दीवानगी तो अब तुमसे मिलकर ही रहेगी

November 1969

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माँ थोड़ी देर के लिये बच्चे को छोड़कर काम में लग गई थी। बच्चे की आँखों में बड़े बड़े टेसू से आँसू भर आये। बच्चा रोया किसी ने आवाज नहीं सुनी। जिसने सुनी भी डाँटा ही, कितना मूरख है रोता है, माँ नहीं आई। बच्चे का छोटा सा जीवन दुःख और निराशा में बदल गया। घुचमुच भरे वह माँ-माँ पुकारता रहा। माँ ने सुना बच्चा रो रहा है, काम छोड़कर भागी थी वह और अपने अंग में भर कर उसे चूम-चूम कर आश्वस्त कर दिया था-वत्स मैं तुझसे दूर थोड़े ही थी। तेरे लिये ही तो कुछ करने गई थी।”

प्रियतम! मुझे नहीं पता तुम कहाँ गये, क्या करते हो। मेरे मन में तो आज विरह व्यथा के बादल घुमड़ रहे है। प्रेमी होंगे तो तुम्हें पता होगा, विरह की वेदना में कितनी छटपटाहट है। प्राणाधार! तुम कहाँ हो। तुम्हें पुकार कर मेरा मन अधीर हो चला। संसार से विरक्ति कर ली, अब यहाँ मेरा कौन रहा। तुम भी छोड़ दोगे? तुम्हारे भक्त की, तुम्हारे प्रेमी की कैसी दशा है, क्या तुम उसे भी नहीं देखने आओगे? क्या यों ही मन भटकता रहेगा और तुम दर्शन नहीं दोगे?

विरह की पीड़ा घनी ओर घनी-घनी घनी होती जा रही है। मुझे अपनी परम ज्योति का साक्षात्कार करा कर सन्तोष दो प्रभुवर! कब से आँखें तुम्हारी और निर्निमेष देख रही है। तुम कहोगे मैं पागल हो गया हूँ, उन्मत्त हो गया हूँ, देवेश! कैसे बताऊँ मेरी मनोदशा तुम्हें न पाकर कैसी हो गई है।

धैर्य टूट रहा है, इधर-उधर दौड़ रहा हूँ, व्याकुल होकर भुजा पसारे तुम्हें पा जाने के लिये बेचैन भटक रहा हूँ। हृदय रोने लगता है। विरह अग्नि से सारा शरीर झुलसा जा रहा है। कैसे निष्ठुर हो तुम। अपने समीप नहीं रखना था तो जीवन क्यों दिया था। जीवन दिया तो भक्ति क्यों दी? भक्ति दे दी तो प्रेम-विहीन ही रखते। पर अब जब यह कसक जाग गई है तो तुम्हें पाये बिना जीवित कहाँ रह सकता हूँ? तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो, आते क्यों नहीं, दिखाई क्यों नहीं देते। जीवन की नाव में विरह का जल भर चुका है। नाव तली में बैठने को है, लगता है अब भी बचाने नहीं आओगे, तो क्या संसार मेरे विश्वास को झूठ नहीं कहेगा? मेरी तपश्चर्या को विक्षिप्त का प्रलाप नहीं कहेगा क्या? क्या तम यह सब सुनकर भी नहीं आओगे?

साँसें बहरी हो गई है, गर्म हो गई है। शरीर मूर्छित पड़ा है। रात में नींद आई। मन तुम्हारे लिये दौड़ता रहा। नक्षत्रों के बीच एक क्षण टिक कर तुम्हारे सौंदर्य का रसपान करने के लिये बिलखता रहा। तुम्हारी ज्योति कभी पूर्व में दिखाई दी, कभी पश्चिम में। इतना भटकते हो, कभी दक्षिण में होते हो और जब तक आत्मा यहाँ पहुँचे, तुम उत्तर की और क्यों चला जाते हो। क्या यह छलना ही तुम्हारी नीति है? क्या विरहाग्नि में मुझे जला कर ही तुम्हें सुख मिलेगा?

देखो प्रभु! यह शरीर मृत्तिका कणों से भर गया। सूजी हुई आँखें नहीं देखते क्या? वृश्चिक दर्शन से पीड़ित शरीर की तरह-हृदय ड़ड़ड़ड़ व्यथा से चल रहा है। छहों ऋतुओं मेरे भीतर भर गई है। श्वाँस में ग्रीष्म, नेत्रों में बारिधारा बहने से वर्षा ऋतु का आगमन हो गया लगता है। निस्पन्द शरीर की शिथिलता में शरद ऋतु और प्रेम की पुलक में हेमन्त आसीन हो गया है। बुद्धि में शिशिर ऋतु प्रतिष्ठित है। मेरी भावनाओं में तुम्हारी दिव्य आभा के लिये अकुलाहट ही बसंत बन रही है। इन्हें इसलिये अपने शरीर में बसाया था कि तुम प्रकृति राज हो। पर तुम अन्यत्र विहार करते रहे मुझे एक क्षण के लिये ही अपना पावन प्रकाश दे देते तो हृदय में बढ़ती हुई विरहाग्नि को क्षणिक ही सही शीतलता मिलती।

तुम्हारे नामों में कितना आकर्षण है। तुम्हें करुणा सागर कहते है, पर तुम बड़े निष्ठुर हो। तुम दीन बन्धु हो पर तुम्हें मेरी दीनता पद दया कहाँ आई? कहते है तुम इतने स्नेह कातर हो कि प्रेम से भरी एक ही आवाज पर दौड़े चले आते हो, पर अपना मन सारे ब्रह्माण्ड में भटक गया पर तुम कहीं भी तो दिखाई नहीं दिये। पीड़ा निधि तुम्हें मेरी पीड़ा का पता होता तो यों ही प्रकृति की ओट में छुपे ने रहते। तुम ऐश्वर्यवान हो, प्रभुता सम्पन्न हो, सारे संसार में तुम्हारा ही वैभव है, तुम भला क्यों अपने विलास को छोड़कर आने लगे? यों ही भटकना था तो तुमने प्रेम का प्रकाश अन्तः करण में जगाया ही क्यों?

समुद्र में बड़े जोर का ज्वार आता है। उठते-उठते जल जब आकाश की सीमा का उल्लंघन नहीं कर पाता तो फिर सम हो जाता है। प्रेम का ज्वार उठता है और फिर एक क्षण के लिये चेतना ज्ञान शून्य हो जाती है। सारे शरीर में सिहरन हो उठी है। कण्ठ से बोल नहीं फूट रहे, आँखें खारी जल बरसाने लगीं। शरीर उत्तप्त हो गया। मन मन में ही आवाज आती है, मेरी आवाज को अब कौन सुनेगा। कैसी मर्म-भेद पीड़ा जागृत हुई है, न शान्त होती है और न शान्त रहने देती है। कैसी विलक्षण मिलन की इच्छा जगी है कि न समाप्त होती है न पूरी होती दीखती है।

थके-थके शरीर में भी आत्मा को चैन नहीं मिलता। फिर एक प्रकाश आता है, बुद्धि में भर जाता है। मस्तिष्क में फिर कोई कहने लगता है, आराध्य! तुम मुझसे दूर नहीं हो। मन में तुम्हीं तो बसे हो, आँखों में तुम्हारी ही तो छवि विद्यमान है। मेरी पहुँच के बाहर थोड़े ही हो। मेरे पास तुम्हीं तो खड़े हो। अभी हाथ बढ़ा दूँ तो तुम्हें पकड़ लूँ। बहुत समीप हो तुम। कही ऐसा तो नहीं फिर छल करने आये हो। अब पूरी तरह विश्वास कर लूँगा कि अब नहीं जाओगे, तभी हाथ बढ़ाऊँगा। तुम्हें मेरे प्रेम की प्यास है तो उसका आनन्द पास खड़े खड़े लेते रहते हो। मुझे भी तो तुम्हारे प्रेम की प्यास है तो फिर तुम मुझसे दूर क्यों हो जाते हो। अच्छा अब मैं हाथ बढ़ाता हूँ। तुम ओझल नहीं हो रहे हो पर पास भी तो नहीं आते। चमक उठते हो तुम, जब-जब मैं तुम्हें ढूँढ़ता हूँ पर जब तुम्हीं में आत्मसात् हो जाने के लिये दो पग आगे बढ़ता हूँ तो मैं ही मैं अकेला मैं ही रह जाता हूँ, तुम कहाँ चले जाते हो। कैसी विलक्षण कहानी है, कुछ कहते नहीं बनता। गूँगे को गुड़ की सी मधुरिमा मेरे अंग प्रत्यंग में भर देते हो। इतना विश्वास दिलाते हो जितना संसार के करोड़ों जन मिलकर भी नहीं दिला सकते, पर इतने अविश्वासी हो कि एक ही क्षण में दूर भाग जाते हो प्रभु! अब इस निबन्ध को पूरा करो। प्रेम की पीड़ा इतनी न बढ़े कि आग बन जाये और उसमें तुम्हारे भक्त का अस्तित्व ही समाप्त हो जाय?

समाप्त होना है तो हो जाये। कब तक यह दर्द सहूँ? तुम्हारे सान्निध्य की ललक है। चाह से मन भर गया है। तुम्हें पाने के लिये मेरा जो कुछ था, सब छोड़ दिया, अब जो है वह तुम्हारा ही तो है। तुम्हारा तुमसे ही समाप्त होता है तो हो जाने दूँगा। अब अपनेपन का भाव भी नहीं रखूँगा। अब यह नहीं भूलूंगा कि मुझे अपना अहंभाव भी तुम्हीं में समर्पित कर देना है। अपने अस्तित्व को अब मिलन के रास्ते में बाधा न बनने दूँगा। पैरों में चाहे कितने काँटे और कंकड़ चुभे पर मुस्कराता हुआ चलता ही रहूँगा, जब तक तुम्हें अपने आपमें भर न लूँ, तुम में स्वयं न समा जाऊँ, कितनी ही पीड़ा हो, कितनी ही छटपटाहट हो, हूक और ललक उठे मेरे पग रुकें नहीं। दीवानगी को इति-श्री तो अब तुमसे मिलकर ही होगी।


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