कुण्डलिनी प्रचंड प्राण शक्ति की गंगोत्री

November 1969

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समस्त शरीर गोलाकार शक्ति अणुओं से मिलकर बना है पर इसके दो केन्द्र बिन्दु ऐसे हैं, जिनकी रचना भिन्न प्रकार की है। उन दो अणुओं की आकृति में ही नहीं, प्रकृति में भी भिन्नता है। हाथ पैर तो क्रिया उपकरण मात्र हैं।काया की असली मशीन, धड़ और शिर समेत मध्य भाग ही है। हाथ पैर कट जायें तो भी मनुष्य आसानी से जीवन रह सकता है। जीवन की मूल धारायें धड़ और सिर वाले मध्य भाग में केन्द्रीभूत हो रही है। हृदय, मस्तिष्क, फुफ्फुस, यकृत, वृक, पाचक यन्त्र आदि वे महत्वपूर्ण अवयव इसी केन्द्र में अवस्थित हैं, जिन पर हमारी जीवन प्रणाली आधारित है। इस प्रणाली के दो सिरे हैं, एक को ‘मूलाधार’ कहते हैं, दूसरे को सहस्रार एक गुदा और जननेन्द्रिय के बीच में अवस्थित है, दूसरा मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में। इस दोनों का परस्पर सम्बन्ध जोड़ती है रीढ़, मेरु दण्ड, हड्डियों का समुच्चय मात्र नहीं है, उसमें आश्चर्यचकित कर देने वाली विद्युत धारायें बहती हैं। उनमें से तीन प्रमुख धारायें हैं-(1) इड़ा (2) पिंगला, (3) सुषुम्ना। त्रिवेणी की तरह इन तीनों का संगम तीर्थ राज प्रयाग जैसी दिव्य स्थिति मानवी काया में उत्पन्न करता है।

पृथ्वी के दो सिरे हैं, जिन्हें उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव कहते है। वैज्ञानिक जानते हैं कि पृथ्वी के भीतर और बाहर जितनी क्षमताएँ दिखाई पड़ती हैं, उनके आधार सूत्र इन ध्रुवों में केन्द्रीभूत हैं। ध्रुव पृथ्वी के मर्मस्थल है। इन्हें यदि तनिक भी अवांछनीय आघात पहुँच जाय तो पृथ्वी अपनी धुरी से हिल कर जल थल को एक कर दे। इतना ही नहीं वह अपनी कक्षा से विचलित हो सकती है और इस अनन्त आकाश में डूबकर कहीं अपना अस्तित्व ही समाप्त कर सकती है। इन विचित्र सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए, आधुनिक वैज्ञानिक अपने आणविक प्रयोगों को ध्रुव प्रदेशों से दूर ही रख रहे है। वे जानते हैं कि उनका अधूरा ज्ञान और असंबद्ध प्रयोग इस सुन्दर सृष्टि का अस्तित्व ही समाप्त करके रख सकता है। ध्रुवों पर जमी बर्फ यदि किसी वैज्ञानिक भूल से पिघल पड़े तो समुद्र में इतना पानी बढ़ जायेगा कि आज का लगभग आधा थल प्रदेश उसमें डूबकर समाप्त हो जायेगा। वैज्ञानिक ललचाने अवश्य हैं कि ध्रुव केन्द्रों में ड़ शक्तियों का यदि ठीक से पता चल जाय और उनको ठीक से उपयोग करने के स्त्रोत मिल जायें तो फिर इस पृथ्वी का भी वैसा ही मन माना प्रयोग किया जा सकता है, जैसे काया और बुद्धि का किया जाना है। तब मनुष्य अनन्त शक्तियों का स्वामी और तथाकथित देवताओं से अधिक समर्थ होगा

पंच तत्वों से बने पृथ्वी पिण्ड के ध्रुव केन्द्रों में ड़ हिल शक्तियों का थोड़ा सा परिचय प्राप्त करके भौतिक वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि जिस प्रकार शरीर में हृदय और मस्तिष्क दो प्रधान प्राण पुञ्ज धारण करने वाले समर्थ अवयव हैं, उसी प्रकार पृथ्वी के दो ध्रुवों की स्थिति है। इनमें अपार शक्ति भण्डार भरा पड़ा है। कभी इस शक्ति पर अधिकार हो गया तो स्वर्ग की कल्पनाओं से अधिक सुविधायें इसी संसार में उपलब्ध की जा सकेंगी।

आत्म विद्या के अन्वेषकों ने सूक्ष्म जगत् में भरे चेतन तत्वों की शोध बड़ी तत्परतापूर्वक प्राचीनकाल में की थी। इस काया में ही उन्होंने जड़ जगत का सारा प्रतिबिम्ब पाया। जो स्थूल संसार में है, वह सूक्ष्म रूप से मनुष्य की काया में भी विद्यमान है। इस तथ्य को उन्होंने भली प्रकार समक्ष लिया था। इसलिए महंगे, उपकरणों और साधनों द्वारा की जा सकने वाली प्रकृतिगत शोधों की अपेक्षा उनने यह अधिक उचित समझा कि काया को पृथ्वी की प्रतिक्रिया मानकर उसे खोजे और जो अन्वेषण प्रयोग अभीष्ट हों वे इस देह पर ही कर लें। इसी प्रयोग पद्धति का नाम ‘योगाभ्यास’ है।

योगाभ्यास की अनेक प्रक्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण कुण्डलिनी महाशक्ति का स्वरूप समझने एवं उपयोग जानने ही की पद्धति ही मानी गई है। इसे काया के दो ध्रुवों पर किया जाने वाला प्रयोग एवं आधिपत्य माना जा सकता है। “ इस साधना के छोटे बड़े अनेक स्तर प्रयोग एवं फलितार्थ है। सर्वसुलभ आरम्भिक प्रयोग भी इस विद्या के हैं जो सामान्य जीवन में तेजस्विता, प्रखरता एवं क्रियाशीलता भर सकते हैं। कठिन और उच्च स्तर के प्रयोग भी है। जो व्यक्ति की अन्तरंग सत्ता को इतनी व्यापक बना सकते हैं कि वह ब्रह्माण्ड की महान सत्ताओं के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ सके। इस ब्रह्माण्ड में इतना कुछ भरा पड़ा है कि मनुष्य की कल्पना तक अस सब को जानने समझने में समर्थ नहीं हो सकती। पर ब्रह्मा के अतुल वैभव को छू सकने की क्षमता जिस व्यक्ति को उपलब्ध हो जाय वह प्रकृति के समृद्ध भण्डार से अभीष्ट मात्रा में जो चाहे सो प्राप्त कर सकता है और उस महाकोष में अपना अनुदान देकर विश्व-व्यापी ब्रह्म चेतना को प्रभावित भी कर सकता है।

पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव सृष्टि की असंख्य ज्ञात और अज्ञात शक्तियों को अपने भीतर छिपाये बैठे है। यही बात काया रूपी पृथ्वी के दो ध्रुवों के बारे में लागू होती है। ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्रार चक्र उत्तरी मूलाधार के नाम से विख्यात हैं इन दोनों मर्मस्थलों में दो विशेष आकृति ओर प्रकृति के शक्ति बीज विद्यमान हैं। मूलाधार का शक्ति बीज तिकोना है। उसकी आकृति पर्वत जैसी मानी गई है। सारे शरीर में विद्युत धारा का प्रवाह आगे बढ़ना तनिक पीछे हटना फिर आगे बढ़ना इस क्रम से संचारित होता है। साधारणतया बिजली की यही गति हैं किन्तु मूलाधार में अवस्थित त्रिकोण शक्ति बीज जिसे सुमेरु पर्वत भी कहते हैं।

एक सर्पाकार विद्युत प्रवाह इस सुमेरु के आस-पास लिपटा बैठा है। इसी को महा सर्पिणी कुण्डलिनी कहते है। इसे विद्युत भ्रमर भी कह सकते हैं। तेज बहने वाली नदियों में वहीं कहीं बड़े भँवर पड़ते है। वहाँ पानी की चाल सीधी अग्रगामी न होकर गोल गहर की गति में बदल जाती है। मनुष्य शरीर में सर्वत्र तो नाड़ी संस्थान के माध्यम से सामान्य गति से विद्युत प्रवाह बहता है। पर उस मूलाधार स्थित सुमेरु क समीप जाकर वह भँवर गहर की तरह चक्राकार घूमती रहती है। इस स्थिति को सर्पिणी कहते हैं। कुण्डलिनी की आकृति, सर्प की सी आकृति में मानी गई है।

नदी प्रवाह में भँवरों की शक्ति अद्भुत होती है। उनमें फँस कर बड़े-बड़े जहाज भी सम्भाल नहीं पाते और देखते -देखते डूब जाते हैं।साधारण नदी प्रवाह में जितनी शक्ति और गति रहती है, उससे 60 गुनी अधिक शक्ति भँवर में पाई जाती है। शरीरगत विद्युत प्रवाह में अन्यत्र पाई जाने वाली क्षमता की तुलना में कुण्डलिनी की शक्ति हजारों गुनी बड़ी है। उसका स्वरूप एवं विज्ञान यदि ठीक तरह समझा जा सके तो निस्सन्देह व्यक्ति सर्वसमर्थ सम्पन्न सिद्ध पुरुष बन सकता है।

कुण्डलिनी का मध्यवर्ती जागरण मनुष्य शरीर में एक अद्भुत प्रकार की तड़ित विद्युत उत्पन्न कर देता है। हमें एक ऐसे सिद्ध पुरुष का परिचय है जिसका शरीर भौतिक बिजली से हर घड़ी भरा-पूरा रहता है। उसे कोई स्पर्श नहीं कर सकता। छुए तो खुली बिजली छूने जैसा झटका लगे। वे हमेशा आँखें नीचे रखते हैं। एक बार उन्होंने गौर से एक काँच को देखा और वह तत्काल टूटकर चूरा हो गया।यह शरीरगत विद्युत प्रवाह था। यह धारा जब मनःक्षेत्र में प्रवाहित होती है तो मनस्विता का पारापार नहीं रहता। नहीं रहता। नारद के आगे बाल्मीकि और बुद्ध के आगे अंगुलिमाल जैसे दुर्दान्त दस्युओं को पानी-पानी हो जाना इसी मनस्विता का चमत्कार था। योग साधना शरीर कन और आत्मा के स्थूल सूक्ष्म एवं कारण कलेवरों में न जाने कितनी सामर्थ्य उत्पन्न कर सकती है। कहना न होगा कि कुण्डलिनी साधना योगाभ्यास की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसे आरम्भिक स्तर पर करने से भी भौतिक जीवन प्रखर एवं प्रतिभा सम्पन्न बनाया जा सकता है। ऊँचे स्तर पर तो उस साधना को परिणति कितनी चमत्कारी हो सकती है, उसका उल्लेख कर सकना भी कठिन है।

मूलाधार अवस्थित दक्षिणी ध्रुव को-महासर्पिणी को चर्चा अभी की गई है। उत्तरी ध्रुव सहस्रार कमल का रहस्य और भी अधिक अद्भुत है। पुराणों में क्षीरसागर में सहस्र मुखी शेषनाग पर विष्णु भगवान के शयन करने की बात कही गई है। इस अलंकार में ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्रार कमल का ही उल्लेख है। मस्तिष्क के बीच-बीच भी एक विचित्र आकृति और प्रकृति का शक्ति बीज मूलाधार की तरह ही है। इसमें आगे सूक्ष्म आरी जैसे दाँत सब ओर हैं। इन दाँतों को कमल की पंखुड़ियाँ भी कहते हैं। और उन्हें ही महासर्प के हजार फन माना गया है। मस्तिष्क में भरा हुआ, भूरे नवनीत जैसा पदार्थ क्षीरसागर के नाम से सम्बोधित किया गया है। इस पर विष्णु की स्थिति शयन अवस्था में हैं। आमतौर से लोगों का भगवान सोया ही रहा है, यदि वह जाग पढ़े तो उसका प्रकाश, आवेश रोम-रोम में भर जाय और उस व्यक्ति की तुलना भगवान के रूप में की जाने लगे।

पौराणिक अलंकार में विष्णु के साथ लक्ष्मी चरण दबाने में लगी दिखाई जाती है और एक ओर हनुमान दूसरी ओर नारद खड़े परिलक्षित होते हैं। जहाँ विष्णु है-भगवान है वहाँ श्री, समृद्धि, सम्मति और सफलता की-लक्ष्मी की -क्या कमी रहेगी? लक्ष्मी विष्णु की पत्नी है। उनके पैर दबाती हैं। अर्थात् जहाँ भी ब्रह्मा की प्रतिष्ठापना होगी वहाँ समृद्धियों की, विभूतियों की श्री लक्ष्मी अनायास ही प्रस्तुत रहेगी। सहस्रार तक पहुँचा हुआ साधक दिव्य विभूतियाँ से वंचित नहीं रह सकता। हनुमान भौतिक बल के प्रतीक हैं। और नारद ज्ञान के प्रतिनिधि। सहस्रार कमल में अवस्थित विष्णु जहाँ विद्यमान होंगे वहाँ भौतिक एवं आत्मिक बल की कमी न रहने पावेगी। यह दिग्दर्शन हमें शेषशायी विष्णु के उपलब्ध चित्रों से सहज हो विदित हो जाता है।

क्रमशः कुण्डलिनी महाशक्ति का स्वरूप, प्रयोग और प्रतिफल पाठक इन पंक्तियों में जानते, समझते चलेंगे संक्षेप में अभी हमें इतना ता जान हो लेना चाहिये कि मानव शरीर मात्र हाड़-माँस का पुतला नहीं है। यदि उसके आन्तरिक ढाँचे में छिपी पड़ी शक्तिपात का अनुसंधान किया जाय तो प्रतीत होगा, इस धरती,सृष्टि एवं ब्रह्माण्ड में जो कुछ अतुलित शक्ति भण्डार एवं विभूतियों का समुद्र भरा पड़ा है, वह बीज रूप में अपनी छोटी सी काया में भी विद्यमान है। और यदि उसका उपयोग पेट तथा प्रजनन से- वासना और तृष्णा से- ऊँचा उठकर अध्यात्म प्रयोजन के लिए किया जा सके तो व्यक्ति स्वयं भी धन्य बन सकता है और दूसरों के दुःख दारिद्र मिटा सकने का पुण्य परमार्थ भी कर सकता है। समुद्र मन्थन की कथा में देवताओं को 14 अद्भुत रत्न मिलने की बात का उल्लेख है। हम अपना समुद्र मन्थन कर सकें तो उसी स्तर के रत्नों से अपना भण्डार भर सकते है।

गत अंक में चर्चा की गई थी कि मूलाधार स्थित प्राण प्रवाह का क्षण आमतौर से रतिक्रिया में किया जाता रहता है। उसे बचाया जा सके तो बचत से बहुमूल्य वस्तुऐं खरीदी जा सकती है। योग साधना के दक्षिण मार्ग में ब्रह्मचर्य की सरल सर्वोपयोगी साधना का उल्लेख है। साधना का वाम मार्ग नेत्र है। उससे उस शक्ति को उत्तेजित करके ऐसी प्रक्रियाओं का वर्णन हे, जिससे उस उत्तेजना में अगणित प्रसुप्त क्षमताएँ जग पड़े। उपयोग, क्षरण या विनोद के लिए नेत्र में काम शक्ति को उत्तेजित करना और उससे लाभ उठाने के अद्भुत प्रयोगों का उल्लेख है। साधना के पंच ‘म’ कारो में एक मैथुन भी आता है। यह साधारण रतिक्रिया से सर्वथा भिन्न और अतीव विलक्षण प्रकार का है। चूँकि वह प्रसंग गुहा है। सार्वजनिक उपयोग का भी नहीं। कहने सुनने में अश्लील भी बन जाता है। लोग उसका अनैतिक प्रयोग भी कर सकते है, इसलिए तंत्र की अन्य साधनाओं की तरह यह भी गुहा प्रकरण में ही चला जाता है आरे केवल अधिकारी ही इस संदर्भ में चर्चा कर सकते है।

शारदा तिलक तंत्र, कुलाचवि तंत्र, महामंत्र आदि में भैरवी चक्र का वर्णन है। रामकृष्ण परमहंस की जीवनी में उनकी गुरुमाता ने उनसे ‘कुमारी पूजन’ की साधना कराई थी। परमहंस जी की धर्मपत्नी शारदामणि बड़े संकोच से ही उस संदर्भ में सहयोग के लिए उद्धत हुई थी। इस प्रकार के और भी साधन विधान है, जिनमें कामोत्तेजना को मनस्विता में परिणत करने का वैसा ही प्रयोग है, जैसा कि गिरते हुए जल प्रवाह कि शक्ति का उपयोग करके बिजलीघर बनाये जाते हैं अथवा बहती हुई तेज हवा की क्षमता से पनचक्की चलाई जाती है।

कहने का तात्पर्य इतना भर है कि काम-शक्ति केवल घृणित प्रयोजनों में अपव्यय करने के लिए नहीं वरन अंतरंग में अवस्थित गुहा शक्यों के जागरण के काम भी आती है और यदि उसका अपव्यय किया जाय तो शरीर को कम और प्राण को अधिक क्षीण कर देती है। प्रकट है कि हमारे आहार से क्रमशः

रस, रक्त माँस, अस्थि, मज्जा, मेद आदि बनने के उपरान्त अन्तिम धातु रजस

वीर्य बनता है। और यही रजस अन्ततः स्थूल से सूक्ष्म बनकर ड़डड़ड़ एवं तेजस के रूप में परिणत हो जाता है। चेहरे पर चमक, नसों में स्फूर्ति, कन में उमंग अन्तरंग में आकांक्षायें, स्वभाव में दृढ़ता और शौर्य यह सारे चमत्कार शरीर और मन के क्षेत्र में काम करने वाले ओजस के हैं और यह तेजस की ही परिणित है। किशोर अथवा कुमार अवस्था में यह तत्व बढ़ता एवं सुरक्षित रहता है, इसलिए किशोर और किशोरियों-में युवा और युवतियों में चंचलता, सक्रियता, उमंग और विनोद की मात्रा पर्याप्त मात्रा में रहती है। गृहस्थ में पड़ने के बाद लड़के और प्रजनन के बाद लड़कियाँ इस तत्व से वंचित होने लगते हैं उनमें अन्य मनस्कता, आलस्य तथा जैसे-तैसे समय गुजारने की मनोदशा बन जाती है। अविवाहित दिनों में जो उमंग उनके शरीर और मन में काम करती थीं, वे समाप्त हुई दिखने लगती हैं। यह परिवर्तन ओजस की कमी के रूप में प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। इसलिए आत्म-बल का महत्व मानने वाले सदा ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में सतर्क रहते हैं। गृहस्थ में रहते हुए भी अधिक संयम बरता जा सकता है। इससे पति पत्नी दोनों को लाभ होता है। यदा-कदा किया हुआ समागम भी बहुत तृप्ति देता है। सुसन्तति का उत्पादन लम्पट दम्पत्तियों के लिए सम्भव है। जो दम्पत्ति इस संदर्भ में मर्यादायें तोड़ेंगे, उन्हें अपनी शारीरिक, मानसिक क्षमताएँ घटाने की तो हानि होगी ही, साथ ही सन्तान भी दुर्बल शरीर और मन वाली हो पल्ले पड़ेगी।

प्राण शक्ति का केन्द्र-बिन्दू मूलाधार चक्र है। यह जननेन्द्रिय के समीप होने से अपना शक्ति प्रवाह समीपवर्ती उपकरण में अधिक बहा देता है। इसलिए अध्यात्म मार्ग के पथिकों को इस दिशा में अधिक सतर्कता बरतनी पड़ती है। काम का दुरुपयोग ही बुरा है। उसकी उपस्थिति शरीर और मन की मूर्छना को हटाकर सर्वतोमुखी सक्रियता एवं प्रखरता उत्पन्न करती है। इस वेग को किसी प्रकार मोड़ा जा सकता है और उस दिशा परिवर्तन को जीवनी शक्ति के अभिवर्धन एवं मनस्विता के उन्नयन में किस प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है, इसका एक समग्र शास्त्र है। तन्त्र मार्ग में इनको उत्तेजित करके उस उद्दीप्त शक्ति पुँज को विविध प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने की प्रणाली निकाली है। इसके अनुसार कामुकता का अभिवर्धन और नियन्त्रण का प्रकरण मनस्विता की उपलब्धि और अतिशय सुप्त शक्तियों के जागरण में आश्चर्यजनक सफलता के लिए प्रयुक्त हो सकती है।

प्राण शरीर में सक्रियता स्फूर्ति एवं रोग निवारण जीवनी-शक्ति के रूप में चमकता है। मन में उसे साहस, धैर्य सन्तुलन और विनोद के रूप में देखा जा सकता है। जिनका प्राण दुर्बल है, वे आलस्य, अनुत्साह, अवसाद और दीर्घ सूत्र में ग्रसित पाये जायेंगे। काम करने को जी ही न करेगा-करेगा तो आधे अधूरे मन से बेगार भुगतायेंगे। चेहरा निस्तेज और आँखें निराशा,संकोच एवं आशंका से डूबी हुई डबडबाई भी दीखेंगी। मन को प्राण का ईधन न मिला तो वह भी बुझा मुरझाया पड़ा सहेगा। ऐसी शारीरिक और मानसिक दुर्घटनायें प्राण शक्ति की न्यूनता एवं क्षीणता व्यक्त करती है। कुण्डलिनी साधना का प्रयोग इन अभावों की पूर्ति सहज ही कर सकता है और उसकी उच्चस्तरीय प्रगति की प्रचण्ड शक्तियों और अद्भुत सिद्धियों का भाण्डागार सिद्ध कर सकती है।


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