बाह्य अनुकूलता भी आन्तरिक सुख-शाँति की साधिका होती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज में ही जन्मता है, समाज में बड़ा होता हे, समाज की सहायता से ही अपना विकास करता है और समाज में ही बरतता हुआ अपना जीवन यापन करता है। हर मनुष्य को सुख शाँति वाँछित है। कोई नहीं चाहता कि उसकी जीवन यात्रा कंटकाकीर्ण हो। उसे पग पग पर बाधाओं और विपदाओं का सामना करना पड़े। सभी यह चाहते हैं कि हँसी, खुशी और सुख सफलता के साथ इस संसार में जिये।
मनुष्य की जीवन यात्रा में सुख-शाँति की सम्भावना तभी होती है, जब जिस समाज में वह रह रहा है, उसमें उसे अनुकूलता प्राप्त हो। प्रतिकूलता से बाधा और संघर्ष का जन्म होता है। किन्तु अनुकूलता की स्थिति में जीवन धारा, समतल पर बहती हुई निर्मल और प्रसन्न नदी की भाँति निर्बन्ध रूप से बहती चली जाती है। समाज हमारे अनुकूल हो, या हमारा कोई नैसर्गिक अधिकार नहीं है। और न समाज हमारे अधीन ही है, और न वह हमारे प्रति अनुकूल होकर चलने के लिए बाध्य है। समाज की अनुकूलता तभी प्राप्त होती है, जब हम स्वयं उसके अनुकूल हो। समाज तो समाज हम किसी एक व्यक्ति को भी, स्वयं प्रतिकूल रहते हुए अनुकूल नहीं बना सकते। समाज को अनुकूल बनाने के लिए स्वयं उसके अनुकूल होना पड़ेगा- यह अटल नियम है।
तथापि समाज के अनुकूल होने पर भी मनुष्य को सारी परिस्थितियाँ ही उसके अनुकूल बनी रहेंगी, यह आवश्यक नहीं। मानिए समाज अनुकूल है लेकिन अपना स्वास्थ्य अपने अनुकूल नहीं है तो क्या मनुष्य सुख-शाँति पूर्ण जीवन बिता सकता है। समाज भी अनुकूल हो और स्वास्थ्य भी साथ दे रहा हो, किन्तु कोई नागफनी आकर जीवन अशान्त कर दे तो समाज और स्वास्थ्य हमारी क्या सहायता कर सकता है? व्यापार में घाटा हो जाय। चोरी डकैती से धन चला जाय। कोई सन्तान निकम्मी निकल जाय अथवा इति भीति आदि का शिकार बनना पड़ जाये तो सब कुछ अनुकूल होते हुए भी मनुष्य को असुख और अशान्ति का आखेट होना ही पड़ेगा। समाज की अनुकूलता सुख-शाँति की साधिका अपदय है, लेकिन वह न तो किसी की सुख-शाँति चिर सुरक्षित रख सकती है और न संयोग, दैवयोग अथवा घटना जन्य अशान्ति अथवा असुख को आने से रोक सकती है।
आत्मा की अनुकूलता ही वह सच्ची और सम्पूर्ण अनुकूलता है,जो हर दशा और हर परिस्थिति में मनुष्य के सुख का एक बड़ा हेतु है, उसका सुरक्षित तथा निर्भय रहना। यदि आत्मा में सजीवता, सबलता और दृढ़ता की स्थिति विद्यमान् है तो मनुष्य का साहस, शक्ति तथा धैर्य बढ़ा चढ़ा रहेगा। वह स्वभाव से ही अपने को सुरक्षित तथा निर्भय अनुभव करता रहेगा। जा आत्मिक स्तर पर निर्भय तथा साहसी है, वह प्रायः आक्रामक तत्वों से सुरक्षित ही रहा करता है। जो निर्बल है, भीत स्वभाव का है, उसके विरोधियों तथा शत्रुओं की वृद्धि हो जाना आश्चर्यजनक नहीं चीर, लुटेरे उसके धन पर ही नजर मँडराते है, जो उसकी रक्षा नहीं कर सकता। प्रगति के मार्ग में उसके ही प्रतिद्वन्द्वी अधिक उत्पन्न हो जाते है, जो निर्बल होता है। अत्याचारी अपनी अनीति का लक्ष्य उसे ही बनाते है, जिसके कमजोर और कायर समझते है। रोगों का आक्रमण उसी पर होता है, जिसका शरीर दुर्बल तथा असहिष्णु होता है। तात्पर्य यह कि निर्बल और कायर व्यक्तियों के लिए उनकी प्रगति और सुख के साधन तक ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देते है, जो असन्तोष, अशान्ति तथा असुख की संचालिका होती है। जिसकी आत्मा सजीवता, सबलता और दृढ़ता के रूप में अनुकूल होती है। उसके लिए न कहीं भय है और न कहीं पराभव। आत्मानुकूल व्यक्ति सदा ही निर्भय तथा निश्चिन्त रह कर सुख चैन की जिन्दगी बिताता है।
यदि मनुष्य की आत्मा उसके अनुकूल है तो उसे संयोग अथवा दैत्यराज से घटित प्रतिकूलताएँ भी प्रभावित नहीं कर सकती। आत्मा का मित्र मनुष्य सारी सृष्टि में अपनी आत्मा का ही प्रसार देखता है। वह दुःखद अथवा सुखद किसी प्रकार की घटना एवं परिस्थिति के पीछे परमात्मा का कोई महान् एवं कल्याणकारी मन्तव्य छिपा देखता है। आत्मा की मैत्री उसे सामान्य स्तर से उठाकर एक ऐसी उच्च भूमिका में पहुँचा देती हे, जहाँ वह संसार की हर क्रिया प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया के प्रति तटस्थता से स्थित रहता है। आत्मा के माध्यम से जब मनुष्य परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त कर लेता है तो निसर्ग के अनुसार अपने को वही अनुभव करने लगता है। जो अपने को शरीर न समझकर आत्मा और परमात्मा अनुभव करने लगता है, वह संसार में घटित होती हुई हर परिस्थिति को को आत्मप्रेरणा ही मानेगा। ऐसी उच्च मनोभूमि और प्रतीति के बीच अशान्ति, असन्तोष अथवा सुख का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। धन्य है ऐसे मुक्त तथा श्रेयी पुरुष जो महापुरुषार्थ द्वारा परमात्मा के समकक्ष जा पहुँचते है।
आत्म अनुकूलता से सम्पन्न व्यक्ति ही नहीं आत्मा के प्रति स्वयं अनुकूल रहने वाले व्यक्ति भी दुःख तथा शोक संतापों से सदा सुरक्षित रहते है। आत्मा मानव शरीर में परमात्मा का प्रतिनिधि है। वह केवल मनुष्यों को चैतन्य ही नहीं रखता,बल्कि उसका निर्देशन कल्याण कर्तव्यों के सिवाय और क्या हो सकता है? आत्मा के प्रति अनुकूल रहने वाला व्यक्ति भूलकर भी न तो कभी कुपथ पर पाँव देगा और न दुराचरण में प्रवृत्त होगा। उसका हर कदम, उसकी हर गतिविधि उच्चादर्श से विभूषित और मानमर्यादा से नियन्त्रित होगी। वह सर्वांग रूप से स्वार्थ से विरत और परमार्थ में निरत रहेंगे। वह वही कुछ करेगा,, जिससे उसकी आत्मा सहमत और परमात्मा प्रसन्न होगा। ऐसे आत्मनिष्ठ पुण्य परमार्थी के पास अशान्ति, असन्तोष, दुःख अथवा शोक सन्ताप का कोई कारण फटक सकता है, यह असम्भव है। उसका अधिकार तो सच्चिदानन्द में लीन होकर रहना होता है, जिसका वह अनुरक्षण उपभोग करता हुआ, अपने सद्जीवन का फल पाता रहता है।
जीवन का दूसरा नाम शक्ति है। केवल प्राण का आवरण अथवा श्वाँस का आवागमन मात्र ही जीवन नहीं है। जिस जीवन में जीवनी शक्ति का अभाव हे उसे जीवन नहीं माना जा सकता। जो शरीर से स्वस्थ वृत्तियों से बलिष्ठ और स्वभाव से तेजस्वी है, वही यथार्थ रूप में जीवित है। वैसे चलती फिरती स्वत्वहीन लाशों की संसार में कमी नहीं हे। इन सब विशेषताओं को यदि कोई सामूहिक संज्ञा दी जा सकती है तो वह है ‘शक्ति’। वो शक्तिवान होता है, उसे संसार में सब ओर अनुकूलता ही अनुकूलता दिखलाई देती है। शक्ति के आधार पर ही संसार के पदार्थ उपयोगी, अनुकूल एवं सहायक सिद्ध होते है। जीवनी शक्ति की कमी होने पर भोजन के पुष्टिकर पदार्थ भी हानिकारक सिद्ध होने लगते है। शक्तिहीन व्यक्ति को शीघ्र ही अनिष्ट और आपत्तियाँ प्रभावित करने लगती है। निबल एवं निस्तेज आदमी को सभी ओर सहयोग तथा सहायता का अभाव हो जाता है। नीति की यह लोकोक्ति सर्वथा सत्य है कि “दैव भी दुर्बल के लिए घातक सिद्ध होता है। निर्बल तथा अशक्त व्यक्ति पर निरन्तर भय का आतंक छाया रहता है। जिससे उसका विवेक नष्ट हो जाता है, बुद्धि मारी जाती है। परिणामतः संसार पथ पर उसके चरण अस्त व्यस्त पड़ने लगते है। अस्त व्यस्तता और अव्यवस्था को आपत्तियों की जननी कहा गया है। इस प्रकार अशक्त व्यक्ति के लिए सभी ओर दुःख और संकट की घटाएँ छाई रहती है। पुकारने, चिल्लाने और दैव दैव करने पर भी अशक्तता के कारण निर्बल की पुकार में कोई प्रभाव और प्रार्थना में बल नहीं होता। निदान देवी उपेक्षा के कारण भी उसे आपत्ति के हाथों मिटने पर मजबूर ही होना पड़ता है। निर्बलता एक भयंकर पाप है।
मनुष्य की आत्मा सारी शक्तियों का भण्डार है। आत्म शक्ति ही सच्ची शिव शक्ति है। यही तो वह शक्ति है, जिसे पाकर मनुष्य भूषित हो जाता अन्यथा संसार की सारी भौतिक शक्तियाँ न केवल पाशविक शक्तियाँ ही होती है, अपितु मिथ्या तथा प्रवंचक भी होती है। संसार की बाह्य अथवा काई भी भौतिक शक्ति किसी समय भी निकम्मी तथा व्यर्थ हो सकती है। साधनों तथा उपायों पर निर्भर रहने के कारण उस पर किसी प्रकार विश्वास नहीं किया जा सकता, इसके अतिरिक्त इस विराट् ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी भौतिक है, वह सब अनिश्चित, परिवर्तनशील तथा नश्वर है। इसीलिये किसी प्रकार की भी भौतिक शक्ति जा सकती है, अशक्ति में बदल सकती है अथवा नष्ट हो सकती है।
आत्मा शाश्वत तथा अमर है। इसलिये उसकी शक्ति का अमर एवं अक्षम होना अनिवार्य है। आत्मा स्वयं आत्म निर्भर है। न ता उसके लिये किसी आधार की आवश्यकता है और न वह किसी पर आधारित ही है। इसलिये उसकी शक्ति को स्थित रहने के लिये किसी अन्य आधार की आवश्यकता नहीं होती। उसकी शक्ति सदा आत्म निर्भर है, चिर सुरक्षित, अक्षय एवं विश्वस्त है। जीवन एवं जीवन के सच्चे स्वरूप शक्ति को पाने के लिये मनुष्य को आत्मा की आराधना करनी चाहिये उन्हीं शक्तियों को जगाना और ग्रहण करना चाहिये, जो आत्मभूत होती है। उस आत्म शक्ति का धनी मनुष्य एक मनुष्य ही क्या सारे जगत को अपने अनुकूल बना सकने में समर्थ हो हो सकता है।
जिसने आत्मा के ग्रहण कर उसको प्रबुद्ध बना लिया है। जिसने उसके प्रकाश को आवरण बन कर प्रकट कर लिया है और जिसने यह मान लिया है कि सर्वानुकूलता ही सुख-शाँति का हेतु है और इस सामूहिक अनुकूलता के लिए एक आत्मा की अनुकूलता ही पर्याप्त है, उसने मानो डंके की चोट पर उन सारे सुखों और सांख्यों पर अपना अधिकार घोषित कर दिया है, जितनी कामना अथवा कल्पना को जा सकती है। मनुष्य आत्मवान् प्राणी है। उसे सुख के साधन और उपादान खीजने के लिए बहुत दूर नहीं जाना है। उसकी आत्मा ही हर प्रकार की विभूतियाँ एवं सम्पदाओं से भरी है। जो कुछ बाह्य ब्रह्माण्ड में शिव और सुन्दर है, यह सब आत्मा में भी विद्यमान् है। उसे पाने के लिये जो जितना आत्मा के निकट और उसके अनुकूल होता जायेगा, वह उतनी उतनी ही ऋद्धियों तथा सिद्धियों का स्वामी बनता जायेगा, सहयोग, शक्ति और अनुकूलता सुख के बहुत बड़े आधार है। एक आत्मा को अपने अनुकूल कर लेने से इन सब आधारों की प्राप्ति सहज ही में हो जाएगी। आत्मा को अनुकूल करने का एक सरल सा उपाय है स्वयं आत्मा के अनुकूल होकर चलना। परमात्मा के उस प्रतिनिधि का निर्देश मानना और मानना और वैसा आचरण करना बस।