह फलदायक तभी होता है, जब इसे हरा-भरा और प्रसन्न रक्खा जाए। यदि आप इसको चिन्ता की चिंता में जलाते रहेंगे, तब तो यह सूख जायेगा। इसके सारे गुण, सारी विशेषताएँ और सारे अनुग्रह नष्ट हो जाएँगे। चिन्ता छोड़िये, यह मनुष्य की जीवित अवस्था में ही मृत बना देती है। चिन्ता में जल-जलकर मर जाने से कहीं अच्छा है कि आप पुरुषार्थ के मैदान में ही इसका बलिदान दे दें। इस निरर्थक मृत्यु से तो यह सार्थक अंत कहीं अच्छा है। उसमें एक आदर्श और एक ऊँचाई तो है। चिन्ता छोड़कर प्रसन्न होइए। पुरुषार्थ करिये, आप अवश्य सफल होंगे।

आप अभाव-ग्रस्त है। जरूरतों से पीड़ित है तो इसमें क्षुब्ध अथवा असंतुष्ट रहने का क्या काम। असन्तोष आपकी इन पीड़ाओं का उपचार नहीं है। इनका उपचार है, अधिकाधिक परिश्रम एवं पुरुषता। यह वे पैसे का उपचार करने में आपका क्या जाता है? पौरुष तथा श्रमशीलता की शक्ति आपको ईश्वर की ओर से मिली ही है। उसका उपयोग करिए तब अपनी पीड़ाओं से मुक्त हो जाइए। और यदि प्रसन्नता की स्थिति में भी आप संतुष्ट रहते हैं तो समझ लीजिए कि आप लोभ तथा तृष्णा के पिशाच से ग्रस्त है। इसका उपचार संतोष तथा उदारता ही है। अपनी वृत्ति पर विचार कीजिये, उसे बुरा समझकर त्याग दीजिए। लोभ तथा तृष्णा का उपचार उसका तिरस्कार तथा संसार की अमरता में विश्वास करना है। इन्हीं उपायों का अवलम्ब लीजिये, आप असंतोष के पिशाच से छूट कर सुखी हो जाइये।

कोई भी विपत्ति अथवा आपदा क्यों न आ जाए, मूल कर भी उद्वेग में मत बह जाइए। ईश्वर की कृपा में अखंड विश्वास रखिए। अपनी आत्मा तथा बुद्धि-विवेक में अखंड विश्राम रखिए। शान्त एवं गम्भीर बने रहिए। सारी आपदायें आप पर से ऐसे गुजर जायेगी, जैसे किसी सुदृढ़ वृक्ष पर से तूफान निकल जाता है। उद्वेग एक मानसिक त्रुटि है।

निराशा, चिन्ता, असंतोष अथवा उद्वेग किन्हीं समस्याओं का हल नहीं है। यह मानव-जीवन प्रकृति के दोष हैं, जो काम बनाने के बजाय बिगाड़ देते हैं। इसको त्याग कर मनुष्य को सृजनात्मक गुणों का ही अवलम्ब लेकर चलना चाहिए। तभी वह सफल होगा और तभी सुखी तथा संतुष्ट।


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