प्रचण्ड शक्ति सम्पन्न सविता

November 1969

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इटली के महान् खगोल वैज्ञानिक गैलीलियो ने एक बार यह घोषणा की कि सूर्य सम्पूर्ण है ही नहीं। इस पर सारे संसार में एक बार तहलका मच गया। लोगों में खलबली मच गई कि सूर्य इतना साफ दिखाई देता है फिर उसका सम्पूर्ण न होना कैसे हो सकता है? गैलीलियो ने एक बार समझाने की चेष्टा भी की कि वह तो एक प्रकार का आवेश अथवा चेतना है, जो सौर-मण्डल के प्रत्येक परमाणु में प्रतिभासित है। यही नहीं परमाणुओं में पाये जाने वाले सारे बीज उतने ही शक्तिशाली और समर्थ है, जितना स्वयं सूर्य। इस बात को तब तो किसी ने नहीं समझा पर खगोल विद्या का अध्ययन तेजी से अवश्य प्रारम्भ किया गया। तब से अब तक सूर्य का जितना अध्ययन किया जा चुका है, उससे गैलीलियो के सिद्धान्त तो परिपुष्ट हुए ही है, अनेक ऐसे रहस्य भी ज्ञात हुए है, इससे भारतवर्ष में प्रचलित गायत्री महाविद्या के सिद्धान्तों की भी पुष्टि होने लगी। स्मरण रहे गायत्री का देवता एवं शक्ति स्रोत सविता-अर्थात् सूर्य ही है।

अगर हम यह जानना चाहे कि सूर्य का मानव जीवन से क्या सम्बन्ध है? तो विज्ञान की भौतिक उपलब्धियों को ही देखकर सन्तुष्ट नहीं रह जाना होगा वरन् उनके आधार पर भारतीय अध्यात्म की संगति पर भी विचार करना आवश्यक होगा। पाश्चात्य देशों में उसे जलवायु, वनस्पति और दृश्य जगत् में परिवर्तनों के लिये प्रमुख उत्तरदायी माना जाता है, किन्तु भारतीय आचार्यों का मत है कि मनुष्य की भावनाओं का भी सूर्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है, इस तादात्म्य की उपेक्षा करके मनुष्य सुखी नहीं रह सकता। गैलीलियो ने इसी सूक्ष्म विज्ञान पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया था। तब उसकी बातों की उपेक्षा की गई पर बाद में वैज्ञानिकों ने विस्तृत अध्ययन किया और अब तक जो कुछ खोजें हुई, उनसे यह बात निश्चित रूप से सिद्ध हो चुकी है कि मनुष्य पूर्ण या सूर्य का ही आश्रित है। उससे मानसिक सम्बन्ध स्थापित करके अनेक प्राकृतिक रहस्य और शक्तियाँ प्राप्त करने एवं आत्म विकास में प्रकाश पाने की विस्तृत खोज इस देश में गायत्री विद्या के नाम से हुई।

पृथ्वी और सूर्य समान तत्वों से बने है, अन्तर केवल ठोस और गैसीय अवस्था का है। पृथ्वी आक्सीजन, नाइट्रोजन, लोहा, गन्धक, कार्बन, सोडियम, आदि अनेक तत्व पाये जाते है, इन्हें ठोस तरल एवं गैसीय स्थिति में भी बदला जा सकता है, वह सब तापमान का खेल है। यह सब तत्व सूर्य में भी पाये जाते है, किन्तु उच्च ताप के कारण वहाँ स्थूल कुछ भी नहीं है। गैस स्थिति में यह तत्व सूर्य में विद्यमान् है। इसलिये मनुष्य प्रकृति में जो गुण सम्भव है, वह सूर्य में है और उन कणों को आकर्षित कर मनुष्य बिना किसी औषधि या खाद्य के अपना स्वास्थ्य और आरोग्य स्थिर रख सकता है।

मनुष्य का शरीर सूर्य और पृथ्वी के तत्वों के सम्मिश्रण से बना है, इसलिये शारीरिक और मानसिक दृष्टि से शरीर पृथ्वी से ही प्रभावित नहीं होते वरन् उन पर सूर्य का भी प्रचण्ड हस्तक्षेप होगा कि अन्न जल आदि पृथ्वी का रस सेवन करने से हमारे शरीर में आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, लोहा, गन्धक, सोडियम, कैल्शियम आदि विभिन्न तत्व उत्पन्न होते है, वहाँ उसमें इन तत्वों से भी सूक्ष्म प्राण शक्तियाँ भी क्रियाशील है। प्राण के द्वारा ही हमारे शरीर में स्पन्दन है। छींकना, जम्हाई लेना, अपान वायु का विसर्जन, निद्रा, पलक झपकना आदि क्रियायें प्राण के द्वारा ही सम्भव है। यह क्रियायें जड़ तत्व मात्र नहीं कर सकते। प्राण इन सब तत्वों से अधिक सूक्ष्म है, इसलिये वह पहचान में नहीं आता पर सूर्य विज्ञान के द्वारा उसे आसानी से समझा जा सकता है।

खगोल शास्त्रियों का कहना है कि सूर्य में उपरोक्त रासायनिक तत्वों की गन्ध मात्र है, मूलतः सूर्य में दो ही तत्व पाये जाते है, एक हाइड्रोजन, दूसरा हीलियम। सूर्य हाइड्रोजन का आहार करता है और उसके चार परमाणुओं को हीलियम के एक परमाणु में बदल देता है। इसी से उसमें शक्ति आती है, ताप और प्रकाश उत्पन्न होता है, यदि यह क्रिया न होती तो सूर्य दिखाई भी नहीं देता, क्योंकि वह सौर-मण्डल के समग्र भाग में चेतना रूप में छाया हुआ है। दिखाई केवल उतना हिस्सा देता हे जहाँ यह क्रिया होती है, अन्यथा सूर्य सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी तत्व है, अब चाहे उसे आत्मा कहें,प्राण पुँज कह लें या हाइड्रोजन का जलता हुआ गोला कह लें यदि किसी को यह भ्रांति हो कि सूर्य आग को जलता हुआ गोला है तो उसे दूरदर्शी (टेलिस्कोप) से सूर्य का अध्ययन करना चाहिये। उससे पता चलेगा कि सूर्य में यज्ञ कुण्ड के समान लपटें ही नहीं फूटती वरन् उसमें से ‘ऊर्जा भँवर’ जो कि प्रकाश, गर्मी और विद्युत का सम्मिश्रण होता है, फूटता रहता है। इसी तरह की क्रिया हमारे शरीर में होती है। विचारों के रूप में इसी तरह की ऊर्जा हमारे शरीर में भी विद्यमान् है। यह केवल स्पन्दन जैसी क्रिया है, इसलिये दिखाई नहीं देती पर हमारे शरीर की अधिकाँश शक्ति इसी तरह अभिव्यक्त होती है। यदि मनुष्य को विभिन्न स्थूल तत्वों का प्राणी कहें और स्वल्प क्षमता वाला माने तो सूर्य को भी उन्हीं शक्तियों का सूक्ष्म गैसीय स्थिति का विचारशील प्राणी मानना पड़ेगा। उसकी शक्ति चूँकि अनन्त और विशाल है। वह निरन्तर देता रहता है, इसलिये उन्हें ‘देवता’ नामक आदर सूचक शब्द से सम्बोधन करने की परम्परा रही है। सूर्य को यदि इस अर्थ में भावनाओं और विचारों की केन्द्रीभूत शक्ति माने और यह कल्पना करें कि मनुष्य उनसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, औद्योगिक और बौद्धिक वरदान प्राप्त कर सकता है ता किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। गायत्री मन्त्र उसी विद्या का उद्घाटन पृथ्वी पर किया गया है।

ध्वनि से सम्बन्धित एक सर्वज्ञात तथ्य है कि समान कम्पन गति वाले एक अँगरेजी के वाई के आकार के उपकरण (ट्यूनिंग फोर्क) तथा एक तार को ले। तार पर एक छोटा सा का कागज का टुकड़ा मोड़ कर रख दें। अब ट्यूनिंग फोर्क को किसी ठोस कि टकराकर कम्पन उत्पन्न करें और तार के समीप लाये। स्पष्ट दिखाई देता हे कि कागज का वह छोटा सा टुकड़ा तार पर नाचने लगा। जबकि तार और ट्यूनिंग फोर्क के मध्य संपर्क का माध्यम केवल आकाश था। ट्यूनिंग फोर्क के कम्पन समान अवस्था वाले तार में भी कम्पन उत्पन्न कर देते है। तार के इन वास्तविक कम्पनों के कारण की कागज का टुकड़ा नाचने लगता है।

एक और प्रयोग है। पंचम स्वर पर चढ़े हुए तबले को कस कर रख दें। बरसात के दिनों में यदि बादल पंचम स्वर में गरज उठे तो उसकी गड़गड़ाहट का पृथ्वी में रखे हुए तबले पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह देखे तबले का चमड़ा अपने आप फट जायेगा। यह शब्द की शक्तिशाली तरंगों के द्वारा होता है।

इन दोनों प्रयोगों के समान ही समान तत्वों वाले मनुष्य और सूर्य में मानसिक सम्बन्ध स्थापित करने का काम वह 24 अक्षरों के कम्पन करते है, जिन्हें गायत्री मंत्र कहा जाता है। ठीक उसी प्रकार सूर्य और मनुष्य में तात्त्विक एकता है। शास्त्रकार का कथन है-सूर्यात्मा जगतस्थ्स्थुष्च” सूर्य जगत् की आत्मा है। जबकि हमारी चेतना हमारे शरीर जगत् की आत्मा है। इन दो चेतनाओं को समान गति से कम्पित और सम्बन्ध कर सकने की सामर्थ्य उन 24 अक्षरों में है, जिन्हें गायत्री मंत्र कहते है।

विज्ञान का यह नियम है कि उच्चस्तर या अधिक शक्ति का प्रवाह निम्न स्तर अथवा कम शक्ति वाले केन्द्र की ओर तब तक बहता है, जब तक कि दोनों समान न हो जायें। गायत्री से प्राप्त सिद्धियाँ इसी तादात्म्य परिपक्व अवस्था ही है, जब मनुष्य भौतिक शरीर में ही सूर्य की चेतना के समान सर्वव्यापी, सर्वदर्शी और सर्वसमर्थ हो जाता है। वह न केवल जलवायु, लोगों के स्वास्थ्य, मन की बातें जान लेने की सामर्थ्य पा लेता है वरन् इनसे भी सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों और शक्तियों का स्वामी हो जाता है। उनका विस्तृत विवरण किया ही नहीं जा सकता। वह सारे संसार को भी नष्ट कर सकता है, किन्तु सूर्य देवता से संपर्क स्थापित होने के बाद गायत्री उपासक में उन्हीं की सी करुणा सद्बुद्धि और परार्थ उत्सर्ग की भावना विकसित होने लगती है। दूसरे शब्दों में यदि गायत्री उपासक उपासना के साथ-साथ अपने सद्गुण सद्विचारों को अधिक से अधिक सत्कर्मों में लगाने लगता हे तो उसकी साधना की सफलता और भी सत्वर हो उठती है।

कोई मनुष्य शाँत और प्रसन्न मुद्रा में बैठा हो, उस समय अन्य कोई उसके पास जाकर भावनापूर्वक कुछ निवेदन करे तो उससे अशान्ति समर्थन प्राप्त किया जा सकता है। बजाय तब जब कि वह अस्त व्यस्त और अशाँत स्थिति में हो। कोई तालाब स्वच्छ और शाँत हो तो उस पर एक छोटा सा कंकड़ फेंककर ही तरंगों का उत्पादन किया जा सकता है। यह भाव और विज्ञान दोनों का मिला जुला स्वरूप है। भारतीय आचार्या ने जो आचार संहिताओं और वैज्ञानिक प्रयोग किये है, वह उक्त सिद्धान्त को दृष्टि में रख कर ही किये। पिछले दिनों हमने भी उसी सूक्ष्म दर्शन का आश्रय एक प्रयोग किया था। वह सहस्र कुंडी गायत्री महायज्ञ के रूप में था। हमने पढ़ा था कि कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट रीति से गायत्री उपासना एवं यज्ञादि प्रक्रियायें संपन्न की जाये तो उनसे सूर्य देव की आध्यात्मिक शक्तियों को विशेष रूप से प्रभावित एवं आकर्षित किया जा सकता है। उनसे न केवल अपने लिये वरन सम्पूर्ण समाज, राष्ट्र और विश्व के लिये सुख समृद्धि ओर शाँति अनुदान उपलब्ध किया जा सकता है।

अक्टूबर 1958 का सहस्र कुंडी यज्ञ एक ऐसा ही प्रयोग था। पीछे मौसम वैज्ञानिकों ने भी हमारी मान्यता के भाग की पुष्टि कर दी। 1 जुलाई 1957 से 31 दिसम्बर 1958 तक खगोल शास्त्रियों से अन्तर्राष्ट्रीय शाँत सूर्य वर्ष (इंटरनेशनल इयर ऑफ दि क्यायेट सन्) संक्षेप में इक्कीस मनाया। यह नाम इसलिये रखा गया कि इन दो वर्षों में सूर्य बिलकुल शाँत रहा और वैज्ञानिकों को उस पर अनेक प्रयोग ओर अध्ययन करने का अवसर मिल। लगभग इसी अवधि से हमारे उस यज्ञ की तैयारी हुई थी। साधकों ने एक वर्ष पूर्व से ही गायत्री के विशेष पुरश्चरण प्रारम्भ किये थे। और अक्टूबर 1958 में 4 दिन तक यज्ञ कर शरद पूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति दी थी। गायत्री का देवता सविता है, इसलिए इस गायत्री अभियान का भी उद्देश्य उसका अध्ययन और प्रयोग भी था। और उन उपलब्धियों से सारे विश्व समाज को लाभान्वित कराना भी जो ऐसे अवसरों पर देव शक्तियों से सुविधा पूर्वक अर्जित की जा सकती है।

उस यज्ञ के बाद से विश्व की गतिविधियों का हम बराबर अध्ययन कर रहे है। और यह देखकर आश्चर्यचकित है कि न केवल प्रकृति अपने विधान बदल रही है वरन लोगों की भावनायें ओर विचार भी तेजी से बदल रहे है योरोप की विलासिता प्रिय और भौतिकतावादी प्रजा भी अध्यात्म का आश्रय पाने के लिए भागी चली आ रही है। भारतवर्ष को तो उसका सुनिश्चित लाभ मिलने वाला है, भले ही उसका प्रत्यक्ष दर्शन सन 1999 के बाद दिखाई दे। अपने दैनिक जीवन में सूर्य की शाँत स्थिति प्रातः और सन्ध्या के समय होती है, भारतीय आचार्यों ने यह दोनों ही समय जप के लिये उपयुक्त बताये है इसी प्रकार नवरात्र पर विशेष साधनायें करने का जो विधान है वह सूर्य की इस भौतिक प्रकृति की खोज का ही फल है। वह पूर्णतया विज्ञान सम्मत ही है।

दीर्घकालीन कालचक्र के अनुसार इस बीच दो महाक्रान्तियाँ होने को है। अन्तर्राष्ट्रीय शाँत सूर्य वर्ष समिति ने 1 जनवरी 1964 से 31 दिसम्बर 1965 तक दूसरा शाँत सूर्य वर्ष मनाया और यह बताया कि सूर्य में कुछ विचित्र प्रकार के स्पन्दन (फैक्यूले) उत्पन्न हो रहे है, उनके बाद ही विशेष प्रकार के काले धब्बे (सूर्य कलंक) दिखाई देते है और उसके कारण पृथ्वी को जलवायु में विशेष प्रकार की हलचल उत्पन्न होती है। अगले कुछ दिन बहुत अधिक तीव्र और शीघ्र अतिशीघ्र परिवर्तन होंगे। यो सूर्य कलंक (सन स्पाट्स) के कारण पृथ्वी में प्राकृतिक परिवर्तनों का क्रम 11 वर्षों बाद आता है पर किन्हीं अज्ञात कारणों से अगले दिनों इन नियमों को तोड़कर सूर्य पृथ्वी में परिवर्तन लायेगा। इसमें वृष्टि, अनावृष्टि, सूखा, अकाल, ओलावृष्टि आदि ही नहीं युद्ध और महामारियों के प्रकोप भी होंगे। उन प्रकोपों में उन्हीं की रक्षा होगी जो सूर्य से अपना सम्बन्ध जोड़े रहेंगे।

इस तरह की घोषणाएँ हम काफी समय पहले से ही कर रहे है वह गणित ज्योतिष और सूर्य विद्या के आधार पर ही करते रहे है। वैज्ञानिक निष्कर्ष उसकी पुष्टि करते हैं। भारतवर्ष को मुसलिम और अँगरेजी सभ्यता के बन्धन में रहते हुए कोई 1500 वर्ष बीत रहे है, सूर्य विद्या के आधार पर इन 1500 वर्षों का अन्त इसी शताब्दी में हो जायेगा। ग्रह गणित के अनुसार पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में नौ करोड़ तीस लाख मील की यात्रा करनी पड़ती है, इस यात्रा को पृथ्वी लगभग 67 हजार मील प्रति घण्टा की गति से चलकर 365.25 दिनों में पूरा करती है। प्रत्येक चक्कर में 1/4 दिन बढ़ जाता है। 4 वर्ष में वह एक दिन के बराबर होता है, अँगरेजी हिसाब से प्रत्येक चौथे वर्ष फरवरी 29 दिन की और वर्ष 366 दिन का होता है। एक नया पूरा वर्ष होकर पृथ्वी को पुनः उसी कक्षा में आने के लिए 365.25 ड़ = 1461 वर्ष लग जाते हैं।

इस तरह 1461 वर्षों का एक क्रम इस शताब्दी के अन्त में पूरा हो जायेगा। इस बीच सूर्य की प्रचण्ड शक्तियों का पृथ्वी पर असर होगा और उससे वह तमाम शक्तियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे, जो मानसिक दृष्टि से अध्यात्मवादी न होंगी। जो लोग सूर्य व्यक्तियों से सम्बन्ध बनाये रखेंगे, उनकी रक्षा और ड़ उसी प्रकार होगी, जिस तरह भयंकर ज्वार-भाटों आने पर भी समुद्र में पड़े फूलों का अनिष्ट नहीं होता, जबकि बड़े-बड़े जहाज यदि ड़ न जायें तो उस अनन्त जल राशि में डूबकर नष्ट हो जाते हैं। गायत्री उपासक इन परिवर्तनों को कौतूहलपूर्वक देखेंगे और उन कठिनाइयों में भी स्थिर बुद्धि बने रहने का साहस उसी प्रकार प्राप्त करेंगे, जिस प्रकार माँ का प्यार बच्चा माता के क्रोध होने पर भी उनसे भयभीत नहीं होता वरन् अपनी प्रार्थना से उन्हें शाँत कर लेता है।

यह नहीं समझना चाहिये कि इन परिवर्तनों में विश्व संस्कृति का अन्त हो जायेगा। जब तक सूर्य है, तब तक सृष्टि बनी रहेगी, चेतन स्वरूप में प्राणि जगत् सूर्य या सूर्य का ही अंश है और सूर्य कम से कम एक अरब वर्ष इसी तरह प्रकाश और प्राण देता रहेगा, जब तक सूर्य है, जब तक सूर्य के पास ड़ है, तब तक सृष्टि बनी रहेगी पर अब वह एक बार स्नान कर अपनी सम्पूर्ण गन्दगी साफ कर देने का इच्छुक है, वर्तमान प्राकृतिक हलचलें युग परिवर्तन को सम्भावनायें उसी का प्रमाण है।

अन्तरिक्ष किरणों, उत्तरी ज्योति, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र (मेगनेटिक फील्ड) पृथ्वी के ऊपरी वायु मण्डल और अयन मण्डल (ड़) पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने यह बताया कि सूर्य अपने आप उत्तेजित होता रहता है, उसका रहस्य क्या है? इसका उत्तर तो वे नहीं दे पाये पर उनका विश्वास है कि 11 वर्षों में एक वर्ष ऐसा आता है, जबकि उसकी उत्तेजना बढ़ जाती है। उत्तेजित सूर्य अपने सम्पूर्ण सौरमण्डल का जिसमें पृथ्वी सम्मिलित है, मन्थन करता है। उस समय उससे ज्वालाएँ फूटती हैं और सूक्ष्म कणों की वर्षा होती है। यह कण बाद में कहाँ विलीन हो जाने है, इसका पता वैज्ञानिक लगाने में असमर्थ रहे पर आत्मविद्या के आचार्य यह जानते है कि सृष्टि प्रत्येक के ड़ में अतिरिक्त व्यक्ति के रूप में यह उत्तेजित कण ही हलचल पैदा करते है, उससे स्थल प्रकृति ही प्रभावित नहीं होती वरन मनुष्य की सूक्ष्म प्रकृति अर्थात् विचार, भावनायें, संकल्प और विश्वास भी परिवर्तित होते है, इस परिवर्तन को आँका जाना यद्यपि सम्भव नहीं होता पर सामूहिक रूप से विश्व की राजनीति, उद्योग, व्यापार, श्रम, रोजगार, युद्ध एवं सामाजिक गतिविधियों पर उसके प्रभाव को देखकर वस्तुस्थिति को समीक्षा अवश्य जा सकता है। उसी से इस विश्वास की पुष्टि होती है कि सूर्य सिर्फ पदार्थों का पुँज ही नहीं प्राण और मनोमय जगत् का स्वामी है।

जो लोग इन बातों की अनुभूति करेंगे, वह तेजी से गायत्री विद्या के अन्तराल में प्रविष्ट होंगे। साधना ज्ञानार्जन और संयम में उनकी वृत्ति बढ़ेगी, ऐसे लोग ही आगे चलकर विश्व का मार्ग दर्शन करेंगे।

सूर्य द्वारा ही स्थूल प्रभाव को तो वैज्ञानिकों ने अच्छी तरह अनुभव कर लिया है। प्रकाश सूर्य से ही मिलता है, गर्मी सूर्य से ही मिलती, वर्षा सूर्य कराता है। भूमि और पानी को अलग अलग तरह की गर्मी प्रदान करके हवाएँ भी उसी के चलाये चलती है, पौधों को भोजन भी वही देता है। फलों में, वनस्पतियों में, खनिज सूर्य से ही आते है, वही बाद में मनुष्य पाता है। लकड़ी, पत्थर का कोयला, जल प्रपात और आदि सभी तत्व सूर्य ही देता। यह सब वह अपनी बाहरी क्रिया शक्ति और गर्मी से करता है। उसके तल का तापमान 11000 फारेनहाइट है। पृथ्वी की किसी वस्तु की इतनी गर्मी में कुछ सेकेंड तक ही रखा जा सकता है। सूर्य के यह प्रभाव तो दृश्य है और इतने सामान्य हो गये हैं कि लोग इसके महत्व को भी नहीं समझते। सूर्य अपने भीतर एक और विलक्षण 29000000 अंश फारेनहाइट रखता है, पृथ्वी की गर्मी तो उसके आगे बर्फ की तरह ठण्डी है, उस शक्ति से ही सूर्य बिम्ब पर सटी हुई कणिकाओं (ग्रेनल्स) में हलचल करता है। यह ग्रेनल्स 600 से 1400 किलोमीटर तक के गोले और समकोण आकार के होते हैं, उसी से उसके बिम्ब में ड़ जैसी होती है, देखने में वह तरंगें आकाश में ही शाँत हो जाती है, ऐसा जान पड़ता है, किन्तु उनसे पृथ्वी में विचित्र प्रकार की हलचलें होती हैं, यह लहर तन्तु (फिलामेंट) साँप की तरह लहराते हुए चलते हैं और गगन मण्डल में विचित्र परिवर्तन करते हैं, उसके फलस्वरूप पृथ्वी पर प्राकृतिक हलचलें पैदा हो जाती है। इन हलचलों में यद्यपि कोई निश्चित समय क्रम नहीं है पर अधिकाँश 11 वर्षों में एक बार तीव्र हलचल होती है। ऐसे समय साधनाओं की सिद्धि के लिए बड़े उपयोगी होते हैं, मानसिक जप से उन शक्ति कणों और स्पन्दनों को अपने भीतर स्थित कर अनेक शारीरिक, मानसिक और आत्मिक लाभ तीव्रता से प्राप्त किये जाते हैं, इसलिये इन दिनों गायत्री उपासना के प्रसार का एक व्यापक अभियान चलाकर उससे आधिदैविक लाभ प्राप्त करने का अवसर सारे देश को देना आवश्यक है, इस पुण्य में सभी गायत्री ड़ को भग लेना चाहिये।

सन् 1966 सूर्य के ग्यारह वर्षीय पट परिवर्तन का 19 वाँ चक्र था। उस वर्ष मई और जून के महीनों में रूस, चेकोस्लोवाकिया, वुलगारिया, भारत, इटली, अमेरिका, अफगानिस्तान आदि में भीषण बाढ़ आई, वुलगारिया में 16 जून को ऐतिहासिक स्मरण वाले ओले गिरे। कूबान में 18 मई को भयंकर तूफान आया, जिसमें लाखों पेड़ उखड़ गये, फसलें बरबाद हुई और मकानों की छत तक ड़। इसी अवधि में भारतवर्ष में भीषण बाढ़ आई और हजारों लोग बेघर बार हो गये।

हम ऊपर बता चुके हैं, अगले 30 वर्ष व्यापक हलचलों के है पर उनमें, से सन 1977, 1988 और 1999 यह तीन वर्ष भारी प्राकृतिक उथल पुथल के होंगे इन वर्षों में पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति बदल जाये तो कुछ आश्चर्य नहीं। यह दृव्य परिवर्तन सूर्य के द्वारा होता है। पर क्यों? वैज्ञानिकों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

गायत्री महाविद्या के अनुसार विश्व रचना के दो ही तत्व प्रधान है, एक देव या प्राण, दूसरा भूत या पदार्थ। भूत प्राण के बिना गतिशील नहीं होता। इसलिये प्रत्येक भौतिक गायत्री का जीवन तत्व उसका प्राण है। पंचभूत से बना मनुष्य शरीर नितान्त प्राकृत है। यह गायत्री का शब्द भाग है। और जिस तरह से उच्चारण करने के बाद गायत्री के अक्षर वायु में विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य अधीर जो उत्पन्न होकर विलीन होते रहते हैं। उसका दूसरा चरण प्राण है, यह प्राण सविता का ही ड़ है, उसका दृव्य भाग तो भौतिक है पर अदृश्य भाग मनोमय है अर्थात् उसमें चेष्टाएँ हैं, अपने इसी रूप में सूर्य सर्वाधिक शक्तिशाली है, उसी बान को ड़ कहती है-प्राणः प्रजानाँ उदयत्येष सूर्यः” यह सूर्य ही अपने प्राणों के संयोग से प्रजा की उत्पत्ति करता है। ब्रह्म सूर्य सम ज्योतिः (यजुर्वेद 23148) सूर्य का भौतिक प्रतीक स्थूल है पर उसमें चेतन ब्रह्मशक्ति भरी हुई है।

सूर्य को ऋषियों ने त्रयोविद्या कहा है, अर्थात् उसमें स्िल तत्व (जिनसे शरीर बनते हैं) प्राण (जिनसे चेतना आती है) और मन (जो चेष्टाएँ प्रदान करता है।) तीनों तत्व विद्यमान है। हम दृश्य रूप से सूर्य के परिवर्तनों से प्रभावित होकर दुःखी होते है, किन्तु गायत्री मंत्र के माध्यम से जब सूर्य के साथ हम अपने मनोमय जगत को जोड़ते है, तादात्म्य करते हैं जो हमें उसके आध्यात्मिक लाभ तीनों- स्वास्थ्य, तेजस्विता और मनस्विता के रूप में मिलता है। जिस दिन पृथ्वी के लोग इस विद्या को ठीक ठीक जान लेंगे उस दिन सुख शान्ति और समृद्धि का कोई अभाव नहीं रहेगा पर युग परिवर्तन की इस संधि और संक्रान्ति अवस्था में उन लोगों को अधिक श्रेय, सम्मान मिलेगा, जो इस तत्व ज्ञान के आवगाहतन और सारे विश्व में फैलाने का प्रयत्न करेंगे।


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